पद्मश्री से सम्मानित बिहार के कलाकारोंके जीवन और कला कर्म को संकलित करने का सफल प्रयास है बिहार म्यूजियम के अपर निदेशक अशोक कुमार सिन्हा द्वारा लिखी गयी पुस्तक‘बिहार के पद्मश्री कलाकार’में I पुस्तक में क्या है और इस तरह के किसी पुस्तक की महत्ता बता रहे हैं कला समीक्षक अनीश अंकुर I वैसे तो यह बेहद गर्व की बात है कि आज़ादी के बाद से बिहार की माटी से जुड़े पंद्रह कलाकारों ने पद्मश्री सम्मान हासिल किया है I जो संभवतः किसी अन्य राज्य या प्रदेश की तुलना में विशेष उल्लेखनीय है I प्रस्तुत है विस्तृत पुस्तक समीक्षा का अंतिम भाग जिसमें अनीश अंकुर चर्चा कर रहे हैं पद्मश्री सुभद्रा देवी, शिवन पासवान, शांति देवी एवं टिकुली कला के अशोक कुमार विश्वास की जीवन तथा कला यात्रा की ……
अनीश अंकुर
सुभद्रा देवी:
‘बिहार के पद्मश्री कलाकार’ पुस्तक में मिथिला क्षेत्र की ज्यादातर महिलाएं मधुबनी पेंटिंग में सम्मान मिलने के कारण शामिल हुईं है। परंतु सुभद्रा देवी को यह पद्मश्री सम्मान पेपरमेसी के कारण प्राप्त हुआ है। पुस्तक लेखक अशोक कुमार सिन्हा ने सुभद्रा देवी पर लिखते हुए उनके निजी जीवन के संघर्ष के साथ- साथ उनके माध्यम की विशिष्टता पर भी रौशनी डाली है। सुभद्रा देवी मधुबनी जिले के सलेमपुर गांव की हैं। इन्होंने पेपरमेसी में काम करना अपने गांव घर में मां और नानी से सीखा था। मिथिलांचल में वैसे भी शिल्प-संस्कृति समृद्ध रहा है। शादी -ब्याह एवम पर्व त्योहार के अवसर पर गांव-घर में तरह-तरह के भित्ति चित्र और कलाकृतियों का निर्माण होता था। उन कलाकृतियों या भित्ति चित्रों का विषय-वस्तु पौराणिक कथाओं तथा धार्मिक मान्यताओं पर आधारित होता था। मसलन, कार्तिक मास में सामा चकेवा पर्व के समय महिलाएँ मिट्टी का सामा, चकेवा, छोटे-छोटे पक्षियों के पुतले, पौती, पिटारी, डोली, कजरौटा इत्यादि बनाया करती थीं। मुंडन, उपनयन तथा शादी-ब्याह के अवसर पर जमीन तथा दीवारों पर अरिपन तथा कोहबर चित्रों का निर्माण अनिवार्य था। सिलाई- कटाई, कढ़ाई एवं बुनाई से बनने वाले पोशाक, सिक्की घास से निर्मित डलिया, मौनी और चटाई तथा पेपरमैशी से निर्मित तश्तरी, प्लेट, खिलौने इत्यादि पर्व- त्यौहारों के साथ-साथ दैनिक जीवन में प्रयोग में लाये जाते थे।
पेपरमेशी क्या है? इस बारे में अशोक कुमार सिन्हा बताते हैं
“पेपरमेसी फ्रेंच शब्द से बना है, जिसका अर्थ होता है मसला हुआ कागज। इस शिल्प का मुख्य माध्यम रद्दी कागज या गत्ता होता है। सर्वप्रथम रद्दी कागज या गत्ते के छोटे-छोटे टुकड़ों को पानी में डालकर दो-तीन दिनों तक छोड़ दिया जाता है। उसके बाद पानी से निकालकर उसकी लुगदी तैयार की जाती है। बाइन्डर के रूप में इमली के बीज को कूटकर उस लुगदी मे मिला दिया जाता है। उससे लुगदी में लसलसापन आ जाता है। दीमक तथा कीड़ों से बचाव तथा टिकाऊ रखने के लिए उसमें मुलतानी मिट्टी, मेथी, तूतिया, गोंद या फेवीकाल भी मिलाया जाता है। तत्पश्चात तैयार लुगदियों को धीरे-धीरे हाथों से मनोनुकूल आकार देने के बाद कई दिनों तक कड़ी धूप में सुखाया जाता है। ”
