सोशल मीडिया ने जिन लेखकों से परिचित कराया उन्हीं में से एक हैं दिनेश चौधरी। जिनके बारे में सिर्फ इतना ही जान सका हूँ कि जबलपुर निवासी स्वतंत्र लेखक हैं। किन्तु कोशिश जरूर रहती है कि उनकी कोई पोस्ट छूटने नहीं पाए। क्योंकि फेसबुक जैसे मंच पर अपनी उपस्थिति की एक बड़ी वजह ऐसे चंद लेखक ही तो हैं। दूसरी तरफ राकेश श्रीमाल हैं जिनसे परिचय बातचीत तक का तो है ही। किन्तु मिलने का अवसर निकल नहीं पाया अभी तक, पिछले दिनों कोलकाता में मिलने का संयोग बना भी तो नियत समय पर राकेश जी आ नहीं पाए। एक तो अपने लिए कोलकाता नयी जगह थी दूसरा अपनी व्यस्तता कुछ भागमभाग वाली रही। बहरहाल फेसबुक पर आज दिनेश जी की यह पोस्ट दिखी तो वेबसाइट पर शेयर करने का लोभ जग आया। तो अब दिनेश जी की अनुमति से यह बेहद आत्मीय पोस्ट अपने मित्रों- शुभचिंतकों के लिए …
दिनेश चौधरी
इससे पहले शायद ही कभी उन्होंने कूचियों से रंग फेरा हो। आड़ी-तिरछी रेखाओं का भी पता नहीं। कॉलेज के लिए राजेन्द्र नगर से निकलते तो रास्ते में रजवाड़े में बस बदलनी होती। यहाँ से भँवरकुआँ जाना होता। पहले वे रजवाड़ा पहुँचते तो वे बस में एक सीट रोक लेते। एक सद्य-परिचित कन्या पहले पहुँचती तो वह एक सीट रोक लेती। यह समझदारी कब और किस तरह विकसित हो गयी, पता ही नहीं चला। उसके हाथों में अक्सर एक कागज या कैनवास का पुलन्दा होता। पूछताछ करने पर मालूम हुआ कि यह पेंटिंग्स होती हैं और वह फाइन आर्ट्स कॉलेज में पढ़ती है। कथा-नायक वाणिज्य विषय की तालीम ले रहे थे। उन्हें लगा कि उन्हें लड़की से प्यार जैसा कुछ हो गया है और इसलिए यह निहायत जरूरी है कि वे भी न सिर्फ रंग-कूचियों के साथ खिलवाड़ करें, बल्कि बाकायदा उसकी तालीम हासिल करें। उन्होंने अपने कुछ समकालीन चित्रकारों से पेंटिंग बनवाई और उन्हें अपनी बताकर फाइन आर्ट्स कॉलेज में दाखिला ले लिया। पहले ही साल में सिर्फ तीन बार कॉलेज से निकाले गए। कॉलेज के बाग में फूल वगैरह लगाए गए थे, ताकि होनहार छात्र उनकी पेंटिंग बना सकें। वे कुछ ज्यादा ही प्रतिभावान थे तो उनकी दिलचस्पी फूलों की पेंटिंग बनाने से ज्यादा, उन्हें तोड़ने में थी। ये फूल उन्हें अपनी सहयात्री को सौंपने होते थे जो कथित रूप से उनकी प्रेमिका भी थीं। बार-बार निकाले जाने के बावजूद वे महज इसलिए वापस ले लिए जाते रहे क्योंकि शहर के एक माफिया किंग के होनहार बेटों से उनकी दोस्ती थी। आगे वे किसी तरह एक चित्रकार तो बन गए, लड़की की शादी कहीं और हो गई।
