20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में जब कला की पारंपरिक परिभाषाओं पर सवाल उठने लगे, तब एक नई कला-धारा का उद्भव हुआ जिसे ‘वैचारिक कला’ या ‘कॉन्सेप्चुअल आर्ट’ कहा गया। इस कला में वस्तु (object) से अधिक विचार (idea) को महत्व दिया गया। जहाँ पारंपरिक कला रंग, रूप, सौंदर्य और माध्यम की सीमाओं में सृजनात्मकता को अभिव्यक्त करती थी, वहीं संकल्पनात्मक कला ने यह प्रश्न खड़ा किया कि “कला वस्तु है या विचार?” इस आलेख में हम इस अवधारणा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, प्रमुख उदाहरणों, दार्शनिक विश्लेषण और भारतीय सौंदर्यशास्त्र के दृष्टिकोण से समीक्षा करेंगे।
संकल्पनात्मक कला की परिभाषा और उद्भव:
‘Conceptual Art’ शब्द का प्रयोग सबसे पहले 1960 के दशक में जोसेफ़ कोसुथ (Joseph Kosuth) जैसे कलाकारों द्वारा किया गया, जिनका मानना था कि “कला की सच्ची पहचान उस विचार में है जो वह प्रस्तुत करती है, न कि उसकी भौतिक आकृति में।” कोसुथ की कृति “One and Three Chairs” (एक वास्तविक कुर्सी, एक तस्वीर और एक शब्दकोश से ली गई परिभाषा) इस दृष्टिकोण का उत्कृष्ट उदाहरण है। यह कृति दर्शक को यह सोचने पर विवश करती है कि “वास्तविक कुर्सी” क्या है—भौतिक वस्तु, छवि, या परिभाषा?

मुख्य विशेषताएँ:
1. विचार प्रधानता: वस्तु के बजाय विचार कला का केंद्र बनता है।
2. माध्यम की अनिश्चितता: चित्र, मूर्ति, या रंग-रेखा की बाध्यता नहीं। पाठ, परफॉर्मेंस, वीडियो, यहाँ तक कि मौन भी माध्यम हो सकता है।
3. दर्शक की भूमिका: दर्शक की भागीदारी, कल्पना और व्याख्या महत्वपूर्ण बनती है।
4. कलाकार = चिंतक: कलाकार को ‘निर्माता’ नहीं बल्कि ‘विचारक’ के रूप में देखा जाता है।
प्रमुख उदाहरण:
• मार्सेल डुशांप की Fountain (1917) — एक सामान्य यूरिनल जिसे उन्होंने “कला” कहकर प्रदर्शित किया, इस धारणा को चुनौती दी कि कला सौंदर्यपूर्ण होनी चाहिए।
• मारिना अब्रामोविच की Rhythm 0 — एक परफ़ॉर्मेंस जिसमें कलाकार स्वयं को दर्शकों की इच्छाओं के सामने निरूपित करती हैं। यह दर्शक की नैतिकता और शक्ति की भी परीक्षा बन जाती है।
• डेमियन हर्स्ट की The Physical Impossibility of Death in the Mind of Someone Living — एक फॉर्मल्डेहाइड में संरक्षित शार्क; जीवन और मृत्यु की अवधारणाओं पर विमर्श।
भारतीय परिप्रेक्ष्य में संकल्पनात्मक कला:
भारत में भी कई समकालीन कलाकारों ने संकल्पनात्मक कला को अपनाया है, जैसे;
- रुम्मना हुसैन और नलिनी मलानी जैसे कलाकारों ने स्त्री-विमर्श और स्मृति को केन्द्र में रखते हुए मीडिया इंस्टॉलेशन और वीडियो कला के ज़रिए अपने विचार प्रकट किए हैं।
- सुबोध गुप्ता की कलाकृति “वेरी हंगरी गॉड” में बर्तन और रसोई के सामानों से बनी एक विशालकाय खोपड़ी है — जो भारतीय घरेलू जीवन, भूख, उपभोग और वैश्विक बाजार के संबंधों के अंतर्संबंध को दर्शाती है I
