शिक्षण मेरी कला का सबसे बड़ा ध्येय है: जोसेफ बेयस

“अहम् को विकसित किया जाना चाहिए, अपने लिए नहीं, बल्कि इसलिए कि समाज को इसकी आवश्यकता है। यदि आप केवल आत्म-साक्षात्कार में रुचि रखते हैं तो आप एक अच्छी पेंटिंग नहीं बना सकते। ऐसा करने के लिए आपको प्रारूप तैयार करने और इसे इतिहास से जोड़ने के बारे में भी सोचना होगा।”

“इस तरह के कला विद्यालय मेरे लिए सबसे कम महत्वपूर्ण है। कला के लिए एक आध्यात्मिक संरचना की ज्यादा जरूरत है। यदि कोई व्यक्ति वास्तव में कलाकार है तो वह सबसे आदिम उपकरणों के उपयोग से ही सृजन कर सकता है:- मसलन इसके लिए उपकरण के तौर पर एक टूटा हुआ चाकू ही काफी है। अन्यथा यह किसी सर्जनात्मक संस्थान के बजाय एक शिल्प विद्यालय भर रह जाता है। ”

“हर इंसान एक कलाकार है, एक स्वतंत्रता चाहिए होता है, परिस्थितियों, सोच और संरचनाओं को बदलने अथवा बदलने में भाग लेने के लिए जिससे हमारे जीवन को आकार दिया जा सके।”

“सत्य को वास्तविकता में पाया जाना चाहिए, सिस्टम में नहीं।”

“कला ही जीवन को संभव बनाती है – इसलिए हमें इसे मौलिक रूप से तैयार करना चाहिए। मैं कहूंगा कि कला के बिना मनुष्य शारीरिक दृष्टि से अकल्पनीय है … मैं कहूंगा कि मनुष्य न केवल रासायनिक प्रक्रियाओं से बना है, बल्कि इसमें आध्यात्मिक घटनाओं का भी योगदान है। इन रासायनिक प्रक्रियाओं के नियंता इस दुनिया के बाहर स्थित हैं। मनुष्य वास्तव में केवल तभी तक जीवंत रहता है जब तक उसे इस बात का अहसास रहता है कि वह एक रचनात्मक, कलात्मक प्राणी है … महज आलू छीलने का कार्य भी कलात्मक हो सकता है यदि उसे उसी तन्मयता से किया जाय। ”

“हाउ टू एक्सप्लेन पिक्चर्स टू ए डेड हेयर”

1960-70 के दशक के मध्य में “फ्लक्सस” के नाम से एक अंतर्राष्ट्रीय अवांगार्द कला समूह अस्तित्व में आया। डच गैलरिस्ट और कला समीक्षक हैरी रूहे ने इस फ्लक्सस को “साठ के दशक का सबसे कट्टरपंथी और प्रयोगात्मक कला आंदोलन” माना। इससे जुड़े कलाकारों ने ऐसे इवेंट्स प्रदर्शित किये , जिसमें नव दादावाद के साथ-साथ संगीत, और कविता, दृश्य कला, शहरी नियोजन, वास्तुकला, डिजाइन, और साहित्यिक प्रकाशन शामिल थे। इस क्रम में कई फ्लक्सस कलाकार कला के व्यावसायिक पक्ष विरोधी और कला-विरोधी संवेदनाओं के साथ सामने थे। इस कला आंदोलन को बहुधा “इंटरमीडिया” के रूप में भी वर्णित किया जाता है। संगीतकार जॉन केज के विचारों और प्रस्तुतियों ने फ्लक्सस को काफी प्रभावित किया।

जर्मन कलाकार जोसेफ बेयस भी इस समूह से जुड़कर अपनी प्रस्तुतियों का मंचन करना शुरू किया, और अनुष्ठानिक प्रक्रिया को अपनाया। अपने सबसे प्रसिद्ध प्रस्तुतियों में से एक “हाउ टू एक्सप्लेन पिक्चर्स टू ए डेड हेयर” (1965) के लिए, बेयूस ने अपने सिर को शहद और सोने की पत्ती से ढँक दिया। एक पैर में जूता और दूसरे में लोहा पहना, और एक आर्ट गैलरी में चहलकदमी की। लगभग दो घंटे तक चुपचाप साथ में मृत खरगोश को लिए हुए । कुछ आलोचकों द्वारा उनके इस कलात्मक प्रदर्शन की तुलना जर्मन अभिव्यक्तिवादियों से की गई थी, विशेषकर इसके जुनूनी और अस्थिर गुणों के लिए तथा इस प्रक्रिया में कलात्मक और सामाजिक क्रांति को आपस में समाहित करने के लिए।