शहर इंदौर तब उस्तादों का गढ़ हुआ करता था। उन दिनों चित्रकारी के क्षेत्र में विष्णु चिंचालकर, संगीत के क्षेत्र में कुमार गंधर्व, पत्रकारिता में राहुल बारपुते और रंगकर्म में बाबा डिके की तूती बोलती थी।कभी यहाँ के गली-कूचों में उस्ताद अमीर खान आवाज़ गूँजती रही थी। गुणीजनों का शहर था तो फनकारी के कुछ संस्कार तो आने ही थे। राहुल बारपूते के बहुत बड़े शिष्य राजेन्द माथुर रहे, जो उन्हें यूँ ही पान के ठेले में मिल गए थे। आगे राजेन्द्र माथुर ने हिंदी पत्रकारिता की दुनिया में जो नाम कमाया उसके आस-पास सिर्फ प्रभाष जोशी दिखाई पड़ते हैं। संयोग से वे भी इसी गुरुकुल से निकले शिष्य रहे। बहरहाल, राजेन्द्र माथुर साहब का कथा-नायक के घर आना-जाना था। पिता से दोस्ती थी। नियमपूर्वक सप्ताह में एक बार घर में खाना खाने के लिए आते थे। तब वे अपनी वेस्पा की सवारी गाँठते थे। यहीं बालक को लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। उन दिनों “नई दुनिया” में पाठकों के पत्र बड़ा मशहूर कॉलम हुआ करता था। अखबार में सबसे ज्यादा यही चिठियाँ पढ़ी जाती थीं और जिसकी चिठ्ठी छप जाए वह अपने आप को तुर्रमखां समझता था। यह एक तरह से उनका सौभाग्य रहा कि राजेन्द माथुर जैसी शख्सियत खुद घर से ही उनकी कच्ची-पक्की चिठ्ठी ले जाते और नाम-पते के साथ छाप देते। यह कार्रवाई एक बड़े लेखक होने का आभास देने के लिए पर्याप्त थी।
लेखकों, चित्रकारों, गाने-बजाने वालों की सोहबत में उनकी रुचियाँ परिष्कृत होती गयीं। इस परिष्कार से उत्पन्न ऊर्जा और नई उम्र के नैसर्गिक हौसले ने उन्हें कुछ ऐसा करने की प्रेरणा दी, जो बिल्कुल नया हो। सुमित्रा ताई महाजन तब इंदौर की मेयर हुआ करती थीं। उनसे भेंट कर शहर के बीच में गाँधी हॉल के ऊपर वाली जगह का जुगाड़ किया। यह जगह तब खाली पड़ी हुई थी। साफ-सफाई और लाइट-माइक की व्यवस्था भी उन्होंने कर दी। यह एक कला-मेले का आयोजन था। चित्रकला-प्रदर्शनी थी, नाटक थे, गायन-वादन था, शास्त्रीय नृत्य थे। मुख्य हॉल के अलावा तमाम शहर में अलग-अलग जगहों पर नुक्कड़ नाटक के प्रदर्शन होते रहे। नुक्कड़ नाटक खेलने वाले वे साथी सईद लतीफ थे। कार्यक्रम एक-दो दिन या एक-दो हफ्तों का नहीं, पूरे एक महीने का था। आयोजक की सदाशयता और उसकी सीमाओं को देखते हुए कलाकारों ने सहयोग किया और पारिश्रमिक की माँग नहीं की। बाकी खर्चों के लिए आयोजन-स्थल पर गुल्लक रखे जाते। साथ ही अपने हमख्याल दोस्तों के साथ चन्दा बटोरने के लिए साइकिल पर इंदौर के गली-कूचों की खाक छानते। कार्यक्रम की कवरेज इंदौर के सभी अखबारों में बहुत प्रमुखता के साथ चल रही थी। ‘नई दुनिया’, ‘नवभारत’ और ‘दैनिक भास्कर’ वगैरह अपना कोई चौथाई पन्ना खर्च करते रहे। तब मध्यप्रदेश में अशोक वाजपेयी संस्कृति-सचिव थे। जन-सम्पर्क विभाग के जरिए अखबारों की कतरनें अशोक वाजपेयी तक पहुँचती रही। एक महीने तक जब यह सिलसिला बिला-नागा चला, तो उनका माथा ठनक गया। स्वाभाविक जिज्ञासा हुई कि यह कौन शख्स है जो बिना किसी सरकारी मदद के इतना बड़ा आयोजन कर रहा है और वो भी महीने भर तक! उन्होंने आयोजक को तलब किया। यह राकेश श्रीमाल थे। अशोक वाजपेयी ने उन्हें महज 25 साल की उम्र में ‘कलावार्ता’ की संपादकी सौंप दी।