सुभद्रा देवी का जीवन भी काफी कष्टमय रहा है। अपनी पहचान बनाने के लिए उन्हें काफी पापड़ बेलने पड़े। जब देश-विदेश के कला बाजार में मिथिला (मधुबनी) पेंटिंग का बाजार विकासित हो रहा था, उसकी मांग बढ़ रही थी। सुभद्रा देवी ने सुन रखा था कि मिथिला पेंटिंग के सहारे क्षेत्र के कई कलाकार अपने परिवार का जीविकोपार्जन कर रहे हैं। सुभद्रा देवी ने भी तय कर लिया कि वह भी बचपन में अपनी माँ से सीखी पारंपरिक कलाओं को अपनी आय का जरिया बनायेंगी। जब अपने इस निर्णय से उन्होंने घरवालों को अवगत कराया तो किसी को यह यह भरोसा नहीं हुआ कि पारंपरिक कलाओं को आजीविका का भी माध्यम बनाया जा सकता है। पति उपहास उड़ाने लगे। लेकिन सुभद्रा अपने निर्णय पर अडिग रहीं। वह आसपास के बाग-बगीचों से फूल और पतियाँ लाकर खुद ही प्राकृतिक रंग तैयार करतीं, उससे पेंटिंग बनातीं और उस पेंटिंग को बेचने के लिए पैदल ही अपने गाँव से 12 किलोमीटर दूर मधुबनी हैंडीक्राफ्ट ऑफिस चली जाती थीं। बीच-बीच से समय निकालकर वह मिट्टी एवं लुगदी से देवी-देवताओं की मूर्तियों एवं खिलौने भी तैयार करती थीं। यह काम कई वर्षों तक चलता रहा। लेकिन उससे उतनी आय नहीं हो रही थी जिसे घर परिवार चल सके।
संघर्ष का दौर चल ही रहा था कि पति का असामयिक निधन हो गया। यह सुभद्रा के लिए बज्रपात जैसा था। लेकिन सुभद्रा अलग मिट्टी की बनी थीं । उन्होंने सुन रखा था कि पटना में बिहार सरकार का हैण्डीक्राफ्ट ऑफिस (उपेन्द्र महारथी शिल्प संस्थान) है, जहाँ से पारंपरिक कलाओं को बढ़ावा मिलता है। मधुबनी एवं आसपास के कई कलाकार उस संस्थान के माध्यम से अपना जीविकोपार्जन कर रहे थे। सुभद्रा ने भी तय कर लिया कि वह पटना में रहकर अपने परिवार का पेट पालेंगी। लेकिन घर वाले इसके लिए तैयार नहीं थे। इसे लेकर कई महीनों तक घर में तनाव रहा। सुभद्रा अपनी जिद पर अड़ी रहीं। आखिरकार घरवालों ने हार मान ली और सुभद्रा अपने अबोध बाल-बच्चों को लेकर पटना चली आई।
वह 1970 का दशक था। सुभद्रा पटना में गंगा नदी किनारे बसे गोंसाई टोला में किराये के मकान में रहने लगीं। गंगा नदी के किनारे से मिट्टी लाकर खिलौने बनाती और उसे बिक्री के लिए उपेन्द्र महारथी शिल्प संस्थान में जमा कर देती। एक बार इन्होंने मिट्टी से सामा चकेवा बनाया और उसके सूखने के बाद उसपर चित्रकारी कर संस्थान ले गई। वहाँ के तत्कालीन अधिकारी सेनगुप्ता की नजर सुभद्रा देवी की कलाकृति में निहित सौंदर्य और संवेदनाओं की ओर गयी। उन्होंने सुभद्रा देवी को समझाया कि मिट्टी से बनी मूर्तियाँ वजनी होती है और उनके ट्रांसपोर्टेशन में भी कठिनाई आती है। दूसरी तरफ पेपरमेशी माध्यम में निर्मित सामग्रियाँ भार में हल्का और व्यवहार में मिट्टी की तरह मनमाफिक आकार दिये जा सकने के कारण ज्यादा पसंद की जाती हैं। इसलिए उन्होंने मिट्टी के बजाए पेपरमेशी शिल्प को रोजगार का माध्यम बनाने की सलाह दी। सुभद्रा देवी को उनकी सलाह पसन्द आई और वह उनके सहयोग से मिथिला की इस पारंपरिक कला (पेपरमेशी) का निर्माण करने लगीं।
धीरे-धीरे उनकी पहचान बनती चली गईं। पटना में लगभग 11 वर्षों तक रहने के बाद सुभद्रा देवी अपने गाँव सलेमपुर लौट गई। तत्पश्चात अपने आसपास के गाँवों की महिलाओं का एक समूह बनाया और मिथिला की संस्कृति के आधार पर उन्हें पेपरमेशी शिल्प का प्रशिक्षण देने लगी । परम्परा और आधुनिक विषयों का समावेश कर उनसे पेपरमेशी शिल्प में नए-नए डिजायन तैयार कराया और भारत सरकार के हस्तशिल्प मंत्रालय के सहयोग से देश के विभिन्न शहरों में उन्हें प्रदर्शित करना शुरू किया। सी.सी.आर.टी, भारतीय हस्तशिल्प परिषद, मद्रास क्राफ्ट फाउन्डेशन, दस्तकार और क्राफ्ट म्यूजियम जैसे संगठनों ने भी इनकी कला के प्रचार-प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अबतक ये सैकड़ों महिलाओं को पेपरमेशी शिल्प में प्रशिक्षित कर चुकी हैं।
शिवन पासवान :
