जिसे हम आधुनिक या समकालीन कला कहते हैं, उसके इतिहास पर अगर नजर डालें तो इतना तो स्पष्ट हो जाता है कि हमारी आधी आबादी यानी महिलाओं की उपस्थिति यहां बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध से दिखने लगती है। खासकर अमृता शेरगिल के भारत आगमन के बाद से इसका लगभग सिलसिलेवार विवरण किसी न किसी रूप में उपलब्ध है। हालांकि देश में अकादमिक कला शिक्षा की बात करें तो इसके वर्तमान स्वरूप की शुरूआत 1850 में तत्कालीन मद्रास से हो चुकी थी। किन्तु इसके बावजूद अमृता शेरगिल से पहले महिला कलाकारों में कोई उल्लेखनीय नाम हमारे सामने नहीं है। हालांकि इसी बीसवीं सदी के शुरूआती दशकों में देश में बंगाल स्कूल या शैली के नाम पर भारतीय कला के पुनर्जागरण का दौर आ चुका था। किन्तु इसके बावजूद इस पुनर्जागरण में महिला कलाकारों की उपस्थिति अभी तक दृष्टिगत नहीं है।
ऐसे में बिहार जैसे राज्य में जहां कला विद्यालय यानी आर्ट स्कूल 1939 में अस्तित्व में आया हो वहां की आधुनिक कला में महिलाओं की उपस्थिति का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। कुछ यही कारण है कि राज्य के समकालीन कला में महिलाओं की उपस्थिति की चर्चा करें तो पहला नाम उन कुमुद शर्मा का आता है, जो कला की औपचारिक शिक्षा से वंचित रहीं। हालांकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है शुरूआती वर्षों में पटना आर्ट स्कूल में छात्राओं के नहीं होने की वजह क्या रही। बहरहाल साठ के दशक से यह सिलसिला भी शुरू हुआ, किन्तु जमर जलील, नीलम सिन्हा व आभा सिन्हा जैसे कुछ नाम आठवें और नौवें दशक में सामने आए जिन्होंने आधुनिक कला में न केवल रूचि जाहिर की, छात्र जीवन में कला गतिविधियों में सम्मिलित भी होते रहे। उसी दौर में वर्ष 1984 मेंं एक छात्रा पटना कला महाविद्यालय में दाखिला लेती है। इस छात्रा ने अपनी स्कूली पढ़ाई पटना के बांकीपुर गर्ल्स हाई स्कूल से की थी, जहां अन्य विषयों के साथ साथ कला विषय की भी पढ़ाई होती थी। ऐसे में हम कह सकते हैं कि कला के प्रति इस छात्रा का रूझान स्कूली दिनों से ही रहा था।
वैसे सामान्य से इतर विशेष परिचय की वजह कुछ हद तक पारिवारिक था, क्योंकि मेरी छोटी बहन भी बांकीपुर गर्ल्स स्कूल में कला की छात्रा थी और इस नाते दोनों पूर्व परिचित थीं। दूसरी एक अन्य वजह थी इस छात्रा के द्वारा वैकल्पिक विषय के तौर पर प्रिंट मेकिंग को अपनाना। बताते चलें कि उस दौर में अधिकतर छात्र-छात्राएं प्रिंट मेकिंग के बजाय फोटोग्राफी का ही चयन करते थे। आज यह छात्रा बिहार के सृजनशील अग्रणी महिला कलाकारों में गिनी जातीं हैं और इनका नाम है अर्चना सिन्हा। कला के प्रति इनके जुड़ाव को इस बात से भी समझा जा सकता है कि वर्ष 1984 में कला महाविद्यालय में नामांकन के बाद वर्ष 1985 से ही विभिन्न कला आयोजनों में सक्रीय भागीदारी निभाती रही हैं, जो आज भी जारी है। जो लोग भी बिहार के वर्तमान कला परिदृश्य से परिचित हैं वे अर्चना सिन्हा के लगभग 35 वर्षों की उस कला यात्रा से अवश्य परिचित होंगे, जिसके तहत उन्होंने राज्य से लेकर राष्ट्रीय स्तर की अनेक प्रदर्शनियों में भागीदारी निभाती चली आयीं हैं। इन 35 वर्षों में उन्होंने प्रिट मेकिंग व चित्र रचना, एवं मूर्तिशिल्प