पद्मश्री से सम्मानित प्रो. रणबीर सिंह बिष्ट एक प्रतिष्ठित कलाकार के साथ-साथ कलागुरु के तौर पर भी याद किये जाते हैं। उनके जन्मदिवस 4 अक्टूबर पर उनकी स्मृतियों को याद करते हुए वरिष्ठ कलाकार/ कला लेखक अखिलेश निगम जी का यह आलेख “कला चर्चा” के फेसबुक पेज से साभार ..
एक सैरा चित्रकार के रूप में अपना कला-जीवन आरम्भ करने वाले रणवीर सिंह बिष्ट अपनी लंबी कला-यात्रा में गुजरे तो कई पड़ावों से परंतु उनका मूल आधार ‘प्रकृति’ ही रही है। उनसे मेरा परिचय आर्ट्स कॉलेज में आने से पहले ही हो चुका था। लेकिन निकटता तक बढ़ी जब मैंने कमर्शियल आर्ट्स से निकलकर वर्ष 1964 में आर्ट मास्टर्स ट्रेनिंग कक्षाओं में प्रवेश लिया। यहीं उन्हें जानने-समझने और बहुत कुछ सीखने का अवसर मुझे मिला। यहीं मैं उस चित्र की रचना-प्रक्रिया का गवाह भी बना, जिस पर उन्हें वर्ष 1965 में राष्ट्रीय पुरस्कार का सम्मान मिला।
आर्ट्स कॉलेज से जुड़े पुराने लोगों को याद होगा कि तब आर्किटेक्चर कॉलेज का वहां कोई वजूद नहीं था। सिर्फ आर्किटेक्चरल असिस्टेंटशिप विभाग हुआ करता था। उन दिनों, आर्ट्स कॉलेज में प्रवेश करने के बाद सीधे आकर दाहिनी ओर मुड़ने पर पहले होम आर्ट्स एण्ड क्राफ्ट्स विभाग हुआ करता था। फिर आर्ट मास्टर्स ट्रेनिंग विभाग, आर्किटेक्चरल असिस्टेंटशिप विभाग और पुस्तकालय आदि थे। अब यह हिस्सा आर्किटेक्चर कॉलेज में है। आर्ट मास्टर्स ट्रेनिंग विभाग के विभागाध्यक्ष होने के नाते बिष्ट का वह प्रशासनिक कक्ष, जो उनका स्टूडियो भी हुआ करता था। उनकी यादों में सदा बसा रहा। बिसारते भी कैसे, उनका कलाकार यहीं तो परिपक्व हुआ था। यही नहीं एक कुशल अध्यापक बनने के साथ-साथ प्रशासनिक दायित्वों के निर्वहन के गुण भी उनमें यही समाहित हुए थे। जिसने उन्हें इस कॉलेज के प्रधानाचार्य पद तक पहुँचाया था ।
छात्र-छात्राओं में सृजनात्मक प्रतिभा को ऊर्जा प्रदान करने पर भी वे बल दिया करते थे । इस संदर्भ में होम आर्ट्स विभाग गलियारे में रखा वह डिस्प्ले बोर्ड याद आता है। जिस पर हर हफ्ते छात्र-छात्राओं की श्रेष्ठ रचनाएं चयनित कर डिस्प्ले की जाती थीं – वे चाहे कविता हो, कार्टून हो या स्केच आदि । इससे मूलतः इससे मैं उनकी कला-यात्रा, रचना-प्रक्रिया, सहित उन प्रभावों, मोड़ों, पड़ावों आदि को रेखांकित करना चाहता था, जिनसे गुजर कर वे प्रतिष्ठित हुए थे । इसके लिए उनकी पुरानी से पुरानी कृतियों को मैंने देखा, जिसके निमित्त उनके साथ कई सिटिंग्स मैंने लीं। यह लेख उन पर एक महत्वपूर्ण दस्तावेज बन सका, मुझे इसका बड़ा संतोष था। उनकी कला-यात्रा की चर्चा उनके एक अभिन्न सेवक बाबूलाल के बगैर अधूरी कही जा सकती है, क्योंकि उन्हें निखारने में बाबूलाल की एक बड़ी भूमिका रही। बिष्ट स्वयं भी अत्यंत सहजता से स्वीकारते थे । उनका कहना था कि – “मेरे रचना-कर्म की हर जरूरत का जिम्मा बाबूलाल के पास है।”
उनके चित्रों में ढलान, बहाव या गति की चर्चा अनेक बार हुई है । यह ढलान उनके लैंसडाउन स्थित घर से जेहरीखाल स्थित उनके स्कूल के बीच की है । इस तीन किलोमीटर की दूरी में दोनों ओर की चट्टानें उनमें एक ‘कलाकार’ जाग्रत करने में सहायक रही थीं। जब वे घर से स्कूल के लिए चलते थे, तो इन्हीं चट्टानों पर कुछ न कुछ बनाया करते थे । वहीं लैंसडाउन में रह रहे अंग्रेज परिवारों के कुछेक महिला-पुरुषों ने भी उनमें कला के प्रति रुझान उत्पन्न करने में अहम भूमिका निभायी थी। ये लोग वहीं चट्टानों पर बैठे लैंडस्केपिंग किया करते थे। बालक बिष्ट वहीं बैठ जाते और उनको पेंटिंग करते देखते रहते। स्कूल छूट जाता। फिर स्कूल और घर दोनों जगह उन्हें डांट खानी पड़ती। वह जो वातावरण उनके मन में बसा, वह जीवन के अंतिम क्षणों तक उनमें बसा रहा। उनके कला अध्यापक ने उनके अंतर्मन में जल रही सृजन की आग को प्रज्ज्वलित रखा तथा उन्हें लखनऊ जाने व कला-साधना करने की प्रेरणा दी ।
