जहां तक याद आता है कलाकार/ कला लेखक अशोक भौमिक से पहली मुलाकात लगभग आठ दस साल पहले हुई थी। उससे पहले जैनुल आबेदीन एवं चित्तोप्रसाद से जुड़े उनके आलेखों से परिचय हो चुका था। तब कुछ कलाकार मित्रों से यह जानकारी तो मिली थी कि अशोक भौमिक की रचनात्मकता सिर्फ कला जगत तक सीमित नहीं है। साहित्य में उनके योगदान के क्रम में उनके उपन्यास ‘मोनालिसा हँस रही थी’ की विशेष चर्चा अक्सर कुछ कलाकार मित्रों द्वारा की जाती थी। जिसकी पृष्ठभूमि लखनऊ कला महाविद्यालय के इर्द-गिर्द रची गई है, और इसके जरिये कला की दुनिया से जुड़े उन चंद तथ्यों या रहस्यों को उद्घाटित किया गया है। जिसे सामान्य तौर पर नजरअंदाज किया जाता रहा है। बहरहाल इस उपन्यास का कथानक कला की दुनिया के इर्द-गिर्द ही दिखता है। इस बीच पिछले दिनों लेखक अशोक भौमिक की छह पुस्तकों का एक सेट प्रकाशक द्वारा उपलब्ध कराया गया। जिनमें से एक पुस्तक है ‘शिप्रा एक नदी का नाम है’। वर्ष 2012 में पहली बार प्रकाशित यह उपन्यास हमें पिछली सदी के सातवें-आठवें दशक में ले जाती है। जब देश में एक ऐसी युवा आबादी सामने आ चुकी थी, जो तत्कालीन सत्ता और समाज में आमूलचूल बदलाव की पक्षधर थी। बदलाव की इस बयार या कहें कि आंधी को तब ‘माओवाद’ या ‘नक्सलवाद’ के तौर पर चिन्हित किया गया था, ऐसे में इससे जुड़े नौजवानों को नाम मिला था- माओवादी या नक्सलवादी।
जो अपनी वैचारिक पृष्ठभूमि के बावजूद बंदूक के दम पर भी विश्वास करते थे। जाहिर था ऐसे में गांधी और नेहरू इनके आदर्श नहीं हो सकते थे। बहरहाल पुस्तक पर अपने विचार व्यक्त करते हुए महाप्रकाश लिखते हैं- ‘शिप्रा’- यह किताब मुझे अपनी पीढ़ी के उन सपनों- आकांक्षाओं के रहगुजर से लगातार साक्षात्कार कराती है….जब गुजिश्ता सदी के सातवें दशक में गाँधी-नेहरू के भारत के नौजवानों की जेब में देखते-देखते माओ की लाल किताब आ गई। विश्वविद्यालयों के कैंटिनों से लेकर सड़क तक यह पीढ़ी परिवर्तनकामी बहस में उलझी रही, अपनी प्रत्येक पराजय मेें एक अर्थपूर्ण संकेत ढूँढती रही। ऐसा अकारण नहीं हुआ था। गांधी-नेहरू के बोल वचनों की गंध-सुगंध इतनी जल्दी उतर जाएंगे – लोकतंत्र के सपने इतनी शीघ्रता से बिखर जाएँगे -इसका कत्तई इम्कान नहीं था, मगर हुआ। शासक वर्ग के न केवल कोट-कमीज वही रहे, जहीनीयत और क़ायदे – क़ानून भी वही रहे। इसके जादूई चाल से, आज मुक्त हो पाने का सवाल तक पैदा नहीं होता। ‘शिप्रा एक नदी का नाम है’ पढ़ते हुए मुझे एक मई, 1942 के दिन सुभाष चन्द्र बोस के एक प्रसारण में कही बात का स्मरण हो आया है कि ‘ अगर साम्राज्यवादी ब्रातानिया किसी भी तरह यह युद्ध जीतती है, तो भारत की गुलामी का अन्त नहीं।’ यह बात उतनी ही शिद्दत से याद की जानी चाहिए।