शिवन पासवान का पद्मश्री सम्मान पाने वाले पहले दलित कलाकार रहे हैं। उन्हें यह सम्मान इसी वर्ष प्राप्त हुआ है। भारतीय समाज में जाति व्यवस्था का शिकार एक प्रतिभा संपन्न कलाकार को किस प्रकार होना पड़ता है इसका उदाहरण हैं शिवन पासवान। 67 वर्षीय शिवन पासवान का पूरा जीवन जाति और गरीबी के दंश से जूझते जीवन की गाथा है। पेंटिंग के क्षेत्र में दलितों द्वारा बनाए पेंटिंग को पहले ‘हरिजन पेंटिंग’ या ‘गोदना पेंटिंग’ कहा जाता है। कहीं कहीं उपहासस्वरूप ‘गोबर पेंटिंग’ के नाम से भी पुकारा जाता है। शिवन पासवान के लंबे और मुश्किल संघर्षपूर्ण जीवन को समझने के लिए अशोक कुमार सिन्हा द्वारा लिखे गए आलेख के इस लंबे उद्धरण को देखा जाना चाहिए।
” शिवन पासवान का जन्म 5 मार्च, 1956 ईस्वी में बिहार राज्य के मधुबनी शहरी क्षेत्र के लहेरियागंज नामक ग्राम में हुआ। रामस्वरूप पासवान एवं माता कुसुमा देवी के पांच संतानों में से एक शिवन पासवान सबसे बड़े थे। पिता दैनिक मजदूरी का कार्य किया करते थे एवं माता घर संभालने के साथ-साथ पशुपालन का कार्य किया करती थीं। रामस्वरूप पासवान परंपरागत लोक देवी-देवताओं के पुजारी एवं लोक गाथाओं के गायक थे। उन दिनों संकट की घड़ी में दुसाध (पासवान) जाति के लोग चूहरमल और रेशमा, हरवा-बरवा, राह बाबा, राजा सहलेस आदि लोक देवी-देवताओं की गुहार लगाते थे। इनकी लोकपूजा एवं गाथा-गायन का क्षेत्र व्यापक था। रामस्वरूप पासवान भी बुलाने पर गांव-गांव जाकर लोक देवताओं की गाथा सुनाकर एवं उनका पूजा-पाठ भगताई करा कर जीवन-यापन किया करते थे। लेकिन आजादी के बाद लोक देवी-देवताओं के पूजा को अंधविश्वास बताते हुए समाज से उसका उन्मूलन हो रहा था। लोक गाथा सुनाने वाले बहुत से लोग अपने जीवन-यापन के लिए मजदूरी का कार्य करने लगे थे। रामस्वरूप पासवान उन्हीं में से एक थे। आजाद हुए भारत में मधुबनी जिला बहुत ही पिछड़ा हुआ था। यहां के ज्यादातर हरिजन समुदाय के लोग अत्यंत गरीबी में दिन गुजारा करते थे। शिवन पासवान के परिवार का एकमात्र साधन मजदूरी हुआ करता था। जिस दिन मजदूरी का कार्य नहीं मिलता था, उस दिन घर में खाने के भी लाले पड़ जाते थे।
पिता एवं माता, गरीबी की अत्यन्त परेशानियों को झेलते हुए भी अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते थे। किसी तरह शिवन की प्राथमिक शिक्षा नगरपालिका के द्वारा संचालित प्राथमिक शिक्षा केंद्र में हुई एवं स्थानीय गोकुल मथुरा सुड़ी हाईस्कूल से नवमीं तक की पढ़ाई की। लेकिन अत्यंत गरीबी के कारण मैट्रिक का फॉर्म नहीं भर पाए। फिर किसी तरह संस्कृत स्कूल से दसवीं की परीक्षा उत्र्तीण की। तभी मिथिलांचल में भीषण अकाल पड़ा। लोग दाने-दाने को मोहताज हो गए। उस समय तक मिथिला पेंटिंग जमीन और दीवारों पर ही बनायी जाती थी और वह भी उच्च जाति की महिलाओं के द्वारा ही। ब्राह्मणों की भरनी और कायस्थों की कचनी शैली चलन में थी। अकाल के दौरान मिथिला कला से जुड़ी महिलाओं को रोजगार देने के उद्देश्य से सरकार ने उसके व्यावसायिक उपयोग के लिए प्रेरित करना शुरू किया। फलस्वरूप वह दीवारों से उतरकर कागज एवं कपड़े पर आ गई। शिवन के मन में भी इस चित्रकला को सीखने और इसके व्यावसायिक उपयोग का जुनून सवार हुआ। उस समय तक रामायण और महाभारत तथा पौराणिक आख्यानों से जुड़े प्रसंगों को ही मिथिला पेंटिंग में चित्रित किया जाता था। शिवन लुक-छिपकर उसका अध्ययन करने लगे। इनकी माँ को भी उस पेंटिंग की थोड़ी-बहुत जानकारी थी। उनसे सीखने लगे और रौदी पासवान के मार्फत उसे बेचने लगे। लेकिन दलित समुदाय का कोई व्यक्ति देवी-देवताओं का चित्रण करे, यह सवर्ण समुदाय को कैसे सहन होता। एक दिन इसी बात को लेकर हरिनगर के बटोही झा से शिवन पासवान की “तू-तू, मैं-मैं” हो गई। उच्च जाति के लोग इनके खिलाफ हो गए। लेकिन शिवन पासवान ने हिम्मत नहीं हारी। ”