‘कलावार्ता’ का सम्पादन करते हुए उन्होंने धूमधाम से पहला अंक निकाला। देश के नामी-गिरामी लेखकों-कलाकारों को छापा। पारिश्रमिक के लिए नोटशीट कला-परिषद के सचिव के पास गई। कोई सक्सेना साहब थे। सरकारी महकमों में कोई काम आसानी से नहीं होता। कोई काम आसानी से हो जाए तो मान लेना चाहिए कि वह सरकारी महकमा नहीं है। सक्सेना साहब ने नोटशीट में आपत्ति दर्ज करते हुए उसे वापस भिजवा दिया। राकेश इसे लेकर अशोक वाजपेयी के पास गए। उन्होंने गौर से आपत्ति को पढ़ा। आपत्ति यह थी कि आलेख के लिए टेण्डर क्यों नहीं मंगाए गए! इसके बाद सक्सेना साहब की किस तरह क्लास ली गई होगी, इसका अंदाजा आप खुद ही लगा सकते हैं। कला-संस्कृति वाले महकमे इसी तरह चलते हैं।
‘भारत भवन’ के बहाने भोपाल, भारत में कलाओं का केंद्र बन गया था। देश-विदेश से कलाकारों-कवियों-चिंतकों की आवाजाही बनी रहती। इनसे मिलना-बतियाना होता। बैठकबाजी होती। शाम वाली बैठकी भी, जो देर रात तक चलती। एक बार ऐसे ही कुछ दोस्तों के साथ मशहूर चित्रकार जे. स्वामीनाथन के यहाँ धावा बोल दिया। मण्डली की राय ‘जिन’ पीने की थी। स्वामीनाथन साहब ने अंदर जाकर स्टॉक का जायजा लिया। एक बोतल लेकर बाहर आए और कहा, “जिन खोजा, रम पाइयाँ।”
राकेश कोई तीन साल तक ‘कलावार्ता’ निकालते रहे। रचनात्मकता जोर मार रही थी। इसका दबाव इतना था कि शहर भोपाल का आयतन उन्हें कुछ छोटा-सा लगने लगा। यह भी महसूस हुआ कि रज्जू बाबू की बात मानकर उन्हें दिल्ली चले जाना चाहिए था। रज्जू बाबू यानी राजेन्द्र माथुर नवभारत टाइम्स के प्रधान संपादक हो चुके थे। उन्होंने राकेश के पिता से कहा था कि उसे दिल्ली भेज दो पर तब उन पर संपादकी का भूत सवार था। यह गलती तो अब सुधारी नहीं जा सकती थी, लिहाजा एक दिन झोला लेकर गाड़ी पकड़ी और उल्टी दिशा में मुम्बई के लिए रवाना हो गए। दादर स्टेशन पर उतरना हुआ। यूँ ही घूमते-तलाशते हुए उन्हें किसी गली में उन्हें एक बोर्ड दिखाई पड़ा। यह “निर्भय पथिक” अखबार था। एक पान वाले से उसका पता पूछा तो मालूम हुआ कि पास ही में उसका दफ्तर है। वे दफ्तर की सीढ़ियां चढ़ गए और सीधे सम्पादक से काम की गुहार की। संपादक ने अनुभव के बारे में पूछा तो उन्हें ‘कलावार्ता’ की कुछ प्रतियां दिखा दीं। सम्पादक हैरान कि यह इंसान अच्छी-भली सरकारी नौकरी छोड़कर एक गुमनाम से अखबार में काम मांगने आया है। दीवाली नजदीक थी। सम्पादक महोदय ने पूछा कि क्या वे अखबार के लिए “दीपावली विशेषांक” निकाल सकते हैं? राकेश ने फौरन हामी भर दी। उन्होंने अखबार के दफ्तर में ही डेरा जमा लिया। अखबार की पुरानी फाइलें उनका बिस्तर हो गईं। शौचादि की व्यवस्था वहाँ थी। सामने गली में चाय के टपरों से लेकर खान-पान की मुकम्मल व्यवस्था थी। “दीपावली विशेषांक” निकला और धूमधाम से निकला।