जोसेफ बेयस का जन्म 12 मई, 1921 को एवं मृत्यु 23 जनवरी, 1986 को हुयी, अपने कलात्मक प्रदर्शनों में वे अपरंपरागत सामग्रियों एवं कर्मकांड से जुडी गतिविधियों के लिए विवादों में भी रहे। बेयस की शिक्षा रिन्देरन, जर्मनी में हुई, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने जर्मन वायु सेना में सेवा भी दी। 1943 में उनका विमान बर्फ से ढके हुए क्रीमिया में दुर्घटनाग्रस्त हो गया। जिन लोगों ने उन्हें ढूंढकर निकला, उन्होंने उसे वसा की एक इन्सुलेट परत में लपेटकर शरीर की गर्मी को बहाल करने की कोशिश की। बाद में ये पदार्थ उनके मूर्तिशिल्पों में शामिल भी हुए। 1947 से 1951 तक उन्होंने डसेलडोर्फ में कला का अध्ययन किया, और 1961 में उन्हें डसेलडोर्फ के स्टैट्लिच कुन्स्तकादेमी में मूर्तिकला का प्रोफेसर नियुक्त किया गया। बेयस जर्मन राजनीति में भी सक्रियता से शामिल रहे।

1962 में बेयस ने अपने डसेलडोर्फ के दिनों के सहयोगी जून पाइक से दोस्ती की, जो फ्लक्सस आंदोलन के एक सदस्य थे। यह फ्लक्सस नामक अंतरराष्ट्रीय कला समूह के साथ उनकी औपचारिक भागीदारी की शुरुआत थी, इस समूह ने कला की सीमाओं से परे जाकर रोजमर्रा के जीवन में रचनात्मकता के पहलुओं को उजागर किया। हालांकि बेयस ने फ्लक्सस के कई आयोजनों में भाग लिया, उन्होंने कला के आर्थिक और संस्थागत ढांचे के निहितार्थ को अलग तरह से देखा। वास्तव में फ्लक्सस प्रथम विश्व युद्ध के दौरान उभरने वाली कट्टरपंथी दादा गतिविधियों से सीधे प्रेरित प्रभावित थे , किन्तु 1964 में बेयस ने (द्वितीय जर्मन टेलीविजन स्टूडियो से) एक अलग संदेश प्रसारित किया: ‘द साइलेंस ऑफ मार्सेल’ ड्यूचैम्प ओवररेटेड ‘। 12 जनवरी 1985 को बेयस, एंडी वारहोल और जापानी कलाकार कई हिगाशियामा के साथ, “ग्लोबल-आर्ट-फ़्यूज़न” प्रोजेक्ट में शामिल हो गए। यह एक फैक्स कला परियोजना थी, जिसे वैचारिक कलाकार उली फ्यूचर द्वारा शुरू किया गया था, जिसमें दुनिया के अलग अलग हिस्सों से 32 मिनट के भीतर तीनों कलाकारों के चित्र को फैक्स द्वारा भेजा गया था – डसेलडोर्फ (जर्मनी) ,न्यूयॉर्क (यूएसए), एवं टोक्यो (जापान) से वियना के पालिस-लिकटेंस्टीन संग्रहालय ऑफ मॉडर्न आर्ट को। 1980 के दशक के शीत युद्ध के दिनों में इस फैक्स अभियान को शांति प्रतीक माना गया था।

“ग्लोबल-आर्ट-फ़्यूज़न”

“सबसे महत्वपूर्ण है अपने चरित्र में ज्ञानमीमांसा को शामिल करना” बेयस अपने इस कथन के ज़रिये निरंतर बौद्धिक आदान-प्रदान की अपनी प्राथमिकता जताते हैं। बेयस ने अपने शैक्षणिक अभ्यास में दार्शनिक अवधारणाओं को लागू करने का प्रयास किया। उनके तमाम कला प्रदर्शनों को समकालीन कला आंदोलनों के प्रयोगशाला के तौर पर माना जा सकता है।

1969 में विलोबी शार्प के साथ एक आर्टफॉर्म साक्षात्कार के दौरान, बेयस ने अपने प्रसिद्ध बयान में कहा – “शिक्षण मेरी कला का सबसे बड़ा काम है। यदि आप खुद को व्यक्त करना चाहते हैं तो आपको कुछ ठोस प्रस्तुत करना होगा। हालाँकि थोड़ी देर के बाद यह सब केवल एक ऐतिहासिक दस्तावेज़ भर रह जाता है। वस्तुएं अब बहुत महत्वपूर्ण नहीं हैं। मैं पदार्थ की उत्पत्ति एवं इसके पीछे के विचार तक पहुंचना चाहता हूं। ” एक कलाकार के तौर पर बेयस अपनी भूमिका एक ऐसे शिक्षक या उपदेशक के तौर पर देखते हैं जो समाज को एक नई दिशा में मार्गदर्शन कर सके।

-सुमन कुमार सिंह

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