वे सन् 1948 से 1955 तक आर्ट्स कॉलेज के हॉस्टल में रहे । सूचना विभाग में नौकरी लगने के बाद उन्होंने हुसैनगंज में दो कमरों का मकान किराये पर लिया, और वहीं अपना स्टूडियो भी बनाया। सन् 1954 में सम्पन्न राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी में उनके तीन जलरंगीय लैंडस्केप प्रदर्शित हुई थे। देश की यह पहली राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी थी, जिसकी समीक्षा करते हुए “स्टेट्समेन” अखबार के कला-समीक्षक चार्ल्स फाबरी ने इनके चित्रों की कटु आलोचना की। उस टिप्पणी ने युवा बिष्ट के दिमाग में घर कर लिया ।
अभी-अभी तो कला-क्षेत्र में उन्होंने पैर रखा था। अपने काम में सुधार लाने के लिए वे छटपटाने लगे। फिर समीक्षकों की कसौटी पर खरे उतर कर ही उन्हें संतोष मिला…और सफर जारी रहा। यही वो मोड़ था जहां जल रंग से तैल रंग की ओर बढ़ने के साथ-साथ उनमें प्रयोगवादी दृष्टिकोण भी पनपा। वे आसानी से हार मानने वाले इंसान नहीं थे। वे जो सोचते, उसे पूरा करने में जी जान लगा देते थे । वे एक ऐसे परिवार से थे, जहां सेना में जाने की परम्परा थी । शायद यही वे जीन्स थे, जिसने उनमें जुझारूपन पैदा किया था ।
उनके लिए उन दिनों यह सोचना जरूरी नहीं था कि वे दोपहर को टहल रहे है या पूरी रात। उनके घूमने का कोई न कोई अभिप्राय होता था। मसलन रात में मकानों के दरवाजों-खिड़कियों से प्रकाश कैसे आ रहा है, उसके प्रतिबिंब कैसे बन रहे हैं, रात में लोग सड़कों पर कैसे गुजरते रहते हैं आदि-आदि। वे तरह-तरह के लोगों के संपर्क में आते, उन्हें तौलते और अपनी कसौटी पर उनकी मनःस्थिति को परखने के प्रयास करते। इसी अवधि में उन्होंने ‘नाईट’ श्रृंखला बनायी। उन्हें हरा व नीला रंग अधिक पसंद था। जिसका प्रभाव उनके निजी जीवन मे भी दिखता था।
सूचना विभाग में कुछ महीने रहने के बाद, खास्तगीर साहब ने उन्हें आर्ट्स कॉलेज में शिक्षण-कार्य हेतु बुला लिया। यहां आर्ट मास्टर्स ट्रेनिंग विभाग में उनकी नियुक्ति की गयी थी। वे यहां असिसटेंट प्रोफेसर बने। जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ कि विभाग के बगल वाला कमरा उनका ऑफिस-कम-स्टूडियो हुआ करता था। यहां उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण चित्र बनाये। जिनमे एक चित्र “सिटी स्केप-3” पर उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था। बाद में सन् 1968 में वे इसी कॉलेज के प्रधानाचार्य बने। तब अपने प्रशासनिक कक्ष के पीछे के कमरे को इन्होंने अपना स्टूडियो बनाया। उन दिनों इन्होंने ‘ब्लू’ सीरीज बनायी। यह अलग बात है कि प्रधानाचार्य बनने के बाद उनके दायित्व बढ़ गए थे जिसके चलते उनका कला-कर्म भी प्रभावित हुआ। यही वजह थी कि कॉलेज खुलने से पहले सुबह कोई सात बजे तक वे स्टूडियो पहुँच जाया करते थे । उन दिनों उन्होंने जो कुछ बनाया उनमें से अनेक चित्र अविस्मरणीय है । अवकाश प्राप्त करने के बाद वे इंदिरा नगर स्थित अपने आवास पर स्टूडियो बनाने के लिए काफी समय तक बहुत परेशान रहे थे । ‘अनवांटेड’ श्रृंखला के चित्र सेवानिवृत्त होने के बाद के है ।
आर्ट्स कॉलेज के छात्रावास के बाद हुसैनगंज स्थित आवास, फिर आर्ट मास्टर्स ट्रेनिंग विभाग और प्रधानाचार्य की कार्यशालाएं और फिर अपने निजी आवास की कार्यशाला या स्टूडियो । इस तरह हम बिष्ट की रचना-यात्रा को पांच खण्डों में विभाजित कर सकते है । हर खण्ड में कुछ न कुछ नया होता मिलता है ।
उन्होंने एक बार कहा था -“मेरा उद्देश्य केवल इतना है कि संरचना के एक महत्वपूर्ण क्षेत्र यानी कला से संबंधित कलाकार या अन्य व्यक्तियों को यथासंभव निष्पक्ष रूप से देखा जाए। समाज और सत्ता उनको चारों ओर से दबोचे हुए है। लेकिन, कलाकृतियों का भी अपना दायित्व है। उन्हें व्यापक उद्देश्यों में शामिल होना चाहिए, क्योंकि अंततोगत्वा वे कलाकार और कलाकृतियां ही जीवित रहेंगी जिनका अपेक्षाकृत स्थायी मूल्य होगा ।”
इसमे कोई शक नहीं कि उत्तर प्रदेश को समकालीन भारतीय कला परिक्षेत्र में स्थापित करने में बिष्ट की ऐतिहासिक भूमिका रही है। और वह इतिहास के पन्नों में दर्ज रहेगी ।
-अखिलेश निगम