इस बीच पृथ्वी थिएटर में नाट्योत्सव का आयोजन था। उन्होंने “जनसत्ता” के सम्पादक राहुल देव को फोन खड़काया। कहा कि वे थिएटर फेस्टिवल कवर करना चाहते हैं। थोड़ी पूछताछ के बाद राहुल देव ने हामी भर दी। रोज के नाटकों की विस्तृत समीक्षा “जनसत्ता” में छपी। एक दिन राहुल देव ने कहा कि निर्भय पथिक के भेष में कितने दिनों तक भटकते रहोगे, यहाँ आम लोगों की सियासत में अपनी मौजूदगी दर्ज करो। वे “जनसत्ता” चले गए। अभी अस्थायी थे, पर काम पूरे जोशो-खरोश से करते रहे। फिर जब अखबार के लिए भर्ती निकली तो इंटरव्यू लेने प्रभाष जोशी आए। इंटरव्यू अच्छा-खासा चल रहा था। सवाल-जवाबों से जोशी जी पूरी तरह मुतमईन थे। अचानक उनसे पूछा, “इससे पहले कहाँ थे?” उन्होंने बताया कि “कलावार्ता” निकालते थे। “अच्छा”, प्रभाष जी ने कहा, “अशोक वाजपेयी के साथ काम करते थे!” यह प्रशंसा नहीं थी, तंज था। अशोक वाजपेयी से उनकी “दुश्मनी” जगजाहिर थी। आगे चलकर उन्होंने अशोक जी को ‘दारुकुट्टा कवि” के सम्बोधन से नवाजा था। “दारुकुट्टा” शब्द की आमद हिंदी शब्दकोश के लिए बिल्कुल नई थी। यह दो बड़े लोगों के आपस का मामला था पर ऐसे में कोई गरीब ही फँसता है। साँड़ों की लड़ाई में बाड़ का ही नुकसान होता है। उन्होंने चयन-सूची से राकेश का नाम काट दिया। राहुल देव ने कहा, “ठण्ड रखो!” उन्होंने अंतिम-सूची में हेर-फेर की और राकेश का नाम जोड़ लिया। प्रभाष जी को हालांकि इसकी खबर हो गयी थी पर इस बीच वे राकेश का काम देख चुके थे। उन्होंने भी इस मामले में स्वीकृति भरी चुप्पी ओढ़ ली।
‘जनसत्ता’ में विविध कलाओं को लेकर जो काम उन्होंने किए उसकी चर्चा से पहले एक दीगर मसले पर बात करना थोड़ा जरूरी लग रहा है। यह इसलिए भी जरूरी है कि इन दिनों सियासी हलकों में माफियाओं की अच्छी खासी पैठ बताई जाती है और लिखने-पढ़ने से साबका तो अब भले घरों में भी नहीं रहा। मुम्बई के तीन डॉन अपने समय में बड़े चर्चित रहे। करीम लाला, हाजी मस्तान और वरदराजन मुदलियार। इनमें से हाजी मस्तान और वरदराजन तामिलनाडु से थे। इनको लेकर राकेश के पास एक दिलचस्प वाकया है, जो शायद कहीं और दर्ज नहीं हुआ है। हाजी मस्तान और वरदराजन दोनों को ही तमिल अखबार पढ़ने का बड़ा शौक था। इस काम के लिए उन्होंने बाकायदा एक आदमी तैनात कर रखा था जो रोज सुबह एयरपोर्ट से तमिल अखबार हासिल कर, उन्हें दोनों के यहाँ पहुंचाया करता। बताया जाता है कि वे तमिल अखबारों में राजनीति और सिनेमा से लेकर कला-संस्कृति तक क़ी खबरें पढ़ते थे। आगे चलकर एक दिन वरदराजन को लगा कि जब अपने पास