अरुण प्रकाश जी लिखित “पूर्व-राग” पढ़ते हुए अनेक ऐसे सवालों के जवाब मिल जाते हैं, जिसे जानने की उत्कंठा किसी भी आम पाठक को हो सकती है I खासकर वर्तमान मिथिला के इतिहास को लेकर, कुछ पंक्तियाँ या संवाद यहाँ काबिलेगौर है I वैसे इस पुस्तक में लेखक ने विद्यापति के बहाने मिथिला के लोक से लेकर इतिहास की पड़ताल की है और इतनी सहजता से प्रस्तुत किया है कि पढने के क्रम में बहुत आसानी से पाठक उससे अवगत हो जाता है I दरअसल जहाँ तक मेरी जानकारी है हिंदी साहित्य में इतिहास को विषय बनाकर उतना ज्यादा कुछ नहीं लिखा गया, जिसकी आवश्यकता पाठक महसूस करते रहे I बहरहाल यहाँ सादर साभार प्रस्तुत हैं …
विद्यापति ने पूछ ही लिया, ” गुरुदेव क्या आपकी आस्था सहजयान में रही है?”“नहीं ! मैं तंत्र-मंत्र का विरोधी रहा l स्त्री ही मुक्ति का मार्ग है, इस चिंतन का विरोधी रहा हूं। क्या मुक्ति सिर्फ पुरुष को ही चाहिए? स्त्री की मुक्ति के बारे में ये कुछ नहीं सोचते l ये दमित वासना के मारे हैं । जो भी धर्म स्त्री को नीचे रखता है, स्त्री से दूर रहता है, उसे सड़ने में देर नहीं लगेगी । हां उसका कर्मकाण्ड विरोध मुझे अच्छा लगता रहा है। विद्यापति मैं स्वयं उलझन में हूं । मनुष्य धर्म को लेकर हमेशा उलझन में रहा है । नए नए धर्म खोजेगा। बनाएगा। तोड़ेगा। उसके संशय का अंत नहीं है। मुक्ति की आकांक्षा भी कभी नहीं मरेगी l धर्म का संधान होता रहेगा। मैं भी धर्म का सतत जिज्ञासु हूं। आस्था और न्याय का मार्ग ढूंढ़ता हूं। नहीं जानता, सफल होऊंगा या नहीं।”
“विद्यापति ! मिथिला तो दरिद्र, अशक्त लोगों से भर नाव है I जो भी बलशाली आएगा अपने साथ खे ले जाएगा I मगध और बज्जी के पतन के बाद यही स्थिति चली आ रही है I शुंग राजवंश आया, कण्व, सप्तवाहन, कलिंग भू खारवेल, शक, कुषाण, वाकातक, गुप्त, मालवा, भूपयशोधर्मन, कन्नौज राज यशोवर्मन, कश्मीरेश्वर ललितादित्य, मुक्तापीड़ से लेकर काम-रूप भूपश्रीहर्ष तक मुट्ठी-भर सैनिक लेकर आये और मिथिला जीतकर चले गए I हाँ, पालवंश अवश्य सुस्थिर शासन के लिए ख्यात है I लेकिन वह भी बिखर गया I ‘कर्णाट’ शासन की स्थापना एक छोटी सैन्य टुकड़ी के बल पर हुयी थी I मदनपाल हार गया I विजेता आते थे, चले जाते थे I ‘कर्णाट’ नहीं गए I यहीं रहे और मिथिला के परिष्कार में अपना सब कुछ ‘होम’ कर दिया I तुर्कों ने हमला किया और दक्षिण में उदन्तपुरी को अपना गढ़ बनाया I वे गंगा व अन्य नदियों को पार कर बार-बार हमला करते रहे I आखिर ‘कर्णाट वंश’ को मिथिला के उत्तर-पश्चिम हिस्से और नेपाल क्षेत्र में शरण लेनी पड़ी I कर्णाटो ने मिथिला को मातृभूमि माना था I इसलिए वे अपनी हार के बावजूद बार-बार छिटपुट हमला करते रहे I और तुर्कों को मिथिला में कोई दिलचस्पी नहीं थी सिवाय इसके कि कर मिलता रहे I कर्णाट वंश के प्रति लोगों में श्रद्धा थी इसीलिए तुर्क चाहते थे कि किसी स्थानीय प्रतिष्ठित व्यक्ति के माध्यम से कर उगाही की जाए I इसीलिए फ़िरोज़ तुगलक ने पंडित कामेश्वर ठाकुर को प्रतिष्ठित और विश्वास पात्र समझकर मिथिला का करद शासक नियुक्त कर दिया I सुल्तान की प्रसन्नता के लिए क्या किया जाता था ? सुल्तान की खुशामद, राजभक्ति प्रदर्शन और वार्षिक कर का समय पर भुगतान I इसमें जरा भी चूक हुयी कि मिथिला का सिंहासन डोल जाता था I कामेश्वर ठाकुर को मिथिला का शासन युद्ध-विजय में नहीं मिला था I यह याचना और कृपा से मिला था I ये राजा नहीं थे I न बड़ी सेना इनके पास रही, न उसकी हैसियत I यहाँ राजस्व का एकमात्र श्रोत था कृषकों से प्राप्त भूमि-कर I नदियों से घिरी मिथिला छः महीने तो दुर्गम ही बनी रहती है I कृषक एक ही फसल उगा पाते थे I बाढ़ और अनावृष्टि के मारे ये कृषक कितना भूमिकर देंगे ? वाणिज्य व्यवसाय के लिए स्थल-मार्ग चाहिए कि नहीं ? जल-मार्ग है परन्तु उनका उपयोग तीन महीने से अधिक नहीं हो सकता I फिर व्यापार कैसे हो ? और व्यापार से कर कैसे मिले ?”
………………………………………………………………………………………………….विद्यापति ने संभलकर पूछा था , “काका, फिर इन्हें महाराजा क्यों कहा जाता है ? सुल्तान यहाँ करद-राज्य क्यों चला रहा है ? वह सीधे अपना राज क्यों नहीं चलाता ?
“ जन-जन को महाराज कहने का अभ्यास है I कैसा भी शासक हो I उसे महाराज, महाराजाधिराज कह देते हैं I राजसभा के चाटुकार शासक का झूठा जयजयकार करते रहते हैं I मिथिला में सुल्तान क्यों सीधा राज चलाएगा ? क्या है यहाँ ? सोना, चाँदी, लोहा, लकड़ी, खान-खनिज ?……….
अंतिम पंक्तियाँ जिस सन्दर्भ में कही गयीं हैं, उसे पढ़कर वर्तमान के राज्य और केंद्र के संबंधों की अनुगूँज भी कहीं न कहीं जेहन में आ ही जाती हैं ….
-सुमन कुमार सिंह