शिवन पासवान को उनके दुखभरे दिनों के दौरान उपेंद्र महारथी ने काफी सहायता की। उन्होंने इनकी कृतियों को खरीदकर इन्हें पटना शहर में रहने का संबल प्रदान किया। उपेंद्र महारथी शिवन पासवान का काम देख बहुत प्रभावित हुए और प्रोत्साहित करने के लिए अपने घर पर ही काम करने और रहने के लिए जगह प्रदान कर दिया। शिवन पासवान लोक देवी देवताओं के चित्र बनाते जिसे उपेंद्र महारथी खरीद लिया करते थे।
शिवन पासवान द्वारा बनाई जाने वाली गोदना पेंटिंग की रेखाओं में एक अनगढ़पन होता है जो इसे विशिष्ट बनाता है। अशोक कुमार सिन्हा के अनुसार “गोदना पेंटिंग की इनकी शैली कायस्थों के कचनी और ब्राह्मणों की भरनी शैली से इतर है। लेकिन उन शैलियों से प्रेरित भी है। आज बाजार में शिवन पासवान के चित्र दस हजार से डेढ़ लाख रु. तक में बिकते हैं। है वाल पेंटिंग भी कर रहे हैं । उन्हें वर्गफुट की दर से भुगतान मिलता है। राजा सलहेस के जीवन कथानक के ऊपर इनके द्वारा बनाई गई पेंटिंग को पटना के बिहार संग्रहालय में प्रदर्शित किया गया है।”
शिवन पासवान की पेंटिंग का विषय लोक चरित्रों को समर्पित होता है। राजा सलहेस के अलावा, चौहरमल, बुद्ध, मीराबाई आदि। दलित नायकों को इन्होंने अपने चित्रों का विषय बनाया है। लेकिन ऐसे कलाकर को किस प्रकार समाज में व्याप्त गहरे पैठे भेदभाव का शिकार होना पड़ता है। इसके लिए पुस्तक लेखक ने दो प्रसंगों का जिक्र किया है।
” शिवन पासवान की नियुक्ति मधुबनी के मिथिला चित्रकला संस्थान में कनीय आचार्य के पद पर फरवरी, 2020 में हुई थी। आजीविका का वह इनका एकमात्र सहारा था। एक कुशल चित्रकार होने के कारण वह इसके हकदार भी थे। यह उनपर कोई विशेष कृपा नहीं थी। लेकिन वहाँ के एक सवर्ण अधिकारी से किसी बात को लेकर इनकी ठन गई और उसने प्रतिकूल स्वास्थ्य के आधार पर इन्हें अप्रैल, 2023 में वहाँ से पदमुक्त कर दिया। जबकि उसी संस्थान में इनसे ज्यादा उम्र और प्रतिकूल स्वास्थ्य वाले लोग नियुक्त थे। स्वास्थ्य में उतार चढ़ाव तो हर व्यक्ति के जीवन में लगा ही रहता है। लेकिन सिर्फ स्वास्थ्य को आधार बनाकर इन्हें पदमुक्त करा दिया गया। जब 25 जनवरी, 2024 को शिवन और उनकी धर्मपत्नी शांति देवी को पद्मश्री देने की घोषणा हुई तो आनन-फानन में शिवन पासवान को पुनः उसी पद पर पदस्थापित कर दिया गया ताकि यह मामला कहीं ज्यादा तूल न पकड़ ले।”
अशोक कुमार सिन्हा आगे लिखते हैं-
” बात बस इतनी ही होती तो एक बात होती। विडंबना देखिए कि जिस दिन पद्मश्री सम्मान के लिए इनके नाम की घोषणा होती है, उसी दिन भूमि-विवाद के एक फर्जी मामले में इन्हें गिरफ्तार करने के लिए पुलिस इनके घर के दरवाजे पर खड़ी मिलती है। जब इसकी जानकारी बिहार म्यूजियम के महानिदेशक अंजनी कुमार सिंह को होती है तो उनकी पहल पर उस झूठे मामले से शिवन पासवान को राहत मिलती है। कहने का आशय बस इतना है कि पद्मश्री सम्मान पाने वाले कलाकार भी सामाजिक विडम्बनाओं की चक्की में पिसने से नहीं बच पाते हैं और सामंती सोच के लोगों की साजिश का शिकार हो जाते हैं। “
शांति देवी:
शांति देवी पद्मश्री प्राप्त करने वाली पहली दलित महिला कलाकार हैं। इन्हें भी मिथिला में ‘गोदना पेंटिंग’ के लिए पद्मश्री प्रदान किया गया है। गोदना पेंटिंग मुख्यतः दलितों द्वारा किया जाता है। शांति देवी गोदना पेंटिंग के लिए प्रसिद्ध शिवन पासवान की पत्नी हैं। पति-पत्नी दोनों को एक ही वर्ष पद्मश्री से नवाजा गया है। शांति देवी का जन्म मधुबनी जिले के रहिका प्रखंड में अत्यंत निर्धन परिवार में हुआ था। शांति जब चार माह की थी पिता चल बसे थे। बचपन बहुत कठिनाइयों में व्यतीत हुआ। मां दिन भर मजदूरी करती और शांति चूल्हा-चौका संभालती।