इतने पैसे हैं तो तमिल खबरों के लिए चेन्नई के भरोसे क्यों रहा जाए। लिहाजा मुम्बई में ही प्रेस की स्थापना की गई और वहाँ के तमिलवासियों के लिए पहली बार एक तमिल अखबार निकाला गया। मुम्बई से वरदराजन को इतना लगाव हो गया था कि वह मरने के बाद भी मुम्बई नहीं छोड़ना चाहता था। उसकी मृत्यु चेन्नई में हुई। हाजी मस्तान ने एक चार्टर प्लेन बुक किया और शव को मुम्बई लाया गया। शव के साथ उस दिन के तमिल अखबारों को रखकर अंतिम-संस्कार किया गया। अखबारों में वरदराजन के मरने की भी खबरें थीं।
मुम्बई में जो कलात्मक गतिविधियां थीं, उसके लिए उन्हें महज एक कॉलम पर्याप्त नहीं लग रहा था। उन्होंने सम्पादक से बात-चीत कर, लड़-झगड़कर एक पूरा पृष्ठ हासिल किया जो हर सप्ताह बुधवार को छपता था। इसमें जहाँगीर आर्ट गैलरी से लेकर पृथ्वी थिएटर में होने वाली गतिविधियों की रचनात्मक समीक्षा होती। खुद भी लिखते और कई लिखने वालों को तैयार किया। कलाकारों की भागीदारी भी सुनिश्चित की। उनसे भी लिखवाया जो मूलतः लेखक नहीं थे। इस फेर में अच्छे-भले इंसानों को बिगाड़ा भी। पारिवारिक कलह तक हो गई। उन दिनों महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव होने थे। अखबार की राय थी कि आम पाठक-मतदाताओं की राय भी सामने आनी चाहिए। इसके लिए वक्ती तौर पर एक दैनिक स्तम्भ शुरू किया गया, जिसकी जिम्मेदारी राकेश को सौंपी गई। एक दिन एक शख्स एक चिट्ठी लेकर सीधे राहुल देव के चैंबर में दाखिल हो गया। उन्हें बताया गया कि इस मामले को राकेश देखते हैं। वे राकेश के पास पहुँचे। जरूरी काट-छाँट के साथ चिठ्ठी छप गयी। फिर वे नियमपूर्वक रोज आकर बैठने लगे। एक दिन कुछ सकुचाते हुए बताया कि उन्होंने कोई 25 बरसों पहले रेलवे की ‘सर्कुलर टिकिट” लेकर भारत-भ्रमण किया था और उसका वृत्तांत लिख रखा है। राकेश ने ब्यौरा देखा। कच्ची-पक्की भाषा होने के बावजूद लेखकीय कौशल झलकता था। उसकी भाषा ठीक-ठाक कर दिल्ली के एक प्रकाशक को भेज दी गई। राकेश की भूमिका के साथ कोई 200 पृष्ठों की किताब आयी। किताब के लेखक गुवाहाटी में बसे राजस्थानी मूल के सांवरमल सांगनेरिया थे। आगे उन्होंने उत्तर-पूर्व के पाँच राज्यों की कला-संस्कृति पर अलग-अलग किताबें लिखीं। मुम्बई में उनका अच्छा-खासा बिल्डर वाला धंधा था। मोटी कमाई वाले काम को छोड़कर कोई इंसान लेखक बन जाए, वह भी हिंदी का, यह कोई भला परिवार बर्दाश्त नहीं कर सकता। बीवी- बच्चे नाराज हो गए। वे अब गुवाहाटी में अकेले रहते हैं और कागद कारे करते रहते हैं।
