जैसी प्रीति कुटुम्ब की, तैसी गुरु सों होय..

मुझे यकीन है कि मूर्तिकार मदनलाल से आप भी परिचित होंगे। क्योंकि मदनलाल हमारे समय के एक महत्वपूर्ण मूर्तिकार हैं। वर्ष 1954 में आजमगढ जिले के लालगंज कस्बे में पैदा हुए इस कलाकार ने कला की औपचारिक शिक्षा वाराणसी, बड़ौदा और तोक्यो, जापान से हासिल की। इस मूर्तिकार की सक्रियता और योगदान को इसी बात से समझा जा सकता है कि वर्ष 1975 से लेकर 2017 तक में वाराणसी, कोलकाता, शान्तिनिकेतन, लखनऊ, बड़ौदा, नई दिल्ली, मुम्बई एवं पुणे के अतिरिक्त जापान के तोक्यो और ओसाका जैसे शहरों में 36 एकल प्रदर्शनियां आयोजित हो चुकी हैं। अपनी इस कला यात्रा में दर्जनों पुरस्कारों और सम्मानों से वे नवाजे गए हैं तो अनेक अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में शिरकत भी करते रहे हैं। जहां तक याद आता है मदनलाल जी से अपनी पहली मुलाकात वर्ष 1989 में हुई थी, तब वे अपने जापान प्रवास से वापस बनारस लौट आए थे। बहरहाल तब से लगभग नियमित तौर पर उनकी कलाकृतियों को देखने का अवसर मिलता ही रहा है। इस तरह से कह सकता हूँ कि मूर्तिकार मदनलाल जी से लगभग तीन दशक से अधिक समय से परिचित हूं। किन्तु पिछले दिनों राम छातपार शिल्प न्यास के एक कार्यक्रम में उनसे जो मुलाकात हुई, उसमें लेखक मदनलाल को भी जानने का अवसर मिला। जब उन्होंने ‘शंखो चौधुरी : व्यक्तित्व के अनछुए पहलुओं की आत्मीय कथा’ शीर्षक अपनी पुस्तक भेंट की।

विगत वर्षों में देखा जा रहा है कि हिन्दी में कला विषयक पुस्तकें नियमित तौर पर लिखी जा रहीं हैं। बावजूद इसके कि अभी भी अपनी इस हिन्दी पट्टी में कला लेखन की स्थितियों को अनुकूल नहीं कहा जा सकता है। बहरहाल बात इस पुस्तक की करें तो, शंखो चौधुरी से अपने संबंधों की चर्चा के क्रम में मदनलाल जी और शंखो दा के कई चेहरे सामने आते हैं। अब चुंकि पुस्तक के शीर्षक में ही ‘आत्मीय कथा’ जैसा शब्द आ चुका है तो जाहिर है कि पुस्तक में इन दोनों कलाकारों के उन आपसी संबंधों की चर्चा है। जिससे हम जैसे ज्यादातर लोग अपरिचित ही हैं। क्योंकि देखने में तो यही आता है कि सामान्य तौर पर हम अपने से वरिष्ठ कलाकारों की विस्तृत जीवनी लिखने या उनकी कला यात्रा की व्याख्या को ही प्राथमिकता देते हैं। अब ऐसे में ज्यादातर मामलों में होता यह है कि इस तरह की कृतियां या पुस्तकें किसी स्कूली पाठ¬क्रम जैसा लगने लगता है। या फिर यह सब महज बौद्धिक विमर्श का हिस्सा भर रह जाता है। आशय यह कि हम उस व्यक्तित्व के तमाम मानवीय पहलुओं को एक तरह के कृत्रिम आवरण में ढक देते हैं।

जाहिर सी बात है कि इस तरह के किसी कृत्रिम आवरण में लफ्फाजियों और लंतरानियों की जितनी भी गुंजाइश हो, साफगोई का नितांत अभाव यहां बना रहता है। बहरहाल मदनलाल की इस पुस्तक का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष यही साफगोई है। यहां उन तमाम आत्मीय पलों की चर्चा है जो गुरु और शिष्य के उन संबंधों को भलीभांति रेखांकित करती है। जिसके लिए कबीर कह गए हैं-
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि गढ़ि काढै़ खोट।
अन्तर हाथ सहार दै, बाहर बाहै चोट।।
इतना ही नहीं गुरु- शिष्य के संबंधों को व्याख्यायित करते हुए कबीर यह भी कहते हैं-
जैसी प्रीति कुटुम्ब की, तैसी गुरु सों होय।
कहैं कबीर ता दास का, पला न पकड़ै कोय।।
यानी जैसा प्रेम तुम अपने परिवार से करते हो वैसा ही प्रेम अपने गुरु से करो। ऐसा करते ही जीवन की समस्त बाधाएं मिट जाएंगी। कबीर कहते हैं कि ऐसे सेवक को कोई मायारूपी बन्धन में नहीं बांध सकता, उसे मोक्ष की प्राप्ति होगी ही, इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता।

