भारतीय कला में सौंदर्य भावना

कला में सौंदर्य बोध और विचार पक्ष पर प्रकाश डालता राजकमल चौधरी का ‘भारतीय कला में सौंदर्य भावना ‘ शीर्षक आलेख ललित कला अकादमी, नयी दिल्ली से प्रकाशित कला भारती-2 में प्रकाशित है। आज के सन्दर्भ में देखें तो आधुनिक कला में वैचारिकता के आग्रह व अन्य पक्षों के विभिन्न पहलुओं को समझने के लिए यह लेख अत्यंत उपयोगी हो सकता है, प्रस्तुत है एक अंश …….

‘मनोरंजक, अथवा अग्राह्य, महान अथवा निम्नस्तरीय, क्रूर अथवा दयामय, घृणित अथवा पवित्र, वास्तविक अथवा काल्पनिक, आदि किन्हीं विषयों में यह सामर्थ्य नहीं है, जो मनुष्य के अंदर रसोद्रेक पैदा कर सके ! (धनञ्जय , दशरूपक. 4.45)

यह तय है कि अक्सर कलाकृतियां या काव्य हमें आनंदित करती हैं, हमारी आसक्ति या नैतिक भावनाओं को जगाती हैं । हम किसी मंदिर की विशाल मूर्ति को देखते हैं और श्रद्धा से हमारा सिर झुक जाता है । हम किसी रूप- लावण्यमयी युवती को देखते हैं और मन-ही -मन उसकी प्रशंसा करते हैं । हम किसी सर्कस के खिलाड़ी की कलाबाज़ियां देखते हैं और आश्चर्य से भर उठते हैं । लेकिन ये सब बाह्य स्थितियां हैं, जबकि सौंदर्य आन्तरिक स्थितियों में निवास करता है । बात साफ करने के लिए , धनञ्जय तो यहाँ तक कह देता है कि हमारे सौंदर्य-बोध की तृप्ति -परितृप्ति तो नैतिक या रागात्मक अनिच्छा या असुख के बावजूद हो सकती है ।

विश्वनाथ ने लिखा है कि रस का आस्वादन, सौंदर्य की पहचान और उसका उपभोग वही व्यक्ति कर सकता है, जिसने अपनी बौद्धिकता को इस स्तर तक ऊँचा उठाया है । सड़क पर चलते हुए हर आदमी के पास सौंदर्य और रसात्मकता को समझने, अनुभव करने की शक्ति नहीं हो सकती । अभ्यास और साधना के द्वारा जो लोग यह बोध-दृष्टि पा चुके हैं, वही सौंदर्य के आनंद का उपभोग करने के अधिकारी हैं ।

विश्वनाथ, या धर्मदत्त, या उदयन, या मम्मट, या जगन्नाथ के इन कथनों का तात्पर्य यही है कि कला या सौंदर्य ज्ञान – साधारण के लिए नहीं है, और न यही आवश्यक है कि उनका साधारणीकरण किया जाये, इनमें लोकतंत्रों का समावेश कराया जाये । भारतीय सौंदर्य शास्त्र इसी सन्दर्भ में यह भी निश्चित करता है कि नैतिक, धार्मिक, सामाजिक या लौकिक उपदेश देना कला का उद्देश्य नहीं है । रसिक और रससिद्ध व्यक्ति के सौंदर्य- बोध को तुष्ट करना ही कला का एकमात्र उद्देश्य है ।