पृथ्वी थिएटर में आवाजाही लम्बे समय तक बनी रही। रंगकर्मियों के साथ मेल-जोल, बैठकी, पीना-पिलाना सब कुछ चलता रहा। अभिनेत्री व निर्देशिका सुलभा देशपांडे के साहबजादे मकरन्द देशपांडे से अच्छी दोस्ती रही। मकरन्द देशपांडे ने हिंदी सहित कई भाषाई फिल्मों में अभिनय किया है। निर्देशन भी। उन दिनों मकरन्द से दोस्ती कुछ ज्यादा ही पींगें मार रही थी। एक शाम रसरंजन के बाद ख्याल आया कि आज तो मकरन्द से मिलने की बात थी, तो पृथ्वी थिएटर का रूख कर लिया। कुछ तो खुमारी थी और कुछ बेख्याली भी। जेहन में बस यही था कि यार से गप-शप करनी है। ‘ग्रीन रूम’ से होते हुए वे स्टेज में दाखिल हो गए… अचानक कोई आया और उन्हें लगभग खींचते-धकेलते हुए स्टेज से ‘ससम्मान’ वापस भेजा। इस आकस्मिक सम्मान की वजह फौरन समझ में नहीं आयी। सम्मानकर्ता शायद मकरन्द ही थे। स्टेज पर शो चल रहा था-लाइव! यों मंच के कलाकारों के पास इन स्थितियों से निपटने के लिए प्रत्युपन्नमति तो होती ही है। मकरन्द ने कहा कि, “यार ये क्या है?” जवाब बहुत मासूम था, ‘तुझसे मिलना था।’ मिलना यहाँ संजना कपूर से भी होता। एक बार बातों ही बातों में उन्हें मशविरा दे डाला कि थिएटर के बाहरी हिस्से का इस्तेमाल चित्रकला-प्रदर्शनी के लिए किया जा सकता है। सलाह संजना को जँच गई। पृथ्वी थिएटर की कलात्मक ऊँचाइयों में एक आयाम और जुड़ गया। थिएटर को एक तयशुदा रकम भी मिलने लगी। अब पता नहीं यह सिलसिला जारी है या नहीं।
प्रेम करने की जो आदत इंदौर में शुरुआती दिनों में ही लग गयी थी, वह अब परिपक्व हो चली थी। इंदौर में उनकी कथित प्रेमिका बस में मिलती थी और यहाँ रोज की मुलाकात लोकल ट्रेन में होती थी। नई प्रेमिका के हाथों में कागज या कैनवास के रोल के बदले टिफिन होता था। उसके हाथों से बने भिंडी-पराठे वगैरह ‘जनसत्ता’ के दफ्तर में बहुत प्रेम से खाये जाते। कभी-कभार बाहर रेस्तरां भी जाना होता। मामला गम्भीर होने लगा था पर, बकौल परसाई, अर्थ-शास्त्र सभी शास्त्रों पर भारी पड़ता है। नए जमाने के प्रेम में इसकी बड़ी भूमिका है। यहाँ भी उसने प्रेम-शास्त्र को परास्त कर दिया और प्रेस के ‘प्राइवेट जॉब’ के फेर में प्रेमिका ने किसी और का दामन थाम लिया। श्रृंगार-रस में अर्थ-शास्त्र की भूमिका पर कोई गम्भीर शोध किए जाने की जरूरत बड़ी शिद्दत के साथ महसूस होती है।
रविवार को छपने वाली पत्रिका “सबरंग” के रंगीन पृष्ठों की जिम्मेदारी भी राकेश के पास थी। कथाकार धीरेंद्र अस्थाना के साथ मिलकर यह काम होता था। पत्रिका की सामग्री छपने के लिए मंगलवार को ही भेज दी जाती। ऐसे ही किसी मंगलवार को जब तैयार सामग्री भेजी जानी थी, अखबार के स्टाफ़ की एक जरुरी मीटिंग बुलाई गई। इस तरह की मीटिंग आम थी। अक्सर होती ही रहती थी, पर उस दिन वाली आम नहीं थी। मीटिंग की ऐन शुरुआत में ही प्रबन्धन ने कह दिया कि “आज से जनसत्ता बन्द!” पत्रकारिता की दुनिया में इस तरह के हादसे होते रहते हैं। राकेश की बिटिया तब महज दो महीनों की थी। उन्हें लगा कि यह अवसर शायद इसलिए