पद्मश्री से सम्मानित बिहार के कलाकारोंके जीवन और कला कर्म को संकलित करने का सफल प्रयास है बिहार म्यूजियम के अपर निदेशक अशोक कुमार सिन्हा द्वारा लिखी गयी पुस्तक‘बिहार के पद्मश्री कलाकार’में I पुस्तक में क्या है और इस तरह के किसी पुस्तक की महत्ता बता रहे हैं कला समीक्षक अनीश अंकुर I वैसे तो यह बेहद गर्व की बात है कि आज़ादी के बाद से बिहार की माटी से जुड़े पंद्रह कलाकारों ने पद्मश्री सम्मान हासिल किया है I जो संभवतः किसी अन्य राज्य या प्रदेश की तुलना में विशेष उल्लेखनीय है I प्रस्तुत है विस्तृत पुस्तक समीक्षा का चौथा भाग जिसमें अनीश अंकुर चर्चा कर रहे हैं पद्मश्री ब्रह्मदेव राम पंडित, बौआ देवी एवं गोदावरी दत्त की जीवन तथा कला यात्रा की ……
अनीश अंकुर
ब्रह्मदेव राम पंडित :
बिहार के छठे पद्मश्री कलाकार हैं ब्रह्मदेव राम पंडित। उन्हें 2013 में यह सम्मान प्राप्त हुआ। नवादा के रहने वाले मूर्तिकार ब्रह्मदेव राम पंडित अब मुंबई में रहा करते हैं। ब्रह्मदेव राम पंडित की संघर्ष गाथा भी बेहद दिलचस्प है। ये मिट्टी का बर्तन बनाने वाले कुम्हार परिवार में पैदा हुए। परंपरागत रूप से उन्होंने मिट्टी को बर्तन में ढालने की कला सीखी। लेकिन इनके जीवन में भी एक महत्वपूर्ण मोड़ है तत्कालीन बिहार में आया 1966-67 का भीषण अकाल। प्रख्यात नेता जयप्रकाश नारायण द्वारा इस इलाके में स्थापित सोखोदेवरा आश्रम में अकाल पीड़ितों हेतु मिट्टी की पाइप बनाने के लिए ब्रह्मदेव राम पंडित को बुलाया गया। वहां इनकी प्रतिभा और लगन देख जयप्रकाश नारायण भी प्रभावित हुए। जयप्रकाश नारायण ने कर्नाटक के बेलगाम के पास सेंट्रल विलेज पॉटरी प्रशिक्षण के लिए उनकी अनुशंसा कर दी। उसके बाद ब्रह्मदेव राम पंडित के आगे का रास्ता खुल गया। अशोक कुमार सिन्हा ने ब्रह्मदेव राम पंडित के वहां पहुंचने के दौरान की उनकी कठिनाइयों का भी वर्णन किया है।
ब्रह्मदेव राम पंडित ने जापान सहित दुनिया के कई देशों के पॉटरी मेकर से बहुत कुछ सीखा और उसमें अपनी मौलिक प्रतिभा से कुछ नया जोड़कर नवाचार लाया। आज उनका काम देश के कई महत्वपूर्ण जगहों- जिसमें मुंबई एयरपोर्ट प्रमुख है- पर स्थापित है। बिहार में नए बने भवन “ज्ञानभवन” में भी ब्रह्मदेव राम पंडित का म्यूरल देखा जा सकता है। भारत के कई नामचीन शख्सियतें उनकी कलाकृतियों के संग्राहक और प्रशंसक हैं। ऐसे लोगों में प्रमुख हैं सचिन तेंदुलकर, शबाना आजमी, इब्राहिम अल्काजी आदि। अशोक कुमार सिन्हा ने ब्रह्मदेव राम पंडित पर लिखे अपने इस आलेख में उनकी रचना प्रक्रिया पर भी विस्तार से कलम चलायी है । मिट्टी कैसे पानी और आग के संपर्क में आकर अपना रंग बदलती है। कौपर, सल्फेट, लोहा कैसे मिट्टी का रंग बदलते हैं, आग के किस तापमान पर रखने से उसमें किस प्रकार का परिवर्तन आता है इसे तफसील से बताया गया है। रंग के किस आयाम को पाने के लिए किस पद्धति को अपनाना होगा इन सब बातों पर रौशनी डाली गई है।
सफलता की इतनी सीढ़ियां चढ़ने के बावजूद ब्रह्मदेव राम पंडित अभी भी वैसे ही सहज, सरल और सुलभ हैं। अपना ग्रामीण अंदाज नहीं छोड़ा है। आज वे भारत में सिरामिक्स कला के मानचित्र पर सब देखे जा सकते हैं।
