कोई भी व्यक्ति संस्कृतिविहीन नहीं हो सकता

इन दिनों बहुधा यह देखने को मिलता है कि किसी मनुष्य या मनुष्य समूह के किसी आचरण को हम तत्काल अपनी संस्कृति के अनुकूल या प्रतिकूल घोषित कर देते हैं I इतना ही नहीं कुछ मामलों में खासा हंगामा भी खड़ा कर देते हैं I ऐसे में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर संस्कृति शब्द से आशय क्या निकलता है ? समय-समय पर अनेक विद्वत जन इसे अपनी तरह से परिभाषित और व्याख्यायित करते रहे हैं I यहाँ सादर-साभार प्रस्तुत है पुस्तक : संस्कृति-विमर्श से हमारे समय के प्रखर चिन्तक सच्चिदानंद सिन्हा के लेख का एक अंश :

“नृशास्त्री संस्कृति में उन सारे कौशलों और जीवनयापन के ढंग को शामिल करते हैं जो मनुष्य को अनुवांशिकी के बजाय मानव समाज में परंपरा एवं मनुष्यों के पारस्परिक संबंधों से प्राप्त होते हैं I इसमें वे उसकी भाषा, धर्म, ज्ञान-विज्ञान, आचार-विचार, तकनीकी, नियम-कानून, विश्वास, कला, साहित्य, नृत्य, संगीत आदि सभी को शामिल करते हैं I यानी उसके व्यवहार के वे पहलू जो अनुवांशिकी से प्राप्त उसके जैविक गुण नहीं हैं बल्कि समाज से प्राप्त गुण हैं जो जैविक गुण (इंस्टिक्ट) जैसे ही अनायास प्रकट होते हैं I एक उदाहरण से फ़र्क स्पष्ट होगा- चलते हुए पाँव में काँटा चुभ जाने पर हम पीड़ा के अनुभव से पाँव उठा लेते हैं और चलना बंद कर देते हैं I यह मनुष्य का जैविक गुण है जो उसकी अनुवांशिकी से प्राप्त होता है I ऐसा व्यवहार हम ध्रुव प्रदेश में रहने वाले एस्कीमो एवं गर्म प्रदेश में रहने वाले भारतीयों, सभी में पा सकते हैं I दूसरी ओर सामने किसी परिचित या मित्र के दिख जाने पर हठात हम अभिवादन में हाथ जोड़ देते हैं, या दूसरी तरह से अभिवादन करते हैं I यह शिष्टाचार है जो हमें अपनी संस्कृति से प्राप्त होता है I

यह जैविक नहीं है, लेकिन जैविक गुण जैसा ही यांत्रिक होता है I अलग-अलग संस्कृतियों में इसके रूप भिन्न होते हैं पर अभिवादन का कोई न कोई रूप सभी समाजों में होता है I इस अर्थ में हिंदी शब्द संस्कार, संस्कृति के चरित्र को ठीक-ठीक अभिव्यक्त करता है I हमारा संस्कार अपने समाज के व्यक्तियों के संपर्क से प्राप्त वह गुण है जिसे हमने इस तरह आत्मसात कर लिया है कि विभिन्न स्थितियों में उनके अनुरूप हम बिना प्रयास के स्वतः यथोचित व्यवहार करते हैं I अगर कोई ऐसा अपेक्षित व्यवहार करने में चूक जाता है तो हम उसे संस्कारहीन कह देते हैं I लेकिन असल में कोई भी व्यक्ति संस्कृतिविहीन नहीं हो सकता I विक्षिप्तता की अभिव्यक्ति भी सांस्कृतिक सन्दर्भ के अनुरूप ही होती है I विक्षिप्त व्यक्ति के व्यवहारों में कोई तारतम्य या परिस्थिति से संगति नहीं दिखाई दिखाई देती I लेकी उसके अट्टहास और रुदन, गाली-गलौज और छटपटाहट- सभी उसकी अपनी भाषा और अपनी परंपरा के अनुरूप ही होंगे I

इस दृष्टि से पागलपन में निश्चित ही संगति होती है (मेथड इन मैडनेस) I सांस्कृतिक व्यवहार में कुछ मानक ज़रूर उभर आते हैं लेकिन असली व्यवहार में मनुष्य इन मानकों से थोड़ा इधर-उधर हट कर ही रहता है I ये मानक तो महज औसत व्यवहार अभिव्यक्त करते हैं I मनुष्य संस्कृतिविहीन इसलिए नहीं हो सकता क्योंकि जीवित रहने के लिए उसे भोजन, कपड़ा, आवास आदि चाहिए जो तकनीकी यानी संस्कृति की देन हैं I इसी तरह उसे भाषा या किसी अन्य संकेत माध्यम से दूसरों से संप्रेषण की आवश्यकता होगी ही I अगर वह झगड़ालू है तो अपने झगड़ालूपन को भी अपनी संस्कृति में उपलब्ध तौर-तरीकों से ही व्यक्त कर सकता है I संस्कृति जीवन में इतनी व्याप्त है कि जैसे हम जल बिन मछली के जीवन की कल्पना नहीं कर सकते वैसे ही संस्कृति बिना मनुष्य के जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते I”

 

पुस्तक : संस्कृति-विमर्श, लेखक : सच्चिदानंद सिन्हा में संकलित लेख- “संस्कृति: सूचनाओं का संसार” से, प्रकाशक : वाग्देवी प्रकाशन, बीकानेर  

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