मिला है कि वे अपनी बच्ची के साथ खेल सकें। साल-भर यही किया। फिर एक दिन अचानक दिल्ली की ओर कूच कर गए। सरकारी नौकरी के साथ यहाँ उन्होंने “क” नाम की पत्रिका निकाली। यह शायद हिंदी में अपने किस्म की इकलौती पत्रिका थी जो सिर्फ और सिर्फ चित्रकला पर केंद्रित थी। प्रयाग शुक्ल और गगन गिल इसके सलाहकार मण्डल में रहे। पत्रिका पूरी तरह ‘ब्लैक एंड व्हाइट’ थी पर इसमें सामग्री बड़ी अद्भुत हुआ करती थी। फिर वर्धा जाना हुआ तो इसकी संपादकी विजय शंकर को सौंप दी, जिनकी वजह से यह पत्रिका निकाली गई थी। विजय शंकर भी कलाओं के रसिया थे और बैंक की नौकरी छोड़कर नागपुर से दिल्ली आ धमके थे। वे कोई 8-10 साल तक यह पत्रिका निकालते रहे। दिल्ली रेलवे स्टेशन से निकलते हुए उनकी मृत्यु हो गयी थी।
भोपाल में “कलावार्ता” से दामन छुड़ाकर भागने के बाद जब दिल्ली लौटना हुआ तो “पुस्तक-वार्ता” हाथ में आई। महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय विश्विद्यालय में अशोक वाजपेयी के साथ यह उनकी दूसरी पारी थी। तब सारा कामकाज दिल्ली से ही चल रहा था। “पुस्तक-वार्ता” पूर्णतः किताबों पर ही केंद्रित पत्रिका थी। पुस्तक-समीक्षाओं के अलावा कुछ बहुत ही लोकप्रिय कॉलम रखे गए थे, जिसमें बहुत से नामी लेखकों ने हाथ आजमाया। एक स्तम्भ “पुस्तक और मैं” था, जिसमें लेखक उस पुस्तक का जिक्र करता था, जो उसने पहली बार पढ़ी थी। पुस्तक पढ़ने के बाद उसके असर की चर्चा बेहद मानीखेज होती। इसके अलावा विश्विद्यालय की ओर से कोई 50 महत्वपूर्ण किताबें भी छापी गईं, जिनमे जैनेन्द्र से लेकर भवानी प्रसाद मिश्र तक के नाम शामिल थे। यह सब काम ‘क’ के साथ-साथ चलता रहा। लब्बो-लुआब यह कि दिल्ली के इस फेरे में “पुस्तक-वार्ता” सरकारी क्षेत्र की पत्रिका थी और “क” गैर-सरकारी क्षेत्र की।
बरास्ते वर्धा राकेश अब कोलकाता में हैं। यह उनकी सरकारी नौकरी का अंतिम पड़ाव है। यहाँ उन्होंने “ताना-बाना” नाम की पत्रिका निकाली और यह भी कलाओं पर ही केंद्रित थी। कुल जमा तीन अंक निकलने के बाद पत्रिका की अंत्येष्टि हो गई। महकमे की इसमें ज्यादा रुचि नहीं रही, हालांकि राकेश सम्पादक अब भी हैं। वे “मिनिस्टर विदआउट पोर्टफोलियो” जैसे हैं। बांग्लाभाषियों की गौरवशाली परम्परा और एक समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के बावजूद कोलकाता का हिंदी-जगत अब विपन्न-सा है। किसी जमाने में यहाँ बड़ी हलचल रहा करती थी। यहाँ से “जनसत्ता” बन्द हुए एक अरसा हो गया। जो अखबार या पत्रिकाएँ हैं, उनमें ठहरे हुए पानी में कंकड़ फेंकने की सलाहियत नहीं है। जब तक उषा गाँगुली रही, थिएटर जगत में हलचल रही। पिछली बार कोरोना में अजहर आलम भी चले गए। अब सब तरफ बस एक सन्नाटा-सा पसरा है।