शांति ने भी जब अपने बड़े भाई की तरह स्कूल जाने की जिद की। लेकिन स्कूल में उन्हें जाति के कारण अपमानित होना पड़ता। अशोक कुमार सिन्हा लिखते हैं “शांति जब विद्यालय जाने के लिए निकलती तो अगड़ी जाति के लोग उसपर कटाक्ष करते, उसका उपहास उड़ाया करते। दलित होने के कारण सभी बच्चों से अलग एक कोने में उसे बिठाया जाता था। सहपाठी उसे हिकारत से देखते और अछूत मानकर उसे बचने की कोशिश करते।”
विद्यालय में शांति को जो कटु अनुभव हुए उसके बारे वे खुद बताती हैं –
“विद्यालय के ठीक सामने जियानंद झा का एक कुआँ था। सभी बच्चे उसी कुएँ का पानी पीते थे। लेकिन मुझे कुएँ पर जाने की अनुमति नहीं थी। स्कूल का चपरासी भी मुझे पानी पिलाने से बचता था। खूब चिरौरी करने पर वह दूर से ही पानी पिलाता था। पतित होने के डर से सहपाठी भी मुझसे बचते थे। चपरासी गैरहाजिर होता तो मुझे प्यासा ही रहना पड़ता था। घर लौटकर ही मेरी प्यास बुझती थी। एक दिन मुझे जोरों की प्यास लगी थी। कंठ सूख रहा था। आसपास कोई दिखाई नहीं दे रहा था। मुझसे रहा नहीं गया और कुँए की बाल्टी से पानी पीकर मैंने अपने गले को तृप्त कर लिया। तभी अचानक जियानंद झा वहाँ प्रकट हो गये और पानी पीते देख मुझे मारने दौड़े। मैं बचकर भाग निकली। तत्क्षण कुएँ की उड़ाही करायी गयी। दूसरे दिन उन्होंने मेरी माँ को बुलाया और डंडों से उनकी पिटाई की। ऊपर से सौ रुपये का जुर्माना भी लगा दिया। माँ, घास-भूसा बेचकर किसी तरह हमारा पेट पालती थी। वह जुर्माना कैसे भरती। लेकिन मरता क्या न करता। दूसरा कोई विकल्प भी नहीं था। मां ने घर का सामान बेचकर किसी तरह जुर्माना अदा किया।”
इस घटना के बाद शांति का स्कूल जाना छुड़ा दिया गया । गाँव की एक ब्राह्मणी सहेली थी। वह उदार हृदय की थी। उसकी मदद से शांति चोरी-छिपे पढ़ती रही। इस तरह गरीबी, उपहास और अपमान की अनगिनत घटनाओं के बीच शांति ने किसी तरह मैट्रिक तक की पढ़ाई पूरी की।”
शांति देवी के अंदर जब पेंटिंग की ललक जगी तो उनके पास पैसे न थे। पति शिवन पासवान को थोड़ा बहुत ज्ञान था। पैसे के अभाव में रंग, ब्रश कैसे खरीदे? तब गाय का गोबर सर्वसुलभ था। शांति देवी दूसरों की देखा-देखी गोबर से काली, दुर्गा, महादेव की पेंटिंग बनाने लगी और जितवारपुर के रौंदी पासवान के माध्यम से बेचने लगी। उसे एक पेंटिंग के दो रुपए मिलते थे। लेकिन यह ग्रामीण स्तर के वर्चस्वशाली तबके के लोगों को पसंद नहीं आया।
अशोक कुमार सिन्हा लिखते हैं ” दलित समुदाय द्वारा देवी-देवताओं की पेंटिंग बनाना उनके इलाके के सामंतों को रास नहीं आ रहा था। कहने लगे, दलित होकर काली-दुर्गा की पेंटिंग कैसे बना सकती है ? शांति, चानो, रौंदी और शिवन के खिलाफ षड्यंत्र रचा जाने लगा। मधुबनी के चौक-चौराहों पर यह चर्चा तेज हो गयी कि धर्म-ग्रंथों में दलितों को देवी-देवता बनाने की इजाजत नहीं है। तब भी दुसाध जाति की शांति उनकी पेंटिंग कैसे बनाती है? कहाँ से अक्ल पा गई है यह ? पेंटिंग से, गीत से और संगीत से इसकी किसने जान-पहचान करायी ? संस्कृति भी कहीं बदलती है जो आज बदलेगी ? कुछ स्वयंभू विद्वान आपस में मजाक भी किया करते थे कि शांति देवी की तरह अगर सारे ‘नान्ह-रेयान’ पेंटर बन जायेंगे तो मजदूरी कौन करेगा ? सारे कुत्ते काशी चले जायेंगे तो हाँडी कौन ढूंढेगा? एक दिन मधुबनी के एक टी-स्टॉल पर इसी बात को लेकर ग्राम हरिनगर के बटोही झा से शिवन पासवान की “तू-तू मैं-मैं” हो गयी। दूसरी तरफ जितवारपुर के सरपंच बैद्यनाथ झा ने भी शांति देवी को सार्वजनिक रूप से जलील किया। दलितों