एक खोए हुए कलाकार से मुलाकात

चुनाराम हेंब्रम मेरे लिए या कहें कि हम सब सहपाठियों के लिए एक ऐसा नाम है, जिससे हमें बेशुमार उम्मीदें रहा करती थी। किंतु कला महाविद्यालय, पटना और फिर बड़ौदा के कला संकाय से अपनी कला शिक्षा के बाद हेंब्रम कहीं गुम से हो गए। खासकर हम मित्रों से उनका संपर्क लगातार कम होता चला गया। ऐसे में हम सभी मित्रों में थोड़ी नाराजगी भी रहने लगी, वैसे नाराजगी से ज्यादा अफसोस का भाव रहता था। क्योंकि हम सभी मित्र इस एक बात से भलीभांति अवगत थे कि कला जगत में हेंब्रम की नियमित उपस्थिति, न केवल झारखंड या बिहार बल्कि देश के लिए उपयोगी साबित होगा। स्थिति यह थी कि तमाम कोशिशों के बाद भी ऐसा हो नहीं पा रहा था। हालांकि ऐसा नहीं था कि हेंब्रम उन दिनों कला सृजन से बिल्कुल दूर थे। लेकिन इतना जरूर था कि जितना समय देना चाहिए था, उतना नहीं दे पा रहे थे।

मुझे यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि इस बात को लेकर कई बार हमलोगों के बीच तल्ख बातचीत भी हो चुकी थी। जहां एक तरफ हममें से अधिकांश मित्रों की राय थी कि स्कूल की नौकरी में उलझकर हेंब्रम अपनी प्रतिभा नष्ट कर रहा है। वहीं इन महाशय का मानना था कि पारिवारिक जिम्मेदारी का सम्यक निर्वहन, किसी भी व्यक्ति की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। और मैं अभी वही कर रहा हूं। बहरहाल तब उनका वादा हुआ करता था कि रिटायरमेंट के बाद मेरा पूरा समय चित्र रचना में ही बीतेगा। ऐसे में जब पिछले कुछ दिनों से उनके फेसबुक वॉल पर उनकी नई कलाकृतियां दिखने लगीं तो आश्वस्ति का भाव जगने लगा। अब उनके कुछ हालिया पोस्ट से संग्रहित चित्र आपके सामने है। मेरी समझ से सभी चित्र अपना संदेश देने में पर्याप्त सक्षम हैं। सुधि कलाप्रेमियों के लिए इसकी किसी विशेष व्याख्या की आवश्यकता नहीं है।

फिर भी इतना जरूर कहना चाहूंगा कि इन कलाकृतियों में जनजातीय समाज और जनजीवन की जो झलक, हमारे सामने आती है। वह हमारे दिल दिमाग में पहले से फिट बैठ चुके बिम्बों से बिल्कुल अलग है। क्योंकि आदिवासी समाज को लेकर जो छवि हमारे मन में बैठ चुकी है, वह है ढोल, बांसुरी या मांदर बजाते और नाचते गाते स्त्री पुरुषों का झुंड। या फिर तीर कमान अथवा कुल्हाड़ी लिए जंगल की और जाते कुछ पुरुष। मेरी समझ से अट्ठारहवीं या उन्नीसवीं सदी के जनजातीय जनजीवन की यह छवि कुछ इस तरह से हमारे मन मस्तिष्क में पैबस्त थी, जिससे शायद हम निकलना ही नहीं चाहते थे। कुछ उसी तरह जैसे रुडियार्ड किपलिंग की पुस्तकों के लिए उनके पिता लॉकवुड किपलिंग द्वारा किए गए इलस्ट्रेशन के जरिए, भारत की छवि यूरोपियन समाज में बन गई थी। यानी मदारियों, भिखारियों, राजे-रजवाड़ों और सांप-संपेरों के देशवाली।

हेंब्रम की इन कृतियों में आदिवासी जनजीवन का वह समकालीन चित्रण हमारे सामने है। जिससे हमारा वृहत्तर समाज आज भी बिल्कुल नावाकिफ है। बहुत बहुत धन्यवाद एवं शुभकामनाएं मित्र। अपनी इन नवीनतम कलाकृतियों के माध्यम से आपने हमें उस खोए हुए कलाकार से मिलवा दिया, जिसकी हमें वर्षों नहीं दशकों से तलाश थी। वैसे इन कलाकृतियों को देखने के बाद एक बड़ा सवाल जरूर हमारा पीछा करता है, कि आखिरकार आदिवासी जनजीवन की बदलती हुयी छवियां हमारे सामने क्यों नहीं आ पाती हैं। मेरी समझ से इसके लिए हमारा गैर-आदिवासी समाज जितना दोषी है, उतना ही दोष उन आदिवासी समाज के तथाकथित झंडाबरदारों का भी है; जो आज भी परम्परागत छवियों को ही बार-बार सामने लाते रहते हैं। बहरहाल यह अलग से विस्तृत बहस का मुद्दा है, जिसपर हमारे बौद्धिक सांस्कृतिक जगत को सोचना होगा। वैसे देखा जाए तो आज साहित्य जगत में ऐसे कई महत्वपूर्ण नाम सामने आये हैं, जिन्होंने अपनी अभिव्यक्ति के माध्यम से जनजातीय समाज की बदलती छवि को देश-दुनिया के सामने लाया है। किन्तु कला जगत की बात करें तो दुर्भाग्य से यहाँ ऐसा नहीं हो पाया है, ऐसे में मित्र चुनाराम की कलाकृतियां और उसमें चित्रित परिवेश हमें एक नयी दृष्टि से रूबरू कराती है। इतना तो कहा ही जा सकता है।

 

-सुमन कुमार सिंह

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