कला महाविद्यालय से लेकर अबतक यानी विगत तीन दशकों से अधिक समय से जिनका साथ बना रहा है, उन्हीं में से एक हैं अपने विपिन कुमार। संयोग कुछ ऐसा रहा कि कॉलेज के बाद अलग-अलग कारणों से 1990 के आसपास हमारा यह जमावड़ा पटना से दिल्ली आ पहुंचा, और देखते-देखते हम सब फिर इसी महानगर के होकर रह गए। यह सुखद है कि संघर्ष वाले उस दौर के सभी मित्रों से संपर्क और संबंध आज तक बना हुआ है। अलबत्ता मिलना- जुलना कुछ कम होता चला गया, जो इस महानगर की नियति सी है। लेकिन जिन मित्रों के साथ रोज का मिलना-जुलना अब भी बचा रह गया है, विपिन उन्हीं में से एक हैं। इसका एक बड़ा कारण तो हमारा एक ही मुहल्ले या कॉलोनी में होना है तो वहीं वर्षों तक एक ही दफ्तर में साथ काम करना भी। इस बीच कुछ ऐसा रहा कि अपना तो ठिकाना वही पुराना ही रहा, किन्तु विपिन कुमार इस बीच अन्य संस्थानों में भी कार्यरत रहे। अखबार व पत्रिकाओं से जुड़े रहने के क्रम में भी कला से रिश्ता बचाए रखने में विापिन सक्षम रहे। हां, अलबत्ता लगभग दो दशक तक कला प्रदर्शनियों की भागीदारी में कुछ कमी जरूर रही।
किन्तु विगत दो-तीन वर्षों से एक बार फिर उसी पुराने रंग में विपिन नजर आ रहे हैं, जैसा छात्रजीवन के तुरंत बाद से लेकर वर्षों तक बना रहा था। वैसे सच तो यह है कि किसी कलाकार के अंदर सृजन का बीज जब एक बार प्रस्फुटित हो जाता है, तो वह क्रम चलता ही रहता है। एक कलाकार से लेकर ले-आउट डिजाइनर या आर्ट डायरेक्टर की भूमिका तक में माध्यम भले ही बदलता हो किन्तु सृजन की मौलिकता हर हाल में कायम रहती ही है। वैसे भी छात्र जीवन से विपिन उन कलाकारों में माने जाते रहे जिन्हें हम मेधावी कहते हैं। पटना के बाद दिल्ली कला महाविद्यालय से मास्टर डिग्री और कुछ दिनों तक फ्रीलासिंग के बाद विपिन अंतत: अखबार की नौकरी से आ जुड़े। इसके बाद फिर एक बड़े प्रकाशन समूह में आर्ट डायरेक्टर के तौर पर कार्यरत रहे। इस तरह ललित कला से लेकर व्यावसायिक कला के क्षेत्र में समान रूप से अपना योगदान इस कलाकार ने दिया। दरअसल विपिन उन कलाकारों में से हैं जिनके लिए ललित और व्यावसायिक कला की विभाजक रेखा मायने नहीं रखती हैं।
बहरहाल ऐसे तो सामान्य तौर पर एक दूसरे के यहां आने-जाने और कला जगत से जुड़ी बातों में समय बिताने का यह सिलसिला लगभग अपने तीस साल पूरे कर चुका है। किन्तु आज की इस बैठकी में अगर कुछ खास था तो यह एक मित्र के बजाय एक कलाकार के स्टूडियो में समय बिताना। हालाकि विपिन इन दिनों जिस शैली में चित्र रच रहे हैं, उसे अमूर्त की श्रेणी में ही रखा जाएगा। किन्तु उनके इस अमूर्तन की जड़ें उन आकृतिमूलक चित्रों और रेखांकनों से जुड़ी हैं, जिसे वे वर्षों साधते रहे हैं। यानी इनके यहां अमूर्तन आकृति विमुखता से अधिक रूपाकारों का परिष्कृत रूप है। बताते चलें कि विपिन उन छात्रों में रहे हैं जिन्हें अपने वरिष्ठ छात्रों से लेकर कनिष्ठ छात्रों का भी भरपूर प्यार मिला करता था। जिसका एक बड़ा कारण था अपने से कनिष्ठ छात्रों के लिए समय निकालना। बात चाहे पटना जंक्शन पर जाकर स्केच करने की हो या लैंडस्केप के लिए शहर के बाहरी हिस्सों में भ्रमण, छात्रों का एक झुण्ड इनके साथ रहता ही है। वैसे विपिन अपने शुरुआती कलागुरू लक्ष्मी नारायण नायक से विशेष आत्मीयता तो रखते ही हैं, उनके जलरंग चित्र शैली के बड़े प्रशंसक भी हैं।
यूं तो अपने वरिष्ठों व शिक्षकों के लिए उनके मन में अभी भी विशेष सम्मान स्पष्ट दिखता है, वह कुछ अलग व्यक्तित्व का परिचायक तो है ही। बहरहाल यहां संलग्न हैं उनके अमूर्त शैली की कुछ नवीनतम कृतियां, जिनमें रूपाकारों का सधा हुआ संयोजन तो है ही रंगों का आकर्षक विन्यास भी सन्निहित है। यहां तक कि आप पाएंगे कि इनकी श्वेत-श्याम कृतियां भी रंगों की कमी का किंचित अहसास नहीं होने देती है। साथ ही आप देख सकते हैं उनके स्टूडियो यानी कलाकक्ष की एक झलक भी। विगत वर्षों में विपिन ने चित्र निर्माण के साथ-साथ कला प्रस्तुति यानी आर्ट- परफॉरमेंस में कुछ प्रयोग किए हैं, जिनमें बोधगया बिनाले-2018 की उनकी प्रस्तुति विशेष उल्लेखनीय है। हालांकि मंच से उनका जुड़ाव छात्रजीवन से ही रहा है, कॉलेज के वार्षिकोत्सव से लेकर कुछ अन्य नाट्य प्रस्तुतियों में भी उनकी सहभागिता रही। पिछले दिनों मिथिला की लोकगाथा राजा सलहेस से जुड़ी उनकी संभावित प्रस्तुति हालांकि कोरोना की वजह से रद्द हो चुका है। वैसे यहं विपिन की विनोदप्रियता की चर्चा भी आवश्यक लग रहा है, तो बस इतना ही बता दें छात्रजीवन से लेकर अब तक हमारा अनुभव यही रहा है कि अगर आप उनके सान्निध्य में हैं तो वहां तनाव या चिंता के लिए किसी तरह की कोई गुंजाईश बच नहीं जाती है।
-सुमन कुमार सिंह