में इसकी व्यापक प्रतिक्रिया हुई। प्रतिरोध के बीज पनपने लगे। मधुबनी भीतर-भीतर सुलगने लगा। तब वस्त्र मंत्रालय, मधुबनी के सहायक निदेशक, एचपी मिश्र और कुछ अन्य लोगों की पहल पर वस्त्र मंत्रालय, मधुबनी के कार्यालय में एक बैठक आयोजित की गई, जिसमें दोनों पक्षों के लोग उपस्थित थे। बैठक में जमकर वाद-विवाद हुआ। कोई सर्वमान्य हल न निकलता देख एचपी मिश्र ने यह प्रस्ताव रखा कि दलितों के भी तो अपने देवी-देवता हैं। इसलिए उन्हें काली, दुर्गा के बदले अपने देवी-देवता या लोक नायकों की पेटिंग बनानी चाहिए। मिश्र की बातों से अधिकांश लोग सहमत थे। रौंदी पासवान, चानो देवी, शांति देवी और शिवन पासवान को भी मजबूरन हामी भरनी पड़ी। उस दिन के बाद से चानो देवी और शांति देवी अपने लोकनायकों यथा राजा सलहेस और दीना-भद्री इत्यादि के चित्र बनाने लगीं।”
शांति देवी का जीवन काफी उतार चढ़ाव वाला रहा है। लेखक ने शांति देवी से जुड़े कई ऐसे प्रसंगों का जिक्र किया है जिससे हमारे समाज के सुरते-हाल का अहसास पढ़ने वाले को होता है। शांति देवी 1977 में पटना आई। तब उपेंद्र महारथी ने इनकी काफी सहायता की। इस जमाने में एक पेंटिंग की डेढ़ सौ रुपए तक अदा किए। शांति देवी बताती हैं “उस दिन मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। एक पेंटिंग के डेढ़ सौ रुपए पहली बार मिला था। मैं आसमान में उड़ रही थी। पच्चीस रुपए में अपने लिए रंगीन साड़ी और शेष पैसों से घर परिवार के लोगों के लिए ढेर सारे कपड़े, ब्रश-रंग आदि खरीदे।”
जब शांति देवी को राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ एक ऐसी ही घटना का जिक्र करते हुए अशोक कुमार सिन्हा बताते हैं “गोदना पेटिंग के क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य के लिए 1984 में भारत सरकार ने शांति देवी को राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया। तत्पश्चात शांति देवी मिथिला चित्रकला के सिद्धहस्त कलाकार के रूप में प्रतिष्ठित हो गई और लहेरियागंज से निकलकर देश-विदेश के बड़े-बड़े शहरों में प्रदर्शनी के लिए जाने लगीं। खाली समय में अपने क्षेत्र की बेटी-बहुओं को गोदना शैली का प्रशिक्षण भी देती थीं।“
राष्ट्रीय पुरस्कार के दौरान की एक मर्मस्पर्शी घटना का उल्लेख यहाँ प्रासंगिक जान पड़ता है। शांति देवी अपने पूरे परिवार के साथ चचेरे श्वसुर के मकान में किराये पर रहती थीं। एक दिन आँधी-तूफान में वह घर गिर गया था। किराये पर इन्हें मकान देने को कोई तैयार नहीं था। इसलिए शांति देवी का पूरा परिवार उस टूटे-फूटे घर में ही किसी तरह रहता था। इनकी स्थिति छटपटाती हुई मछली की तरह थी। एक पत्रकार की नजर इनकी स्थिति पर गयी और उसने इनकी दर्दनाक स्थिति को खबरों में उछाल दिया। उसी दौरान इन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार ग्रहण करने के लिए भारत सरकार से बुलावा आया। तब ज्ञानी जैल सिंह भारत के राष्ट्रपति थे। सम्मान समारोह के बाद राष्ट्रपति की तरफ से भोज का आयोजन था। भोज के दौरान शांति देवी ने अपनी स्थिति से उन्हें अवगत कराते हुए अनुरोध किया कि-
“यह सम्मान वापस ले लीजिए। मेरे पास घर नहीं है, यह चोरी हो जायेगा। “
राष्ट्रपति महोदय द्रवित हो गये और उन्होंने बिहार के मुख्य सचिव को पत्र लिखकर शांति देवी के लिए एक मकान का निर्माण शीघ्र कराने का निदेश दिया। राष्ट्रपति के पत्र पर त्वरित कार्रवाई हुई और मधुबनी जिला प्रशासन ने मकान बनाने के लिए एक लाख साठ हजार रूपये की स्वीकृति प्रदान कर दी। लेकिन शांति देवी का यह मकान भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गया। तीन कमरों वाला उनका मकान आधा-अधूरा ही बना। छत खुला ही छोड़ दिया गया। शांति देवी ने जिले के वरीय अधिकारियो के समक्ष यह मामला उठाया। जाँच हुई और उसमें दोषी पाये गये कर्मचारी को निलंबित भी कर दिया गया। लेकिन छत की ढलाई नहीं हुई। बाद में वह कार्य शांति देवी को अपने पैसे से कराना पड़ा। ”