और, इस सौंदर्य -बोध की तुष्टि कलाकृति के बाह्य आकर से नहीं, अंतर्संगति से ही हो सकती है । क्योंकि, बाह्य -आकृति से सौंदर्य का कोई ताल्लुक नहीं है । सौंदर्य की स्थिति की इस भावना से ग्रीकों- रोमनों की भावना का मतभेद है । अपनी पुस्तक “फ़ण्डामेंटलज़ ऑफ़ इंडियन कला ‘ में डॉ. सुरेन्द्रनाथ दासगुप्ता ने लिखा है- ‘ ग्रीक कलाकारों का मत था कि कलाकृति का सारा सौंदर्य अंगों और मांसपेशियों के बारीक़ और यथार्थ अंकन पर ही निर्भर करता है; भारतीय कलाकार एकदम दूसरे दृष्टिकोण से सोचते थे । उनका विचार था कि केवल बाह्याकृति से आत्मा के अंतर्जीवन के बहुरूपों को उपस्थित करना असंभव है …..। ‘ उदाहरण के लिए, परम ज्ञान की प्राप्ति के पहले सिद्धार्थ और परम ज्ञान की प्राप्ति के बाद के बुद्ध में कोई शारीरिक या बाह्य अंतर नहीं था – लेकिन, क्या सिद्धार्थ और बुद्ध की मूर्तियां एक- सी हैं, या उनका निर्माता एक जैसा ही होना चाहिए ?

भारतीय कला जीवन के बहरी स्वरुप को अपनी परिधि में नहीं घेरती । व्यक्ति का आतंरिक रूप-बोध ही उसक विषय है, उद्देश्य है । भारतीय मंदिर, मूर्तियों, स्तूप और विभिन्न प्रदेशों की चित्रकला तरह-तरह की देशी-विदेशी परम्परों पर आधारित हैं । जहाँ तक शैली-शिल्प का सवाल है, भारतीय कलाकारों ने मेसापोटामिया, मिस्र, चीन, ग्रीस, सभी देशों से प्रेरणा ग्रहण की है, उनके ‘पैटर्न’ अपनाये हैं । मगर, शिल्प की आत्मा-कला, और कला की आत्मा-सौंदर्य, यह उन्होंने किसी से लिया नहीं – कला और सौंदर्य की भारतीय भावना तीन हज़ार वर्ष की भारतीय सभ्यता की अपनी परंपरा है ।उदाहरणार्थ , भारतीय मंदिर तरह-तरह के धार्मिक प्रभावों और विदेशी शैलियों से निर्मित हैं – लेकिन सभी का मूलाधार , मूल विषय, मूल परिकल्पना एक ही है । ‘तिरुवनमलाई’ के ऊँचे और कंगूरे वाले बड़े-बड़े दरवाजे ब्रह्माण्ड के केंद्रीय पर्वत के प्रतिक उपस्थित करते हैं । ‘भुवनेश्वर ‘ के मंदिर, जो ब्रह्माण्ड -वृक्ष की परिकल्पना पर आधारित हैं, एक ऐसे पवित्र महाफल का प्रतीक उपस्थित करते हैं, जो ब्रह्म का प्रतिरूप है ।”कोणार्क’ का सूर्य मंदिर ब्रह्माण्ड के संचालक, ईश्वर के रथ का प्रतिक उपस्थित करता है । बौद्ध-विहारों और स्तूपों में नीचे के भाग अत्यंत अलंकृत हैं, ऊपर के गुम्बद एकदम सादगी -भरे हैं – और क्रमशः सांसारिकता के निर्वाण की ओर जाने का मार्ग प्रदर्शित करते हैं । इसी प्रकार हिन्दू-मंदिरों में भी बहरी दीवार तो तरह- तरह के अलंकारों से सुसज्जित है, लेकिन अंदर का भाग एकदम सादा । सांसारिकता से मुक्ति की ओर – यही इन मंदिरों की अन्तर्भावना है ।और, संक्षेप में, भारतीय कला के सौंदर्य की अन्तर्भावना भी यही है ।

कलाकृति के अचिर स्वरुप में सौंदर्य की चिर स्थापना करना ही कला है, कला की भारतीय व्याख्या है ।

-राजकमल चौधरी

( मूल आलेख ‘ज्ञानोदय’ के जून 1959 में प्रकाशित )

 

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