नवभारत टाइम्स, लखनऊ, 8 मार्च 1988 के अंक में प्रकाशित छापा कलाकार प्रो. श्याम शर्मा पर एक आलेख । विदित हो कि इसी वर्ष श्याम शर्मा जी को ललित कला अकादमी, नई दिल्ली के राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी का प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला था। इस सम्मान के बाद अखिलेश निगम जी ने श्याम शर्मा की कला यात्रा पर केंद्रित इस आलेख को लिखा था। -मॉडरेटर
वरिष्ठ कलाकार/कला समीक्षक अखिलेश निगम
1988 की राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी में इस बार जिन दस कलाकारों को उनकी विशिष्ट कृतियों के लिए पुरस्कृत किया गया है, उनमें दो कलाकार लखनऊ कला महाविद्यालय की देन हैं – एक श्याम शर्मा और दूसरे मुकुल पंवार। श्याम शर्मा एक ग्राफिक कलाकार है और मुकुल पंवार एक मूर्तिकार। इन पुरस्कारों की घोषणा के बाद श्याम शर्मा से मेरी भेंट भुवनेश्वर में हुई, जहां राष्ट्रीय ललित कला अकादमी द्वारा आयोजित एक अखिल भारतीय ग्राफिक कला शिविर में हम आमंत्रित थे। श्याम जी का गौर वर्ण इधर कुछ अधिक ही निखर आया है। मुझे देखते ही वे गले लग गए और इस तरह मेरी बधाई भी स्वीकार हो गई।

एक लम्बे अंतराल के बाद, उन्हें मैंने अपना रचना–धर्म निभाते, इस शिविर में नजदीक से देखा और सिर्फ मेरा ही नही, शिविर में सम्मिलित देश के विभिन्न कोनों से आए दूसरे कलाकारों की निगाहें भी उन पर लगी रहीं। शायद इसलिए भी कि देखे राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित कलाकार की रचना-प्रक्रिया क्या है। वह अपने विषय कैसे गढ़ते हैं, उनमें खूबी है तो आखिर क्या आदि आदि।भुवनेश्वर के कलाकार भी इस दिशा में सक्रीय थे, उनकी उत्सुकता कुछ ज्यादा ही लगती थी। अभी पिछले ही वर्ष श्याम शर्मा को उड़ीसा में सम्पन्न पहली अखिल भारतीय कला प्रदर्शनी में भी पुरस्कृत किया गया था। वहां के कलाकारों और कला-प्रेमियों को जब उनके राष्ट्रीय पुरस्कार पाने और भुवनेश्वर आकर चित्र रचना करने का समाचार मिला, तो उनकी उत्सुकता का बढ़ना स्वाभाविक था।

एक कलाकार के काम को देखना अलग बात है और उसकी रचना-प्रक्रिया का गवाह होना दूसरी बात। और वह भी एक ऐसे कलाकार की जो अपने जीवन के सुनहरे समय से गुजर रहा हो। श्याम ने निराश नहीं किया। हालांकि उन्होंने अपने प्रिय माध्य को छोड़कर `एचिंग` में काम किया, क्योंकि समय और उपलब्ध सुविधाओं का भी शिविर में प्रश्न था।

यह सुखद संयोग ही है कि श्याम शर्मा को मैंने उनके लखनऊ कला महाविद्यालय के जीवन से ही जाना है। उनके संघर्षों को न सिर्फ देखा और सुना है बल्कि महसूसा भी है। और अपनी छोटी-सी कला-यात्रा के बावजूद यह कह सकने की हिम्मत जुटा पाया हूं कि संघर्षों से जूझते हुए अपनी मंजिल की ओर बढ़ते जाने में ही पुरूषार्थ है, एक रोशनी है। सच्चा कलाकार किसी महात्मा से कम नहीं होता। उस सर्वशक्तिमान की झलक पाने और फलक पर किए गए सृजन के सुख में कही बहुत करीब का रिश्ता होता है। खुद श्याम शर्मा भी इसे स्वीकारते हैं।