शांति देवी कपड़े और कैनवास पर काम किया करती थी जिसका जीवनकाल कागज की तुलना में अधिक होता है। शांति देवी ने अब तक छोटे-बड़े, सादे-रंगीन, सैकड़ों-हजारों चित्र बनाये हैं। फूल-पत्ती, पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, राजा सलहेस, दीना-भद्री, रामायण और महाभारत के नायकों के जीवन-प्रसंगों को लेकर इन्होंने अनगिनत मर्मस्पर्शी चित्र बनाये हैं। बुद्ध और अम्बेडकर के जीवन प्रसंगों का भी आकर्षक चित्रण किया है। चिंतनरत बुद्ध, संन्यासी के भेष में बुद्ध, राजकुमार गौतम और यशोधरा के बनाये हुए इनके कुछ चित्र मिथिला कला शैली और परम्परा में नया प्रवाह करते दिख पड़ते हैं।
शांति देवी सन् 1982 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के साथ पहली बार अपने चित्रों को लेकर डेनमार्क गयी थीं, जहाँ इनके चित्रों को खूब सराहा गया था। जापान चार बार जा चुकी हैं। मलेशिया, दुबई और जर्मनी में भी इनके चित्रों की प्रदर्शनी लग चुकी है।
अशोक कुमार विश्वास :
68 वर्षीय अशोक कुमार विश्वास को इसी वर्ष टिकुली कला के लिए पद्मश्री प्रदान किया गया है। भारत में टिकुली औरतों के श्रृंगार का अभिन्न हिस्सा रहा है। विवाहित स्त्रियों के सुहाग की निशानी के रूप में भी इसे देखा जाता है।
टिकुली कला के क्षेत्र में मानक स्थापित करने वाले अशोक कुमार विश्वास का जन्म रोहतास जिले के डिहरी-ऑन-सोन में हुआ था। सात भाई-बहनों वाले अशोक कुमार विश्वास के पिता स्थानीय अस्पताल में कम्पाउन्डर थे। माँ सिलाई करती थीं। उससे कुछ अतिरिक्त आमदनी हो जाती थी। श्री विश्वास ने स्थानीय मिशनरी स्कूल में चौथी तक पढ़ाई की। फिर मिडिल स्कूल से 7 वीं तथा डिहरी हाई स्कूल से 1973 में मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। वहीं पर प्राईवेट से 1975 में इन्टरमीडिएट भी किया। फिर डिहरी के नेहरू कॉलेज से 1979 में स्नातक की डिग्री हासिल की। प्राचीन कला केन्द्र, चंडीगढ़ से चित्र विशारद की परीक्षा उतीर्ण की। इंटरमीडिएट करने के बाद श्री विश्वास की इच्छा पटना के आर्ट कॉलेज या शांति निकेतन से कला की शिक्षा लेने की थी। मगर परिवार की आर्थिक स्थितियाँ अनुकूल नहीं थीं। डिहरी में ही बड़े भाई की साईन बोर्ड, बैनर लिखने की दुकान थी। यहीं ब्रश पकड़ने की इनकी ट्रेनिंग हुई। फिर कल्याणपुर सीमेंट फैक्टरी की दीवारों पर आपातकाल का स्लोगन लिखने लगे। उससे जो पैसा मिला, एक साईकिल खरीद ली।
उन दिनों उपेंद्र महारथी शिल्प अनुसंधान में अशोक कुमार विश्वास ने टिकुली कला में छह माह का प्रशिक्षण कोर्स में दाखिला लिया लेकिन उसे तीन महीने में ही पूरा कर लिया। इसके बाद इनके पास ऑर्डर आने लगे, आमदनी होनी लगी। तभी आसाम में बांस की एक कम्पनी में सुपरवाईजर की नौकरी मिली। वहाँ कुछ महीनों तक काम करने के बाद उन्हें डिहरी में ही कर्मचारी राज्य बीमा निगम में सहायक की नौकरी मिल गई। लेकिन चित्रकारी का जुनून बना रहा। घर पर ही टिकुली कला के चित्रों की रचना करते रहे। बाद में इनका स्थानांतरण पटना हो गया। तब ये शनिवार-रविवार एवं छुटटी के दिनों में नये-नये लोगों को टिकुली कला का प्रशिक्षण देने लगे। उन्होंने पटना के विभिन्न मुहल्लों में छोटे-छोटे महिला समूहों का गठन किया। इनमें अधिकतर महिलाएं निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों और समाज के कमजोर तबकों से थीं।
