पद्मश्री से सम्मानित बिहार के कलाकारों के जीवन और कला कर्म को संकलित करने का सफल प्रयास किया है बिहार म्यूजियम के अपर निदेशक अशोक कुमार सिन्हा ने अपनी नवीनतम पुस्तक ‘बिहार के पद्मश्री कलाकार’ में I पुस्तक में क्या है और इस तरह के किसी पुस्तक का क्या महत्व है बता रहे हैं कला समीक्षक अनीश अंकुर I वैसे तो यह बेहद गर्व की बात है कि आज़ादी के बाद से बिहार की माटी से जुड़े पंद्रह कलाकारों ने पद्मश्री सम्मान हासिल किया है I जो संभवतः किसी अन्य राज्य या प्रदेश की तुलना में विशेष उल्लेखनीय है I बिहार म्यूजियम, पटना के सभागार में दिनांक 7 जुलाई को पुस्तक का लोकार्पण माननीय विजय कुमार सिन्हा, उप मुख्यमंत्री, बिहार सरकार के हाथों संपन्न हुआ I प्रस्तुत है पुस्तक समीक्षा का दूसरा भाग ……
अनीश अंकुर
जगदम्बा देवी :
मिथिला चित्रकला की प्रख्यात चित्रकार जगदम्बा देवी पर लिखे आलेख न सिर्फ उनके बेहद संघर्षपूर्ण जीवन से पाठकों को वाकिफ कराया गया है अपितु मिथिला पेंटिंग के राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय पटल पर आने की परिघटना को भी दिलचस्प ढंग से बताया गया है।
जिसे आज मिथिला चित्रकला कहा जाता है वह मैथिल इलाके में घरों की दीवारों पर बनाया जाता रहा है। मैथिल समाज के भी पढ़े लिखे लोग देश देशांतर में रहते आए हैं। पर इस चित्रकला की ओर दुनिया का ध्यान, दो प्राकृतिक आपदा के कारण गया। 1934 का भूकंप तथा 1962-63 का अकाल दो ऐसी ही घटनाएं थीं । पहले में डब्ल्यू .बी आर्चर तथा दूसरे में भास्कर कुलकर्णी की भूमिका मिथिला चित्रकला के इतिहास का अभिन्न हिस्सा बन चुका है।
अशोक सिन्हा ने जगदम्बा देवी के मुश्किल जीवन को रेखांकित किया है जिसमें मात्र पांच वर्ष के उम्र में उनकी पिता की असमय मृत्यु , एक वर्ष बाद मां का चले जाना। विवाह होने के कुछ ही दिन बाद पति का इंतकाल। इन सब त्रासद स्थितियों के बाद भी धीरे-धीरे जगदम्बा देवी कैसे अपने ससुराल जितवारपुर में लोकप्रिय होती चलीं गांव। बाद में भास्कर कुलकर्णी द्वारा जिन पांच मिथिला चित्रकारों का चयन इस कला को दीवार से कागज पर उतारने के लिए किया गया उसमें जगदम्बा देवी प्रमुख थीं। दीवार पर चित्र बनाने में रेखाएं ऊपर से नीचे आती हैं । पारंपरिक चित्रकारों को वैसी ही आदत भी हुआ करती थी। यह जगदम्बा देवी के प्रतिभा का कमाल था कि वे शीघ्र ही कागज और कपड़े पर भी दक्ष होती चली गई। उसके बाद देश विदेश में यात्रा का मौका मिला और फिर भारत का महत्वपूर्ण नागरिक सम्मान 1969 में पद्मश्री से नवाजा गया। किताब में इंदिरा गांधी के साथ उनकी मुलाकात का दिलचस्प वर्णन किया गया है।
मिथिला चित्रकला को व्यापक बनाने में जगदम्बा देवी के महत्व को बारे में अशोक कुमार सिन्हा लिखते हैं ” मिथिला पेंटिंग से हजारों कलाकार आज अपना जीविकोपार्जन कर रहे हैं तो उसका पूरा श्रेय जगदम्बा देवी को जाता है। उन्होंने लुप्तप्राय मिथिला पेंटिंग को पुनर्जीवित कर एक खास शैली एवं परंपरा को जन्म दिया था जो ज्योतिपुंज के रूप में मिथिला पेंटिंग के कलाकारों का मार्ग आज भी अलौकिक कर रहा है। इसलिए वे मिथिला पेंटिंग की जगदम्बा यानी जननी हैं। ”
सीता देवी :