श्याम शर्मा (जन्म : 1941) ग्राफिक में मूलतः काष्ठ उत्कीर्ण विधा में काम करते हैं। जैसा कि इस विधा के नाम से ही उजागर है कि काष्ठ में विभिन्न तरीकों और औजारों (टूल्स) से उकेर कर फलक (प्लेट) तैयार की जाती है और फिर आवश्यकतानुसार दबाव डालकर उसका छापा तैयार कर लिया जाता है। इस विधा में यदि एक तरफ काष्ठ के स्वाभाविक रूप (टैक्चर) का लाभ कलाकार को मिलता है, तो वही कभी-कभी वही रूप उसकी विषय-वस्तु को सम्प्रेषित करने में बाधक भी बन जाता है।

प्रारंभ में उन्होंने समतल लकड़ी पर कार्य किया परंतु उन्होंने महसूस किया कि इस पर मनोनुकूल बात लाना उतना सरल नहीं, जितना वह समझ बैठे थे। शायद इसीलिए उनके पहले के छापों में कोई विषयगत क्रमबध्दता नहीं है परंतु बाद में पेड़ के तनों के भागों (सेक्शन) पर उन्होंने विभिन्न प्रयोग किए और उन्हें आश्चर्यजनक परिणाम देखने को मिले। उनकी वर्तमान श्रृंखला `वसुधा और अंतरिक्ष` (अर्थ एण्ड स्पेस) के छापे इस दृष्टि से उनकी लम्बी कला साधना के परिचायक बन पड़े हैं और इनमें उन्होंने रंगों का भी प्रयोग बड़े संयोजित ढंग से किया है।

श्याम की इस श्रृंखला के ही छापों पर उन्हें इस वर्ष का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला है। विषयगत दृष्टि से इन छापों में `वसुधा और अंतरिक्ष` को कलाकार ने एक ही फलक पर विभिन्न रूपों में दर्शाने की कोशिश की है परंतु इनमें `पक्षी` का रूप सभी कृतियों में सामान्य रूप से आया है, जैसे धरती से अंतरीक्ष को जोड़ने में वह सूत्रधार है लेकिन वही `पक्षी` मुझे जे. स्वामिनाथन के चित्रों की भी याद दिला बैठता है। श्याम इस प्रभाव को स्वाकारते नहीं। वे कहते हैं – पक्षी तो एक सत्य है। यदि स्वामिनाथन जी को वह विषय के अनुरूप लगता है तो ऐसा कहां है कि मैं या कोई अन्य कालकार उसे अंगीकार नहीं सकते? व्याकरण का प्रयोग तो सभी को करने का हक है उसमें संज्ञा, संज्ञा ही होगी और क्रिया क्रिया। मेरे छापों के चिंतन के विषय सर्वथा नए है। इस श्रृंखला के पूर्व वे `गुब्बारों की श्रृंखला पर कार्यरत थे।

टिप्पणी :
उस वर्ष (1988) राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी का आयोजन मद्रास में हुआ था जिसमें भिवानी (हरियाणा) के सुरेन्द्र कुमार भारव्दाज के चित्र सिटी-1986, इम्फाल(मणिपुर) के तोम्बी सिंह के चित्र वोमेन ऐट मार्केट, नई दिल्ली के.दामोदरम के सर्फेस-आर, मद्रास के ए अल्फांजो के डायमेंसन-I एण्ड II, मद्रास के ही अचुत्थन कुडाल्लूर के ब्लू-I (सभी तैल कलाकृतियां), पटना के श्याम शर्मा के काष्ठ छापा अर्थ एण्ड स्पेस, मद्रास के के.एम.गोपाल के ताम्र-उत्त्कीर्ण आराध्य गणेश्वरी-I, नई दिल्ली के मुकुल पंवार की संगमरमर निर्मित मूर्ति ग्रोथ, उदयपुर के पी.एन.चोयल के तैल चित्र व्यू-I तथा बडौदरा की सुश्री रिनी धूमल के लीथोग्राफ छापे द लैंडस्केप बिऑण्ड को पुरस्कृत किया गया था।
इस प्रदर्शनी के निर्णायक-मंडल में सर्वश्री ए.एस. रमन (मद्रास), डॉ० महेन्द्र कुमार शर्मा “सुमहेंद्र” (राजस्थान) और बीरेश्वर भट्टाचार्य (बिहार) थे।