भारतीय समाज में धार्मिक पर्व केवल आस्था का विषय नहीं, बल्कि सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक एकता के वाहक रहे हैं। इन पर्वों के माध्यम से लोकजीवन न केवल ईश्वर से संवाद करता है, बल्कि अपने समुदाय और पर्यावरण से भी संबंध बनाता है। इन्हीं पर्वों में छठ सबसे विशिष्ट है, क्योंकि यह किसी विशिष्ट जाति, पंथ या संप्रदाय की सीमा में बंधा नहीं, बल्कि संपूर्ण समाज का साझा संस्कार है। यह वह पर्व है जहाँ धर्म और समाज, व्यक्ति और समुदाय, आस्था और प्रकृति सभी एक साथ अनुभव में आते हैं। सूर्योपासना के इस उत्सव में जो तत्व सबसे अधिक प्रभावी है, वह है सामाजिक समन्वय।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि और सामाजिक स्वरूप
छठ पर्व की उत्पत्ति को वैदिक सूर्योपासना और लोक मातृदेवी-पूजा की संयुक्त परंपरा माना जाता है। वैदिक युग में “सविता देवता” और “ऋतुचक्र” की पूजा प्रकृति और जीवन के संतुलन की अभिव्यक्ति थी। कालांतर में जब यह पूजा लोक में आई, तो उसमें मातृत्व और पारिवारिक संरचना से जुड़ी षष्ठी देवी (छठी मइया) की आराधना भी सम्मिलित हो गई। छठ की यह द्वैत संरचना — प्रकृति और परिवार दोनों की पूजा — समाज के लिए गहरे समन्वय का माध्यम बनी। ग्रामीण और शहरी समाज में यह पर्व सांस्कृतिक लोकतंत्र का उत्सव है, जहाँ हर व्यक्ति, हर जाति और हर वर्ग का समान स्थान है।
छठ और सामाजिक समानता की भावना
छठ पर्व का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि यह अंतरवर्गीय और अंतरजातीय एकता को मूर्त करता है। पूजा का कोई केंद्रीकृत स्थान नहीं होता — कोई मंदिर, कोई पुजारी आवश्यक नहीं। नदी, तालाब या पोखरा सभी के लिए समान रूप से खुला स्थान होता है। सभी जातियों और वर्गों के लोग एक ही घाट पर इकट्ठे होते हैं, एक ही जल में अर्घ्य देते हैं। यह दृश्य एक सामाजिक संदेश देता है — “जहाँ सूर्य सबका है, वहाँ समाज भी सबका है।” लोककवि भिखारी ठाकुर ने इस एकता की झलक अपने छठ गीतों में दी है —“सूरुज देव सब पर दिहलें उजियार, ना जात-पात के बंधन रह गइल संसार।” यह गीत स्पष्ट करता है कि छठ पर्व जातीय विभाजनों के पार एक सामूहिक लोकमानवता की स्थापना करता है।
स्त्री-शक्ति और पारिवारिक समरसता
छठ व्रत का केंद्र स्त्री-शक्ति है। व्रतधारी स्त्रियाँ इस पर्व की नायिका होती हैं — वे तप, संयम और आस्था के माध्यम से न केवल अपने परिवार के लिए कल्याण मांगती हैं, बल्कि समाज में मातृत्व और करुणा की ऊर्जा फैलाती हैं। चार दिन के इस व्रत में स्त्री आत्मसंयम, मौन, सेवा और श्रम का प्रतीक बनती है। परिवार के सभी सदस्य — पति, पुत्र, पुत्री, पड़ोसी — इस साधना के सहयोगी बनते हैं। इस प्रकार छठ पारिवारिक संबंधों में सहयोग, श्रम-सम्मान और भावनात्मक संतुलन को पुनःस्थापित करता है। स्त्रियाँ इस पर्व के माध्यम से अपनी धार्मिक स्वायत्तता भी स्थापित करती हैं। यहाँ कोई पुरुष पुरोहित नहीं, स्वयं स्त्री ही यजमानी करती है, स्वयं संकल्प लेती है और स्वयं अर्घ्य देती है। यह भारतीय समाज में स्त्री-धर्म की स्वायत्त परंपरा का सशक्त उदाहरण है।
