बीरेश्वर भट्टाचार्य: परंपरा, प्रयोग और प्रतिरोध की त्रयी में संलग्न एक कलाकार

“ कला एवं  शिल्प महाविद्यालय, पटना के कलागुरु बीरेश्वर भट्टाचार्य जी को चैटजीपीटी (chatgpt) जिस रूप में प्रस्तुत करता है, वह कुछ यूं है I

 परिचय:

बीरेश्वर भट्टाचार्य, बिहार की समकालीन चित्रकला परंपरा के उन विरल कलाकारों में से हैं जिन्होंने भारतीय लघुचित्र की विरासत और आधुनिकता के बीच एक रचनात्मक संवाद कायम किया। वे केवल चित्रकार नहीं थे, बल्कि शिक्षक, क्यूरेटर, आंदोलनकारी, और सांस्कृतिक चिंतक भी थे। उनका जीवन और कार्य यह बताता है कि एक कलाकार किस प्रकार अपनी जड़ों से जुड़े रहकर भी वैश्विक कलामूल्यों में हस्तक्षेप कर सकता है।

प्रारंभिक जीवन और शिक्षा :

भट्टाचार्य का जन्म बीसवीं सदी के मध्य दशक में हुआ (25 जुलाई 1935)। वे पटना कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स एंड क्राफ्ट्स (स्थापना: 1939) से प्रशिक्षित हुए, जहाँ उन्होंने पारंपरिक पटना कलम, मुग़ल लघुचित्र, और बंगाल स्कूल की प्रभावधाराओं को आत्मसात किया। यहीं से उन्होंने न केवल एक चित्रकार के रूप में, बल्कि कलाविद और शिक्षक के रूप में अपनी यात्रा शुरू की।

शिक्षण और संस्थानिक भूमिका :

भट्टाचार्य कई वर्षों तक पटना कॉलेज ऑफ़ आर्ट्स में प्रोफेसर रहे और बाद में बिहार ललित कला अकादमी के चेयरमैन भी बने। उन्होंने न केवल अकादमिक पाठ्यक्रमों को अद्यतन किया, बल्कि कई स्थानीय कलाकारों और छात्रों को नई दृष्टि और पहचान दी। उनका जोर कला को सामाजिक संदर्भ से जोड़ने पर था — न केवल कला तकनीक पर, बल्कि दृष्टि और विचार की स्वतंत्रता पर भी।

कला में विषय और दृष्टिकोण :

उनकी कला में तीन प्रमुख प्रवृत्तियाँ देखी जा सकती हैं:

  1. परंपरा का पुनर्पाठ:
    उन्होंने पटना कलम की रेखीयता, जलरंग की पारदर्शिता और स्थानीय दृश्यों की सादगी को आधुनिक विषयों में रूपांतरित किया। उनकी रेखाएँ न तो केवल रूपवत थीं, न केवल कथा-प्रदर्शनकारी — वे समय की आलोचना भी करती थीं।
  2. प्रयोगशीलता और मीडिया विस्तार:
    उन्होंने पारंपरिक कैनवास से आगे जाकर प्रदर्शन कला (performance art), प्रकाश प्रक्षेपण (light projection), और संस्थापन कला (installation) की विधाओं में भी काम किया। ये प्रयोग 1960–70 के दशक में भारतीय कला-जगत के लिए काफी नवीन थे।
  3. सामाजिक यथार्थ का आलोक:
    उनकी चित्रकला में विस्थापन, जाति-वर्चस्व, औद्योगिककरण से उपजा असंतुलन, और ग्राम्य भारत की उपेक्षा जैसे विषय तीव्रता से आते हैं। वे कला को सौंदर्य से अधिक — चेतना का उपकरण मानते थे।

‘Neo-Dynamism’ और सांस्कृतिक सक्रियता

बीरेश्वर भट्टाचार्य ने Neo-Dynamism नामक विचार को विकसित किया — यह केवल एक शैलीगत प्रवृत्ति नहीं थी, बल्कि युवा कलाकारों को सामाजिक उत्तरदायित्व की ओर प्रेरित करने की प्रक्रिया थी। यह विचार कहता है कि आज का कलाकार दर्शक नहीं, बल्कि हस्तक्षेपकारी नागरिक होना चाहिए। इस आंदोलन के अंतर्गत कई युवा कलाकार बिहार, झारखंड, बंगाल और दिल्ली में सक्रिय हुए।

आलोचनात्मक दृष्टि से मूल्यांकन

सार्थक पहलू:

  • उन्होंने परंपरा को बोझ नहीं, स्रोत की तरह देखा।
  • उनके चित्रों में शिल्प और विचार दोनों का संतुलन मिलता है।
  • वे शिक्षक के रूप में कला में विचार की वैधता के पक्षधर थे, जब अधिकांश संस्थान केवल कौशल पर केंद्रित थे।

सीमाएँ:

  • बिहार से बाहर उनकी पहचान सीमित रही — शायद इसलिए कि उन्होंने मार्केट-फ्रेंडली या गैलरी-उन्मुख कला को महत्व नहीं दिया।
  • उनके प्रयोगशील कार्यों की पर्याप्त डॉक्यूमेंटेशन नहीं हुई, जिससे उनका मूल्यांकन आंशिक रह गया।

विरासत और प्रभाव: आज जब भारतीय कला अंतरराष्ट्रीय मंचों पर नई पहचान पा रही है, भट्टाचार्य की दृष्टि उस “ग्राउंडेड मॉडर्निज़्म” की याद दिलाती है जिसमें न वैश्वीकरण का अंधा उत्सव था, न परंपरा का जड़ आदर्शीकरण। उन्होंने यह सिखाया कि समकालीनता का अर्थ समय की पकड़ और संदर्भ की संवेदना होता है — तकनीक नहीं।

निष्कर्ष: बीरेश्वर भट्टाचार्य उन विरल भारतीय कलाकारों में हैं जिन्होंने न केवल चित्र बनाए, बल्कि एक पीढ़ी की दृष्टि रची। वे बिहार की कला परंपरा के आख्यानकार भी थे और चिंतक भी, जिन्होंने हमें यह बताया कि अच्छी कला वह है जो सिर्फ देखी नहीं जाती — बल्कि जो देखना सिखाती है।

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