निर्माण से लेकर संस्थापन तक के अपने प्रयोगों से कला प्रेमियों को प्रभावित किया। उनके काष्ठ छापा चित्रों से लेकर लगभग सभी अन्य कलाकृतियां हमारे ग्रामीण जीवन के दस्तावेज की तरह हैं। विगत वर्षों में महात्मा गांधी से जुड़ा उनका एक संस्थापन काफी चर्चा में रहा, जिसे कई महत्वपूर्ण प्रदर्शनियों में शामिल भी किया गया। इस कलाकृति में हाथ से चलाए जानेवाली आटा चक्की में हत्थे की जगह लाठी को लगाया था। अर्चना के अनुसार चक्की यहां पर जहां बा यानी कस्तुरबा का प्रतिनिधित्व करती है वहीं गांधी की लाठी से तो हम सभी परिचित हैं ही । वैसे तो यह गांधी और बा के आपसी जुड़ाव एवं समन्वय का प्रतीक के तौर पर दिखाया गया है, किन्तु वास्तव में यह गृहस्थ जीवन में स्त्री-पुरूष के समन्वय और तालमेल का प्रतीक है।
इस आलेख में अर्चना सिन्हा के काष्ठ छापाचित्रों की चर्चा विशेष तौर पर करना चाहूंगा। भारत में छापा चित्रण के इतिहास की बात करें तो बौद्धकालीन मगध में कपड़ों पर छापाचित्रण की बात सामने आती है। किन्तु आधुनिक कला में छापाचित्रण की बात करें तो यहां यह यूरोप की अनुगामी बनकर आई। बहरहाल काष्ठ छापाचित्रण से जो लोग परिचित हैं वे जानते हैं कि इसके लिए काठ के एक ही ब्लॉक को टूल्स की सहायता से खुरचकर, अलग-अलग रंगों और शेड्स में प्रिंट निकालते हैं। इस लिहाज से जहां यह श्रमसाध्य तो माना ही जाता है कुछ अतिरिक्त धैर्य की भी मांग करता है। छात्र जीवन में तो अर्चना ने इस माध्यम को तो अपनाया ही, आज भी अपने आवास में स्थित स्टूडियो में इस सिलसिले को जारी रखे हुए है।
वैसे समकालीन कला में अधिकांश छापा कलाकार माध्यम के तौर पर लिथो-प्रिंट व एचिंग को अपनाते रहे हैं। किन्तु हालिया वर्षों में काष्ठ माध्यम से छापा चित्रण एक बार फिर से लोकप्रिय होता दिख रहा है। ऐसे युवा कलाकार जिन्हें ग्राफिक स्टूडियो की सुविधा सुलभ नहीं है, वे उसे अपना रहे हैं। अर्चना के इन छापाचित्रों में ग्रामीण बिहार का वो परिदृश्य उभर कर आया है, जो कहीं न कहीं उनके बचपन की स्मृतियों को रूपायित करती है। बताते चलें कि अर्चना की शिक्षा-दीक्षा भले ही पटना जैसे शहर में हुई है, किन्तु उनका परिवार मूल रूप से ग्रामीण पृष्ठभूमि का है। कतिपय इन्हीं कारणों से अर्चना का जुड़ाव आज भी गांव की गलियों से लेकर खेत-खलिहानों तक से बना हुआ है। वैसे देखें तो विगत तीस वर्षों में घास, फूस और बांस से बनी झोपड़ियों और खपरैल की छप्पर वाले घर देखते-देखते लगभग खत्म हो चुके हैं। क्योंकि इनकी जगह अब ईंट- सीमेंट से बने घरों ने ले ली है। ऐसे में तीन-चार दशक पूर्व की यह स्मृतियां एक अलग सा सुखद अहसास हमारे सामने लाती हैं।
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JAESA VYAKTITWA..WAESA KRITITWA….VIVIDH AWAM VIRAT VYAKTITWA KE DHANI , GRAMIN PARIVESH KI KRITYON(PENTING) KO CANVASH PER UKERNE WALI ARCHANA JI , APNE JIWANT KALAKRITIYON KE MADHYAM SE JIWAN KE BIBHINYA AAYAMO KO SAFALTA PURWAK PRASTUT KARNE ME AGRINI RAHI HAIN.ENKI KALA KRITIYON PER CHARCHA HO, NIHSANDEH EK PUSTAK KA ROOP LE LEGA.AANE WALE DINO ME DUNIYAN KAKA DEVI KE ROOP ME AAPKI KADAM CHUMENGI.ASHIM SHUBHKAMNAYEN.JAI SAI RAM.