- हिमांशु व्यास और शिल्पा गुप्ता जैसे कलाकारों ने राजनीतिक अस्मिता, नागरिकता और सेंसरशिप जैसे विषय को आधार बनाकर अपनी वैचारिक कला की प्रस्तुति दी है I
दार्शनिक दृष्टिकोण:
(क) आर्थर डैन्टो (Arthur Danto): डैन्टो ने कला की पहचान ‘आर्टवर्ल्ड’ (artworld) की अवधारणाओं, आशयों और संदर्भों से की। उनके अनुसार, कोई वस्तु ‘कला’ तब बनती है जब वह एक सांस्कृतिक, ऐतिहासिक या दार्शनिक विमर्श में अर्थपूर्ण हो।
(ख) जॉर्ज डिकी (George Dickie): डिकी ने ‘Institutional Theory of Art’ प्रस्तुत की, जिसके अनुसार यदि कोई वस्तु ‘कलात्मक’ मान्यता प्राप्त करती है (जैसे संग्रहालय में प्रदर्शित होती है), तो वह कला बन जाती है।
(ग) डेविड डेविस (David Davies): डेविस ने तर्क दिया कि कला एक प्रक्रिया है, न कि केवल उत्पाद। अर्थात, संकल्पनात्मक कला को उस प्रक्रिया, प्रदर्शन या आशय के अनुसार समझा जाना चाहिए जो इसके पीछे कार्य करता है।
भारतीय सौंदर्यशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य:
भारतीय कला-दर्शन में भी विचार और भाव की प्रधानता है। भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में उल्लिखित “रस सिद्धांत” दर्शक में भाव-संवेदन उत्पन्न करने पर बल देता है। यद्यपि वहाँ कला भौतिक रूप से प्रस्तुत होती है, परन्तु अंततः उसका उद्देश्य विचार और अनुभूति की जागृति है।
ध्वनि सिद्धांत (आनन्दवर्धन): आनन्दवर्धन के अनुसार, काव्य या कला का सौंदर्य न तो शब्द में है और न अर्थ में, बल्कि उस ‘ध्वनि’ (suggested meaning) में है जो दोनों से उत्पन्न होती है। यह ध्वनि ही वह बिंदु है जहाँ संकल्पनात्मक कला भारतीय विचारों से गहराई से जुड़ती है—क्योंकि यहाँ भी प्रत्यक्ष की अपेक्षा परोक्ष विचार (अलौकिक अर्थ) अधिक महत्त्वपूर्ण होता है।
अभिव्यक्ति (वाक्य शक्ति): भारतीय मीमांसा परंपरा में वाक्य शक्ति और प्रतीति के माध्यम से भी हम यह समझते हैं कि शब्दों या संकेतों से विचारों की संप्रेषणीयता संभव है, जो संकल्पनात्मक कला की भाषा के प्रयोग में दिखाई देता है।
आलोचना और चुनौतियाँ:
• कई दर्शक इसे “अ-कला” या “धोखा” मानते हैं क्योंकि इसमें पारंपरिक सौंदर्यबोध नहीं होता।
• इसे समझने के लिए एक दार्शनिक या कलात्मक साक्षरता की आवश्यकता होती है।
• क्या विचार मात्र को कला कहना पर्याप्त है? क्या इससे ‘कला’ की श्रेणी विस्तारित होती है या अस्पष्ट?
निष्कर्ष:
संकल्पनात्मक कला हमें यह सोचने पर विवश करती है कि कला क्या है, उसकी सीमाएँ क्या हैं, और वह किस रूप में हमारी चेतना को स्पर्श करती है। भारतीय सौंदर्यशास्त्रीय परंपरा के आलोक में देखें तो यह कला परोक्ष, ध्वन्यार्थ और बोध की गहनता से मेल खाती है, जहाँ प्रत्यक्ष की अपेक्षा अनुभव और चिंतन अधिक महत्त्वपूर्ण होते हैं। इस तरह से देखा जाए तो वैचारिक या संकल्पनात्मक कला एक चुनौती भी है और एक अवसर भी—यह सौंदर्य को वस्तु के बंधन से मुक्त कर अनुभव, भाव और बौद्धिकता के क्षेत्र में विस्तारित करती है।
ज्ञान वर्धक
Thanks Sir