मदनलाल

अब इसे संयोग ही कहा जाए कि चौदहवीं-पंद्रहवीं सदी में बनारस की जिस धरती पर कबीर यह सब कह गए, उसी धरती पर आज मदनलाल जैसे एक शिष्य अपने गुरु को कुछ इसी रूप में स्वीकार करते हैं। इस पुस्तक को पढ़ते समय पता ही नहीं चलता है कि गुरु शंखो चौधुरी कब शिष्य मदनलाल के लिए बाबा यानी पितृवत हो जाते हैं और गुरुपत्नी इरा चौधुरी से इरा मां बन जाती हैं। मसलन अपने जापान प्रवास के दौर की चर्चा के क्रम में मदनलाल लिखते हैं- “शंखो दा की जापान यात्रा छोटी सी थी लेकिन मेरे लिए कई कारणों से बड़ी हो गयी थी। मेरी सबसे बड़ी इच्छा थी कि मेरे प्रवास- काल के समय एक बार ‘बाबा’ आते तो कितना अच्छा होता। बाबा आये तो न जाने कितने वर्षों से नहीं मिल सके थे, यह कमी पूरी हो गयी, जैसे मैं उन्हें और अधिक पा गया। ”

वरिष्ठ कला समीक्षक प्रयाग शुक्ल इस पुस्तक से संबंधित अपने मंतव्य में लिखते हैं- “कला और कलाकारों के बनने सँवरने के प्रसंगों वाली इस पुस्तक में जो पारिवारिकता व्याप्त है, सम्बन्धों की जो मिठास-खटास है, उसका लिपिबद्ध होना इसका एक विशेष अर्जन है। कुल मिलाकर यह कि इस ‘पारिवारिकता’ के कारण जो कला चर्चा है, जो कला-संवाद और विचार-विमर्श है, वह रूखे-सूखेपन से मुक्त है, रस-सिक्त है। इसलिए भी है कि इसमें स्वयं कलाकृतियों की निर्मिति की जो कथाएँ हैं, वे निरद्ध तकनीकी नहीं हैं तकनीकी रचना- सामग्री एकत्र करने से लेकर, उनकी साज-सँभाल, उनके भाव-अभाव की भी बहुतेरी बतकहियाँ हैं। कलाकारों की जीवन-शैली, उनके रहन-सहन-कहन की शैलियों के सूक्ष्म-दर्शन हैं।”

पुस्तक में शंखो चौधुरी की प्रेरणा से मदनलाल द्वारा बीएचयू में अपने गुरु रहे राम छातपार की स्मृति में राम छातपार शिल्प न्यास की परिकल्पना से लेकर, उसके साकार होने तक कि अंर्तकथा भी है। इस अंर्तकथा को पढ़कर आप भी इस बात के कायल हो जाएंगे कि: जहां चाह वहां राह। क्योंकि इस शिल्प न्यास के वर्तमान स्वरूप को देखकर कोई भी यह विश्वास नहीं कर सकता कि बिना किसी सरकारी सहायता के सिर्फ अपने निजी प्रयासों से कोई कलाकार इस तरह के स्वप्न को साकार कर सकता है। बहरहाल पुस्तक में शंखो दा के मित्र, सहकर्मी एवं शिष्य रहे कलाकारों में के. जी. सुब्रामण्यन्, राघव कनेरिया, नागजी पटेल, गुलाम मोहम्मद शेख, नीलिमा शेख, ज्योति भट्ट, ज्योत्सना भट्ट, रतन परिमू, कृष्ण छाटपार, ध्रुव मिस्त्री, ईस्थर डेविड के साक्षात्कार भी हैं। इतना ही नहीं शंखो दा की पत्नी इरा चौधुरी से हुई बातचीत भी इन साक्षात्कारों में शामिल हैं। देखा जाए तो यह इकलौती ऐसी पुस्तक है जिसमें शंखो दा के जरिये हम भारतीय आधुनिक कला खासकर मूर्तिकला के तमाम शिखर पुरुषों से वाकिफ हो पाते हैं। जिनमें शंखो दा के समकालीन और उनके शिष्यों के साथ-साथ उनके गुरु रहे रामकिंकर बैज जैसे नाम भी शामिल हैं।

पुस्तक का नाम :- शंखो चौधुरी: व्यक्तित्व के अनछुए पहलुओं की आत्मीय कथा
लेखक: मदनलाल
सम्पादक: डॉ. रमाशंकर द्विवेदी
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रा.लि. और रज़ा फाउण्डेशन का सह- प्रकाशन
मूल्य: 399/-

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *