गाड़ी बुला रही है, कहानी सुना रही है…

वर्तमान बिहार का मगध अंचल हो या मिथिला अथवा अंग प्रदेश, हम इसके समृद्ध इतिहास से कुछ हद तक अवगत हैं। बात अंग प्रदेश की करें तो वर्तमान भागलपुर का चंपा कभी एक समृद्ध नगरी के तौर पर दुनिया भर में जाना जाता था। इसी भूभाग के विक्रमशिला बौद्ध विहार के महत्व से भला कौन परिचित नहीं होगा। किन्तु इन सबके बावजूद हम में से अधिकांश का इतिहास-ज्ञान इतिहास की चंद पुस्तकों तक ही सीमित होकर रह जाता है या रह गया है। जिसे हम अपने छात्र जीवन में पढ़ चुके होते हैं। बहुधा छात्र-जीवन के बाद हमारी प्राथमिकता से इतिहास जैसे विषय गायब ही होते चले जाते हैं। ऐसे में इतिहास की कुछ अति महत्वपूर्ण घटनाओं की जानकारी तक हम सिमट कर रह जाते हैं। और होता यह है कि हम अपने आसपास के इतिहास से लगभग अपरिचित ही रह जाते हैं। मसलन ईश्वरचंद्र विद्यासागर से जुड़ी एक घटना जिसमें उनका नाम सुनकर उनसे मिलने आए किसी सज्जन ने उन्हें कुली समझ लिया, इस कहानी को किसी न किसी रूप में हमने सुन ही रखा है। किन्तु बहुत कम ही लोग होंगे जिन्हें यह जानकारी हो कि यह घटना करमाटांड़ नामक रेलवे स्टेशन पर घटी थी।

कुछ इसी तरह फिल्म बंदिनी के लिए एस.डी. बर्मन की आवाज में उनका ही लयबद्ध किया गाना-मेरे साजन हैं उस पार…आज भी हमें झंकृत करती हैं। किन्तु हममें से शायद ही कोई यह बता पाए कि इस गाने की शूंटिंग भागलपुर के मनिहारी घाट पर हुई थी। और तो और जंगल बुक वाले रूडयार्ड किपलिंग ने पायनियर के लिए लिखे अपने तीन लेखों की श्रृंखला ‘अमांग द रेलवे फोक’ में जमालपुर के रेल कारखाना, उसमें कार्यरत कर्मियों की दिनचर्या, उनके कार्य के घंटों, उनके कार्यस्थल की स्थिति, रेल यार्ड के स्टोर आदि के बड़े ही रोचक वर्णन प्रस्तुत किए हैं। यह अलग बात है कि कभी वाष्प चालित इंजनों के निर्माण के लिए दुनिया भर में जाने जानेवाला यह रेल कारखाना आज अपनी महत्ता लगभग खो चुका है। मूर्तिकला के इतिहास की बात करें तो धातु से बने सुल्तानगंज बुद्ध की महत्ता से हम परिचित हैं, किन्तु यह मूर्ति किन स्थितियों में दुनिया के सामने आई। यह बहुत कम लोग ही जानते हैं।

कुछ इसी तरह संथाल विद्रोही सिद्धो-कान्हू द्वारा अंग्रेजी सत्ता को दी गई चुनौती और बलिदान की कहानियां तो हमने सुन रखी हैं। किन्तु इसकी पृष्ठभूमि में रेल लाइन बिछाने के क्रम में ठेकेदारों द्वारा किया जाने वाला शोषण और अत्याचार था, यह तथ्य लगभग अजाना सा ही है। इस तरह के अनेक सवालों के जवाब या कहें कि जानकारियों को समेटे हुए है ‘रेल की पटरियों पर दौड़ती कहानियां’ शीर्षक पुस्तक। जिसके लेखक द्वय हैं शिवशंकर सिंह पारिजात और रमन सिन्हा। शिवशंकर सिंह पारिजात बिहार सरकार के सूचना एवं जन संपर्क विभाग में उप जन-संपर्क निदेशक पद से सेवानिवृत हैं। वहीं इतिहासकार डॉ. रमन सिन्हा तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय के अंतर्गत सुंदरवती महिला महाविद्यालय, भागलपुर में प्राचार्य पद पर कार्यरत हैं। विगत वर्षों में इन दोनों सज्जनों के प्रयासों से जहां स्थानीय समाज में इतिहास के प्रति जागरूकता देखी जा रही है। वहीं अपनी विरासत को जानने-समझने की ललक भी स्थानीय बौद्धिक समाज में जागृत हो रही है। पुस्तक की प्रस्तावना में दक्षिण-पश्चिम रेलवे के उप-महाप्रबंधक पी. के मिश्रा की यह टिप्पणी काबिलेगौर है- अपने यांत्रिक, तकनीकी, आर्थिक, व्यावसायिक तथा परिवहन संबंधी पक्षों के अलावा रेलवे के योगदान संबंधी अन्य विपक्ष भी हैं जिनके सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, पुरातात्विक, पर्यटकीय और विरल प्राकृतिक सुषमा से युक्त स्थल संबंधी आयाम भी हैं। रेलवे ने देश के विभिन्न भौगोलिक विशिष्टताओं से युक्त दूरस्थ क्षेत्रों को जोड़कर जहां वृहत भारत की संकल्पना को मूर्त किया, वहीं देश के विभिन्न प्रांतों में रहनेवाले विभिन्न भाषा-भाषी लोगों को एक-दूसरे के करीब लाकर सामाजिक-सांस्कृतिक-कौमी एकता को मजबूती प्रदान किया है।