फिलवक्त इन सन्नाटों की गूँज सुन रहे राकेश श्रीमाल की शख्सियत के कई पहलू हैं। प्याज की परतों की तरह एक खुलने पर दूसरी निकल आती है। वे कुशल सम्पादक हैं, पत्रकार हैं, कवि हैं, लेखक हैं, चित्रकार हैं, कला-समीक्षक हैं और सभी किस्म की कलाओं के रसिया भी। कला सम्बन्धी विषयों में लिखने में उन्हें खूब आनन्द आता है और यह काम वे बड़े मनोयोग से करते हैं। इस विषय में उनके पास अद्यतन सूचनाएँ होती हैं और वे देश-विदेश में चल रहे कलात्मक विमर्श से भलीभांति वाकिफ होते हैं। पढ़ते हुए पता चलता है कि उनके लेखन के पीछे श्रम-साध्य अध्ययन छुपा हुआ है।
रंगकर्मी प्रवीण शेखर कहते हैं, “राकेश श्रीमाल लीक से हटकर चलने वाले कला समीक्षकों में हैं। वह कलाकृति की अंतर्वस्तु और अंतर्धारा को पकड़ते हैं। इसीलिए रचनाकार, उसकी कृति और उसकी रचना-प्रक्रिया ज्यादा खुलकर और दिलचस्प ढंग से पाठकों, दर्शकों, प्रेक्षकों के सामने आ पाते हैं। यही कला- दृष्टि उन्हें कला-समीक्षकों की परंपरागत भीड़ से अलग करती है और उनका महत्व बढ़ जाता है। उन्होंने बाकायदा कला का प्रशिक्षण लिया है और कवि भी हैं। इसीलिए वह कलात्मक अभिव्यक्तियों को उसकी समग्रता और प्रभाव में ग्रहण कर पाते हैं और नए मायनों के साथ लिख पाते हैं।”
ठीक इन पंक्तियों के लिखे जाने के समय राकेश बिस्तर के हवाले हैं। जब वे नींद की हालत में नहीं होते हैं तो अधनींदे होते हैं। कोई बला-सी उनके पीछे लगी हुई है। पहले एक अनजान बीमारी के शिकार हुए, जिसमें खाना अल्पमत सरकार की तरह टिक नहीं पा रहा था। फिर कोरोना की पहली लहर में “कलाकारों की एकांत यात्रा” दर्ज करने के जुर्म में दूसरी लहर ने अपना बदला निकाल लिया। अब जैसा कि अक्सर आधुनिक डिज़ाइन वाले सुविधायुक्त मकानों में हो जाया करता है, बाथरूम से फिसल पड़े। ऐसे समय में बीते दिनों की यादें पलट-पलट कर आती हैं। पता नहीं क्या यह सवाल भी जेहन में आता होगा कि वे जितना कर सकते थे, क्या उन्होंने किया? यों कोई भी सफर कभी मुकम्मल नहीं हो पाता, कुछ न कुछ छूट ही जाता है। प्रभाष जोशी ने गुरु अशोक वाजपेयी के लिए जो नया शब्द ईजाद किया था, उसकी ज्यादा मालूमात अपन को नहीं है। राकेश ने इस रवायत को अलबत्ता खूब अच्छे से निबाहा।
मुम्बई के लेखक व रंग-समीक्षक सत्यदेव त्रिपाठी के शब्दों में, “सृजन की जो प्रतिभा, जो भाषिकता कुदरत से उन्हें मिली, उसे अभ्यास व अध्यवसाय से निखार कर जहाँ तक पहुँच सकते थे, वह सब न करके सब कुछ मयनोशी में गर्क कर गए। खुद के साथ बहुत अन्याय किया राकेश ने।” मुझे लगता है कि चारासाज़ और गमगुसार होने के लिए कभी-कभी दोस्तों को नासेह का किरदार भी निभा लेना चाहिए। दोस्त फ़क़त वे नहीं होते जो सिर्फ शाम को मिलते हैं। असल वाले वो होते हैं जो सुबह-सुबह ही खैरियत पूछते हैं।