लोकगीतों में सामाजिक समरसता
छठ के लोकगीत केवल भक्ति नहीं, बल्कि सामाजिक दर्शन भी हैं। इन गीतों में परिवार, समाज और प्रकृति के बीच समरसता की कामना होती है —“केरवा जे फरे सरसोतीं, ओहि तरहिया वर मागी नीर।” इस गीत में नदी (सरसोतीं) और वृक्ष (केरवा) दोनों को जीवन की साक्षी माना गया है — यह प्रतीक है कि समाज और प्रकृति का संबंध अविभाज्य है। छठ के गीतों में न स्त्री-पुरुष का भेद है, न जात-पात का। सबकी आवाज़ एक ही स्वर में मिलती है — लोकमंगल का स्वर।
पर्यावरणीय चेतना और सामाजिक सहयोग
छठ पर्व का प्रत्येक अनुष्ठान प्रकृति के प्रति कृतज्ञता और संरक्षण का संकेत देता है। अर्घ्य देने से पहले नदी, पोखर और घाट की सामूहिक सफाई की जाती है। घर और आँगन को मिट्टी और गोबर से लीपा जाता है — यह स्वच्छता और जैविक जीवन के प्रति आदर का संकेत है। प्रसाद में प्रयुक्त वस्तुएँ — जैसे ठेकुआ, गुड़, चावल, केला, नारियल, गन्ना — सभी स्थानीय और प्राकृतिक हैं, जिनमें कोई कृत्रिमता नहीं। इस प्रकार छठ पर्व लोकजीवन में पर्यावरणीय नैतिकता का पाठ पढ़ाता है।
प्रवासी समाज में छठ : सांस्कृतिक सेतु
आज छठ केवल बिहार, झारखंड या पूर्वी उत्तर प्रदेश तक सीमित नहीं रहा। यह भारतीय प्रवासी समुदायों के बीच एक सांस्कृतिक सेतु बन चुका है। मॉरीशस, फिजी, सूरीनाम, नेपाल, अमेरिका और इंग्लैंड में बसे भारतीय समाज ने छठ को अपनी पहचान और एकता का उत्सव बना लिया है। विदेशों में आयोजित छठ पर्व भारतीयों को न केवल अपने मूल से जोड़ता है, बल्कि वहाँ के स्थानीय समाजों में बहुसांस्कृतिक सहअस्तित्व का उदाहरण प्रस्तुत करता है। इस प्रकार छठ अब “स्थानीय लोकपर्व” से बढ़कर “वैश्विक सांस्कृतिक एकता का प्रतीक” बन गया है।
सामाजिक अनुशासन और सहअस्तित्व का पर्व
छठ का एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि यह सामाजिक अनुशासन और नैतिकता का पर्व है। व्रतधारी संयम, मौन और सत्यनिष्ठा का पालन करते हैं। सामूहिक आयोजन में कोई दिखावा या वैभव नहीं, बल्कि सादगी और श्रद्धा का वातावरण रहता है। हर व्यक्ति अपने श्रम से योगदान देता है — यह श्रम-संस्कार समाज में समान गरिमा और श्रम-सम्मान की भावना को मजबूत करता है।
समरस समाज का लोकआदर्श
छठ पर्व भारतीय समाज को यह सिखाता है कि धर्म तभी सार्थक है जब वह समरसता और सहयोग को जन्म दे। सूर्य की किरणें जैसे बिना भेदभाव के सब पर पड़ती हैं, वैसे ही छठ का संदेश भी है — “धर्म वही जो सबका कल्याण करे।” छठ पर्व में सूर्य की आराधना दरअसल समाज के पुनर्संस्कार की प्रक्रिया है —जहाँ जातीय भेद मिटते हैं, स्त्री-पुरुष का संतुलन बनता है, परिवार और समाज में सहयोग पुनःस्थापित होता है, और मनुष्य प्रकृति के साथ पुनः एकाकार होता है।
इस प्रकार, छठ केवल एक धार्मिक अनुष्ठान नहीं, बल्कि भारतीय लोकजीवन का सामाजिक दर्शन है —एक ऐसा पर्व जो सिखाता है कि समाज का सच्चा सूर्य वह है जो सबके भीतर समान रूप से प्रकाश फैलाए।
- आवरण चित्र : रूपक सिन्हा (वरिष्ठ छायाकार)
Source: Chatgpt