लेकिन अशोक कुमार विश्वास को असली पहचान जैसा कि अशोक कुमार सिन्हा बताते हैं-
” 1982 में नई दिल्ली में आयोजित हुए एशियाई खेलों के दौरान मिली। तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की पहल पर एशियाड में देश-विदेश से आये सभी खिलाड़ियों को उपहारस्वरूप टिकुली पेंटिंग देने का निर्णय लिया गया। अशोक विश्वास के लिए वह दिन सर्वाधिक खुशी का था। टिकुली कला अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित हो चुकी थी। फिर विश्वास ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। वर्ष 2002 में उन्होंने नौकरी से स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ले ली। इनका जीवन पूर्ण रूप से टिकुली कला के लिए समर्पित हो गया। “
आज से तीन दशक पहले तक लकड़ी के छोटे-छोटे टुकड़ों पर टिकुली पेंटिंग की जाती थी। लेकिन वजनदार होने की वजह से उसके ट्रांसपोर्टेशन में कठिनाई होती थी। अशोक विश्वास ने लकड़ी की जगह हार्डबोर्ड एवं एमडीएफ पर टिकुली पेंटिंग की शुरूआत कर उसमें नवाचारी और आधुनिकता का पुट डाल दिया। उन्होंने टिकुली पेंटिंग में पहले से चली आ रही यह बाध्यता भी समाप्त कर दी कि पौराणिक आख्यानों पर आधारित मिथिला पेंटिंग जैसी चित्रकारी ही की जाए। उन्होंने पौराणिक आख्यानों के साथ-साथ ग्रामीण परिवेश और आम जन-जीवन से जुड़े दृश्यों एवं सम-सामयिक विषयों का भी टिकुली पेंटिंग में समावेशन किया जिससे चित्रों के विषयों का फलक-विस्तार हुआ। दीवाल पर टांगी जा सकने वाली प्लेट, मेजपोश, वाल हैंगिंग, ट्रे, पेन-स्टैंड इत्यादि पर टिकुली की चित्रकारी इनकी कला का विस्तार है।
अशोक कुमार सिन्हा के अनुसार ” श्री विश्वास अब तक बारह हजार से अधिक लोगों को टिकुली कला में प्रशिक्षित कर चुके हैं। अशोक कुमार विश्वास का पैशन है कला की पूर्णता। इससे जुड़ी महिलाओं को ठीक-ठाक पैसे मिल जाएं इसी में इन्हें संतोष मिलता है। 68 वर्ष की उम्र में भी वे पटना के दो दर्जन से अधिक केन्द्रों में टिकुली कला का प्रशिक्षण दे रहे हैं-उसमें से कुछेक केन्द्रों पर तो मुफ्त में भी। यह आसान नहीं है। एकबारगी विश्वास नहीं होता कि एक अकेला शख्स इतना बड़ा काम इतने जुनून से कर सकता है। लेकिन काम ही इनकी साधना है। टिकुली कला में नये प्रयोग और आधुनिक रूपांकन में इन्होंने अपने जीवन के 51 वर्ष अर्पित कर दिये हैं। इसी का परिणाम है कि इनकी टिकुली कला की मांग आज भारत के साथ-साथ चीन, रूस, अमेरिका, थाईलैंड और सिंगापुर तक में हैं। उन देशों में इनकी और इनके शिष्यों की टिकुली की मांग बढ़ती जा रही हैं।”
इन पंद्रह पद्मश्री कलाकारों के माध्यम से पुस्तक लेखक इन कलाकरों के जीवन और सृजन से तो परिचित कराते ही हैं। लोक कला के इतिहास से भी वाकिफ कराते चलते हैं। पुस्तक को पढ़ते हुए बिहार में विभिन्न कलाओं के समकालीन परिदृश्य से भी पाठक को एक अंदाजा हो जाता है। यह किताब पढ़कर किसी भी बिहार वासी को अपने इन कला व्यक्तित्वों पर गौरव का बोध होगा । साथ ही भविष्य में इन लोक कला की इन विधाओं के अंदर की मौजूद संभावनाओं का ज्ञान हो सकेगा।
पुस्तक को ग्लौसी पेपर में प्रकाशित किया गया है जिससे कलाकृतियों की फोटो बहुत अच्छी बन पड़ी है। पुस्तक की कीमत साढ़े सात सौ रुपए रखी गई है। पुस्तक का लोकार्पण सात जुलाई को बिहार म्यूजियम, पटना में किया गया। इस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में बिहार के कलाकारों एवं कला प्रेमियों का जमावाडा रहा I