मिथिला चित्रकला की सीता देवी का जीवन भी ऐसा ही संघर्षपूर्ण रहा है। जितवारपुर उनका भी ससुराल रहा। उनका मायका सुपौल था। जितवार में उनके परिवार में इतनी गरीबी थी की उनके कई बच्चे काल कवलित हो गए। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। सीतादेवी को भी भास्कर कुलकर्णी ने दीवार और अरिपन कागज पर चित्रित करने के लिए प्रेरित किया। पुस्तक लेखक ने सीता देवी जीवन की संघर्ष गाथा के बहाने मिथिला पेंटिंग के व्यावसायिक दिशा में जाने की परिघटना को पकड़ा है। इस संघर्ष के विषय में अशोक कुमार सिन्हा ने लिखा है ” कुलकर्णी जमीन एवं दीवारों पर कोहबर या अरिपन के रूप में प्राचीन काल से चले आ रहे भित्ति चित्र की परंपरा को कागज पर उकेरने के लिए महिलाओं को प्रेरित करने लगे। लेकिन यह बड़ा कठिन और चुनौतीपूर्ण कार्य था। तत्कालीन समाज में पर्दा-प्रथा थी। ब्राह्मण और कायस्थ जाति की महिलाओं पर- पुरुषों के सामने आने पर झिझकती थी। जमीन और दीवारों पर चित्रण उनके लिए धार्मिक कार्य था और उसके लिए धन अर्जन उनकी नजर में पाप था। कुलकर्णी बहुत परेशान थे। किसी से उन्हें जानकारी मिली की जितवारपुर की महापात्र परिवार की सीतादेवी भित्ति-चित्रण में दक्ष हैं और गरीबी में अपना जीवन यापन कर रही हैं। कुलकर्णी ने उनसे संपर्क साधा। शुरुआत में सीता देवी झिझकी लेकिन कुलकर्णी के बहुत समझाने पर तैयार हो गई। मां-नानी से मिथिला चित्रकला का दान मिला था। सीता देवी के साथ साथ जितवारपुर की जगदम्बा देवी एवं कुछ अन्य महिलाएं भी इस कार्य में आगे आईं। इस तरह मिथिला पेंटिंग, जो पूर्व में भित्ति चित्र था, उसका व्यावसायिक रूपांतरण कागज पर आरंभ हुआ।”
सीता देवी को 1981 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। जब इंदिरा गांधी ने अनुरोध किया कि मेरे सामने चित्र बनाएं। सीता देवी जमीन पर बैठ गई। एक दियासलाई की तिली के ब्रश से इन्होंने दुर्गा का भव्य चित्र उकेर दिया और कहा ” मैं शक्तिशाली दुर्गा को महाशक्तिशाली दुर्गा का चित्र अर्पित कर रही हूं। ” सीतादेवी के लोकप्रिय चित्रों में है ‘सीताहरण’, ‘सीता स्वंयवर’, ‘महाकाली’ तथा ‘कृष्ण-कथा’ आदि। अशोक सिन्हा बताते हैं दुनिया भर के विद्वानों जिसमें जर्मनी के एरिका स्मिथ, फ्रांस के इव्स बिको, अमेरिका के रेमंड ओएंस एवं डेविड फेमस और जापान के टोकियो हासेगावा समेत कई ख्याति प्राप्त कला समीक्षकों ने इनके चित्रों पर शोध किया और वृत्ति चित्र बनाए। सीता देवी के चित्रों के मुंहमांगा दाम मिला करते थे।
अशोक सिन्हा ने सीता देवी के सृजन प्रक्रिया पर भी लिखते हुए बताया है कि मिथिला पेंटिंग में सीता देवी ने अपनी एक विशिष्ट शैली विकसित की थी। पहले वे कूंची से चित्रों का खाका बनाती थीं। इसके बाद हाथ के बीच में बांस की सींक में बंधे कपड़े के फाटे से अपेक्षित रंगों को यथास्थान भरती थीं। यही इनकी सृजन प्रक्रिया थी। इनके चित्रों में बॉर्डर में कोई डिजायन नहीं होता था, बल्कि उसे खास रंग से भरती थीं। इससे उनके चित्रों में उभार पैदा होता था और उसकी स्पष्टता निखरकर सामने आ जाती थी।इनके चित्रों में रंगों का संयोजन अदभुत होता था। उनके चित्रों में नारंगी एवं पीले रंग की बहुलता के बीच में बैंगनी रंग का प्रयोग एक करिश्माई प्रभाव उत्पन्न करता था। वे लाल, गुलाबी और नीले रंग का प्रयोग बहुत कम करती थीं। लेकिन इन दोनों रंगों की न्यूनता इनके चित्रों के सौंदर्य में एक विशालता और व्यापकता प्रदान करती थी। मिथिला पेंटिंग में कुछ प्राकृतिक रंगों को मिलाकर कुछ नए रंगतों का प्रयोग उन्होंने पहली बार किया। ”
मिथिला पेंटिंग की हर पद्दश्री कलाकार एक दूसरे से किस प्रकार अलग है इसे अशोक कुमार सिन्हा ने बताने की कोशिश के है। पाठक इसी बहाने मिथिला चित्रकला के इतिहास, वर्तमान और उसकी विशेषताओं से भी परिचित होता चलता है।