मगर दुनिया बदल चुकी है। विचारों के घोड़े निर्बाध दौड़ लगाते हैं। अभ्यस्त-विवश कृषक मजदूर और मेहनतकश आम- आदमी के क्षत-विक्षत स्वप्नों -आकांक्षाओं को आकार और रूपांग देने के सोच का सहज भार नौजवानों ने उठाया। शिप्रा थी, शिप्रा को लेखक ने नहीं गढ़ा। किसी भी पात्र को लेखक ने नहीं गढ़ा। वह अपने आप में है। ठोस है। उसकी साँसें अपनी हैं। यह अहसास हमेशा बना रहता है कि मैंने उन्हें देखा है। अपने अतीत में देखा है। आज भी कई को उसी ताने-बाने में देखता हूँ तो ठिठक जाता हूँ। लेखक ने सिर्फ यह किया कि उस दुर्धर्ष-दुर्गम दिनों को एक काव्य रूप दे दिया ताकि वह कथा अमरता को प्राप्त कर जाए। उसकी ध्वनि, उसकी गूँज प्रत्यावर्तित हो जाए, होती रहे। इसलिए और इसलिए मैं अशोक भौमिक के लेखक के प्रति आभारी हूँ कि मुझे या हमारी पीढ़ी को एक आईना दिया।”
बहरहाल अपनी बात करूं तो साहित्य से अपना जुड़ाव एक सामान्य पाठक वाली ही रही है। कभी किसी पुस्तक की चर्चा सुनी तो खोजकर या खरीदकर पढ़ लिया। ऐसे में जाहिर है कि कुछ चंद साहित्यिक उपन्यास ही अब तक पढ़ पाया हूं। किन्तु इन सबके बावजूद इस उपन्यास को पढ़ते हुए दो बातें सामने आती रहीं। पहली तो यही कि सत्तर-अस्सी के दशक में मुंगेर, बिहार के जिस मुहल्ले वासुदेवपुर में अपना बचपन गुजरा है। वहां के कुछ युवा इस नक्सलवाद के प्रभाव में आकर इससे जुड़ चुके थे। ऐसे में उस दौर के इन घटनाक्रमों की कुछ यादें आज भी अपने जेहन में हैं। दुसरी बात इस उपन्यास को पढ़ते हुए रांगेय राघव की कालजयी कहानी ‘गदल’ की गदल का चरित्र भी याद आता रहा, खासकर गदल का अपने देवर से उस अनकहे प्रेम की तरह शिप्रा और सुधीर की प्रेम-कहानी भी लगती रही। गदल में जहां गदल अपने देवर के विछोह में जान-बूझकर पुलिसिया मुठभेड़ का सामना करते हुए अपनी जान देती है। वहीं इस उपन्यास में शिप्रा अपने जीवन का अंत इन शब्दों के साथ करती है।- ‘नो, आइ हैव नाट किल्ड सुधीर।’ …….’साथी अब मैं जीना नहीं चाहती। मैं सुधीर से मिलना चाहती हूं अभी, इसी वक्त।’
मेरी राय में इस उपन्यास को उन लोगों को तो पढ़ना ही चाहिए जिनकी यादों में वह दौर बसा हुआ है। वहीं आज की पीढ़ी को इसलिए पढ़ना चाहिए ताकि उस दौर की उस सच्चाई से रूबरू हो सकें। जो आज इतिहास के पन्नों में सिमटकर रह गया है। वैसे तो अशोक जी ने इस उपन्यास का शीर्षक दिया है, किन्तु उपन्यास की कथावस्तु को देखते हुए लेखक से क्षमा याचना के साथ, मैं इसे बदलकर कहना चाहूंगा “शिप्रा एक दशक का नाम है’। एक ऐसा दशक जिसमें आमूलचूल बदलाव के सपने बुने गए, और उसे साकार करने के लिए कई गुमनाम युवाओं ने अपनी जीवन की आहुति तक दे दी……
पुस्तक का नाम: शिप्रा एक नदी का नाम है
लेखक: अशोक भौमिक
प्रकाशक: अंतिका प्रकाशन
कीमत: 100/ रू.