बौआ देवी :
मिथिला के जितवारपुर गांव को कई पद्मश्री प्राप्त करने का अवसर मिल चुका है। बौआ देवी भी बाकियों की तरह जितवारपुर की पतोहु हैं। उन्हें 2017 में भारत का चौथा नागरिक सम्मान प्राप्त हुआ था। बौआ देवी की विकास यात्रा में भी भास्कर कुलकर्णी का योगदान रहा है। बौआ देवी भरनी शैली की कलाकर मानी जाती हैं। अशोक कुमार सिन्हा लिखते हैं ” बौआ देवी इस भरनी शैली की शिखर हैं। लाल, पीला, गुलाबी, बैंगनी और नीले आदि रंगों के इनकी रंग योजना इतनी मनोहर होती हैं कि चित्र अपनी आकर्षक प्रस्तुति के कारण बहुत ही प्रभावशाली दिखते हैं। ”
वैसे तो बौआ देवी ने भी धार्मिक मिथकों और लोक प्रतीकों को चित्रित किया परंतु अपनी विशिष्ट पहचान बनाई ‘ नाग-नागिन’ के चित्रण को प्राथमिकता प्रदान कर। अशोक सिन्हा लिखते हैं ”इसी को प्राथमिकता देकर इन्होंने विश्वबिंब में बदल दिया है। नाग-नागिन की कहानी इन्होंने बचपन से सुनी थी। नाग देवता इनके परिवार के कुल देवता भी थे। इनका नाम है ‘कालिका-विषहरा’। बासुकी नाग की कहानी को आज भी चित्रित करती हैं।” साथ में यह भी जोड़ते हैं ” बौआ देवी ने नाग को विश्व मंच पर प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया है। ये स्वयं आतंक से, व्यावायिकता से, भौतिकता से मुक्ति के लिए विश्व नाग कन्या बन गईं हैं, जिसका एक छोर विनाश के खात्मे का है तो दूसरा छोर नव सृजन का । इस तरह एक लोकगाथा बन गई है। नाग कन्या एक जलपरी का शरीर है जिसका ऊर्ध्व – उपरी भाग सुंदर स्त्री का है-निचला भाग सर्पिणी का। सांकेतिक रूप से यही पुनरित्पादन और विनाश को दिखाता है। यह बिम्ब सीधे विश्व मानस में उतर जाने वाला है।”
अशोक सिन्हा आगे लिखते हैं “जब 2001 में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर 9/11 को आतंकी हमला हुआ तो बौआ देवी ने ऐसी पेंटिंग बनाई जिसमें आसमान से एक विशालकाय नाग अपने फैन फैलाए हुए दुख, अंधकार, और रक्तपात में डूबी पृथ्वी को निहार रही है।”
बौआ देवी आजकल 82 वर्ष के उम्र में ‘मिथिला चित्रकला संस्थान’ में आचार्य के रूप में कार्यरत हैं और छात्र-छात्राओं को प्रशिक्षण दे रही हैं। बौआ देवी को इस बात का अफसोस है की जापान की तरह भारत में मिथिला चित्रकला को कोई संग्रहालय नहीं है। यह इनका बड़ा सपना है। बौआ देवी को मिथिला पेंटिंग के साथ गायन से भी लगाव है। खुद भी बढ़िया गाती हैं।
गोदावरी दत्त:
मधुबनी जिले में जितवारपुर और रांटी दो प्रसिद्ध गांव है मिथिला चित्रकला के लिए। 94 वर्षीय गोदावरी दत्त की शादी भी रांटी गांव में हुई थी। रांटी के इनके आवास पर देश-विदेश के कलाकरों का जमघट लगा रहता है। मिथिला चित्रकला के अधिकांश कलाकारों की तरह इनका भी निजी जीवन संघर्षमय रहा है। पिता की बचपन में मृत्यु, पति का दूसरी शादी कर नेपाल में बस जाना, यानी सब त्रासदियों से इन्हें गुजरना पड़ा। गोदावरी दत्त को 2019 में पद्मश्री प्राप्त हुआ।
कायस्थ परिवार में जन्मी गोदावरी दत्त भरनी शैली की कलाकार रही हैं। इनके कामों को भी व्यापक दायरे में पहुंचाने में भास्कर कुलकर्णी का योगदान रहा है। गोदावरी दत्त ने अपनी मां सुभद्रा देवी से इस कला की बारीकियां सीखी थी। गोदावरी दत्त कहती हैं ” मैं आज जो कुछ भी हूं मिथिला पेंटिंग की वजह से। बचपन में मां से सुजनी, सिक्की, और मिथिला पेंटिंग सीखी। गांव घर में जनेऊ, शादी-ब्याह, एवम गृह प्रवेश इत्यादि के अवसर पर घर-दरवाजों पर मिथिला पेंटिंग बनाया करती थी। ”
शादी के बाद इनके कलाप्रेम की जानकारी इनके ससुराल वालों को न थी। लेकिन शादी के कुछ महीनों के बाद ही अकस्मात घटी एक घटना से इनके इस गुण का खुलासा हो गया। उस घटना का वर्णन ये बड़े चाव से करती हैं- “14 वर्ष की उम्र में ही मेरी शादी हो गई थी। बचपना अभी भी मुझमें था। एक दिन बाइस्कोप दिखाने वाला आया। घर के सारे बच्चे बाइस्कोप देखने लगे। मैंने भी बाइस्कोप देखने की जिद की। सास ने इसे अन्यथा नहीं लिया और वहाँ से पर-पुरूषों को हटाकर मुझे भी बाइस्कोप दिखाया गया। बाइस्कोप में मैंने देखा कि माता यशोदा गाय दूह रही हैं और बालक कृष्ण ग्लास लिये हुए वहाँ खड़े हैं। रात भर बाइस्कोप का वह चित्र मेरे मन-मस्तिष्क में घूमता रहा। मुझसे रहा नहीं गया। घर में धुप्प अंधेरा था। दीये की रोशनी में लकड़ी के संदूक में से एक कागज निकालकर उसपर उन चित्रों को उकेर दिया। फिर उसे छुपाकर रख दिया।”
फिर वे आगे कहती हैं ” कुछ दिन बाद जेठ आए। वे जमीन से जुड़े दस्तावेज की तलाश कर रहे थे। वह कहीं मिल नहीं रहा था। सब परेशान थे। मुझसे पूछा गया तो अचानक मुझे स्मरण हो आया। मैंने अपने संदूक से निकालकर उन्हें दिखाया तो वही कागज था। सब लोग उस दस्तावेज के उपरी भाग पर बनाई गई मेरी पेंटिंग देख बहुत खुश हुए और उन्होंने मेरी कला कुशलता की दाद दी। दरअसल, भूलवश मैंने दस्तावेज के ऊपरी भाग को सादा कागज समझकर उसपर पेंटिंग बना दी थी। आज भी जब उस घटना का स्मरण आता है तो मेरे अंदर प्रसन्नता की लहर दौड़ जाती है।”
गोदावरी दत्त को की कला के बारे में अपनी राय प्रकट करते हुए अशोक कुमार सिन्हा ने लिखा है ” वे शुद्ध रूप से भारतीय लोकाचार, संस्कृति तथा रीति-रिवाजों की कलाकार हैं और अपने विषय पौराणिक आख्यानों एवं प्रतिमाओं से प्राप्त करती हैं। मिथिला पेंटिंग की कचनी शैली के अनुरूप उनमें धैर्य भी है, जिससे वे अपने चित्रों में उत्कृष्ट पूर्णता और इच्छित प्रभाव उत्पन्न करती हैं। गोदावरी दत्त की कला की विशेषता रेखाओं की स्पष्टता में है। रेखाएँ एकदम से सही और एक दूसरे से आबद्ध होकर चित्रों में एक तिलस्म-सा पैदा करती है। इनके किसी भी चित्र में तूलिका की रत्ती भर भी चूक देखने को नहीं मिलती। देखनेवाले को सहसा विश्वास नहीं होता कि बिना यांत्रिक सहायता लिये कोई कलाकार रेखाओं का इतना अदभुत संयोजन कर सकता है। अपने पारंपरिक चित्रों में ये गूढ़ प्रकृति तत्वों का आधार लेकर अभिनव प्रयोग करती दिखती हैं, पर विषयगत मानिकता से भटकती नहीं। सुस्पष्ट सोच और तल्लीनता से रेखाओं में मानों प्राण फूंक देती हैं। इनकी एक और विशेषता है कि अपने चित्रों में ब्रीदिंग स्पेस देकर प्रत्येक आकृति को उभरने का मौका देती हैं। ये रंगों का प्रयोग कम से कम करती हैं लेकिन जरूरत पड़ने पर कागज या कपड़े पर खाका बनाकर उसके मध्य में बांस की सींक में बँधे कपड़े धागे से अपेक्षित रंगों को भरने में भी इन्हें महारथ हासिल है।”