फिल्म ‘हाटे बाज़ारे’ का एक दृश्य

बहरहाल पुस्तक जहां थोड़े विस्तार से भागलपुर- मुंगेर-साहेबगंज-राजमहल रेल खंड से जुडीं कुछ दास्तानों को रोचकता से हमारे सामने लाती है। वहीं इतिहास की कुछ बेहद उल्लेखनीय प्रसंगों, स्थलों और हादसों की दास्तान भी सुनाती है। इस रेलखंड से गुजरनेवाली एक ट्रेन की चर्चा करें जिसका नाम है ‘हाटे बाजारे एक्सप्रेस’। तो जबसे इस ट्रेन का परिचालन हुआ तबसे हम जैसे अनेक लोगों के मन में इसके नामकरण को लेकर एक उत्सुकता सी थी। लेकिन यह उत्सुकता बस उत्सुकता भर ही रह जाती, अगर यह पुस्तक हमारे सामने नहीं आती। तो पुस्तक के अनुसार- इस ट्रेन का नाम एक प्रख्यात और चर्चित साहित्यिक कृति ‘हाटे बाजारे’ के नाम पर है जिसके लेखक थे डॉ. बलाइ चंद्र मुखर्जी ‘बनफूल’। हाटे बाजारे पर 1960 के दशक में अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त तपन सिन्हा के निर्देशन में इसी नाम से बांग्ला भाषा में एक फिल्म बनी थी जिसके मुख्य कलाकार थे अशोक कुमार और वैजयंती माला। इस फिल्म को वर्ष की सर्वश्रेष्ठ कृति होने के कारण ‘राष्ट्रपति के स्वर्ण पदक’ से नवाजा गया था और विशिष्ट कथ्य के लिए कंबोडिया में आयोजित एशियाई महोत्सव, 1960 में ‘रॉयल कप’ प्रदान किया गया।

इतना ही नहीं इन्हीं बलाइ चंद्र मुखर्जी की एक और कृति पर निर्देशक मृणाल सेन ने चर्चित फिल्म “भुवन सोम” बनाई थी। अब इस महान लेखक के बारे में बांग्ला समाज जितना भी जानता हो बिहार में तो चंद लोग भी इस तथ्य से परिचित नहीं होंगे कि उनका जन्म और शिक्षा दीक्षा इसी भागलपुर अंचल में हुआ था। ऐसे में अगर सत्तर के दशक की फिल्म दोस्त का वह गाना आपको याद होगा जिसे गाया था किशोर कुमार न और जिसके बोल थे- गाड़ी बुला रही है सिटी बजा रही है…। तो इस पुस्तक को पढ़ने के बाद आप उक्त गाने की शुरूआती पंक्तियों में थोड़े फेरबदल के साथ कह सकते हैं कि – गाड़ी बुला रही है कहानी सुना रही है।

पुस्तक : रेल की पटरियों पर दौड़ती कहानियां
लेखक:शिवशंकर सिंह पारिजात, रमन सिन्हा
प्रकाशक: अनामिका पब्लिशर्स एंड डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा.) लिमिटेड
मूल्य: 495 रू.

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