आप जब किसी कलाकार के निजी स्टूडियो या किसी प्रदर्शनी में जाते हैं तो रंग और रेखाओं की निराली छटा आपको मोहित कर लेती है I किन्तु क्या आपने कभी सुनी है रंगों के निर्माण की इस पीढ़ी दर पीढ़ी चली प्रक्रिया की कहानी I खनिज और प्राकृतिक रंगों की इस यात्रा में एक रोमांचक मोड़ तब आया जब तकनीक के मेल से रासायनिक रंग अस्तित्व में आये I इस यात्रा के चंद निर्णायक लम्हों की कहानी आज हम बता रहे हैं, इस लेख के जरिये I हम कह सकते हैं कि कला और तकनीक के संबंध की कहानी सदियों पुरानी है। जैसे-जैसे मानव ने नयी तकनीकों को अपनाया, कला की भाषा और अभिव्यक्ति भी नए रूपों में ढलती गई। रंगों की दुनिया, जो कभी प्राकृतिक साधनों तक सीमित थी, धीरे-धीरे प्रयोगशालाओं, दुकानों और कारखानों के माध्यम से हर घर तक पहुँचने लगी। यह अध्याय उस यात्रा को रेखांकित करता है जिसमें कलाकार की कल्पना को तकनीक ने पंख लगा दिए।
रंगों की खोज और चुनौतियाँ :
प्राचीन काल में चित्रकारों के लिए रंग एक दुर्लभ और महँगा संसाधन हुआ करता था। न केवल उन्हें खुद रंगों को प्राकृतिक पदार्थों को पीसकर तैयार करना पड़ता था, बल्कि कई बार वह रंग चित्र के साथ लंबे समय तक टिकते नहीं थे। ऐसे में कई चित्र समय के साथ फीके पड़ जाते, रंग बदल जाते या पूरी तरह मिट जाते। दूसरी बड़ी समस्या थी कि उन रंगों को कैसे रखा जाए यानी कि किस पात्र में रखा जाए I ताकि लम्बे समय के लिए वह सुरक्षित और उपयोगी रह सके I क्योंकि हवा के संपर्क में आते ही ये सूखने लगते थे I

इस श्रमसाध्य प्रक्रिया में जब जॉन गॉफ रैंड (John Goffe rand ) नामक एक अमेरिकी चित्रकार ने 1841 में रंगों को रखने के लिए मोड़ने योग्य टीन की नली ईजाद की, तब एक क्रांति आई। अब रंगों को आसानी से संग्रहित किया जा सकता था, ऐसे में वे जल्दी सूखते नहीं थे, और कलाकार उन्हें अपने साथ लेकर खुले आकाश के नीचे बैठकर कहीं भी चित्र बना सकते थे। इससे पहले कलाकार सूअर की मूत्रथैली में रंग भरकर रखते थे— जो एक गंदा, कठिन और बर्बादी भरा तरीका था।
जलरंगों की मधुर क्रांति :

१८वीं सदी के अंत में विलियम रीव्स ने शहद और गोंद अरबी मिलाकर जलरंगों को मुलायम और टिकाऊ बनाया। उनका यह प्रयोग इतना सफल रहा कि उनके द्वारा बनाए गए रंग के बक्से सेना, स्कूलों और आम जनता में बेहद लोकप्रिय हुए। इसके बाद हेनरी न्यूटन और विंसर ने जब इसमें ग्लिसरीन मिलाया, तो रंगों को बिना घिसे सीधे उपयोग में लाना संभव हुआ। यह चित्रकारों के लिए जैसे आकाश से वरदान था।
इंप्रेशनिज़्म और रंगों की नई भाषा :
जैसे ही चित्रकार बाहरी वातावरण में आसानी से रंग लेकर जाने लगे, एक नया कला आंदोलन जन्मा — इंप्रेशनिज़्म। यह आंदोलन प्रकृति में रहकर, प्रकाश और छाया के बदलते क्षणों को पकड़ने का नाम था। मॉने, सेज़ान, पिसारो और सिस्ले जैसे कलाकारों ने इस क्रांति को अपने चित्रों में जीवंत किया। फ्रांसिसी चित्रकार पियरे ऑगस्टे रेनुआर के पुत्र ज्यां रेनुआर (Jean Renoir) ने कहा था, “यदि रंग ट्यूब में न होते, तो शायद इंप्रेशनिज़्म जैसा कुछ न होता।”
रंग-विक्रेताओं की भूमिका और पेर टैंगी की कथा :

पेरिस में जूलियन टैंगी नामक एक रंग-विक्रेता (जिन्हें सब ‘पेर टैंगी’ कहते थे) चित्रकारों के बीच अत्यंत लोकप्रिय थे। वे स्वयं कभी राजनीतिक कारणों से जेल गए थे, पर कलाकारों के लिए उनके पास वह रंगों की दुनिया थी जो प्रेरणा बन गई। विन्सेंट वान गॉग ने उनके तीन चित्र बनाए—प्रथम चित्र में वे एक साधारण व्यक्ति जैसे दिखाई देते हैं, जबकि बाद के चित्रों में जापानी छवियाँ, तीव्र रंग और प्रतीकवाद से उनका रूप बदल जाता है। यह वान गॉग की रंगों के साथ की जाने वाली ‘कला अभ्यास’ की प्रक्रिया का प्रतीक है।
कला, तकनीक और जनतंत्र :
इन तकनीकी विकासों ने केवल कला के स्वरूप को नहीं बदला, बल्कि इसे अभिजात्य वर्ग से निकालकर आम लोगों तक पहुँचाया। अब कोई भी व्यक्ति, चाहे वह रानी विक्टोरिया हो या एक ग्रामीण अध्यापक, अपने पास एक रंग का बक्सा रख सकता था और कल्पना को कैनवास पर उतार सकता था। कला अब महलों और गिरजाघरों तक सीमित न रही; वह बगीचों, गलियों, रेल यात्राओं और मेले-ठेलों तक पहुँच गई।
उपसंहार :
आज जब हम किसी आर्ट स्टोर में जाकर विभिन्न माध्यम के रंग खरीदते हैं, रंगों के बक्से को सहजता से उठाते हैं, हमें इस सदी-दर-सदी चली आई यात्रा को याद करना चाहिए—जिसमें कलाकारों की धैर्यशील साधना, वैज्ञानिकों के प्रयोग और विक्रेताओं की सेवाओं ने मिलकर उस रंग-बिरंगे संसार को जन्म दिया, जिसे हम आज कला कहते हैं। सच तो यह है कि तकनीक ने न केवल कलाकारों को रंगों का उपहार दिया, उनकी कल्पनाओं को भी नयी उड़ान दी।
पठनीय
धन्यवाद सर