बिहार म्यूजियम, पटना में चल रही सुबोध गुप्ता की एकल प्रदर्शनी की विस्तृत रपट के इस पांचवे और अंतिम भाग में अनीश अंकुर जिन सवालों को उठा रहे हैं I उसका जवाब सिर्फ सुबोध गुप्ता ही नहीं भारतीय समसामयिक कला और उसके उन नुमाईन्दों से भी चाहिए , जो पश्चिम में उसी भारतीय छवि को आज भी पेश करना चाहते हैं I जिसे गढ़ने में रुडयार्ड किपलिंग और उनके कलाकार पिता लॉकवुड किपलिंग का योगदान रहा है I विदित हो कि रुडयार्ड की पुस्तकों में लॉकवुड ने जो रेखांकन किये थे, उसे देखकर यूरोप ने भारतीय उप महाद्वीप को संपेरों, मदारियों और जादूगरों का देश मान लिया था I -संपादक
Anish Ankur
सुबोध गुप्ता की पुनरावलोकन प्रदर्शनी का अंतिम भाग
सुबोध गुप्ता के बर्तन खाली रहा करते हैं। उनमें खाने-पीने का कोई सामान नहीं होता, सामग्री नहीं होती। खाली बर्तनों से एक सूनापन झांकता है। बाहरी तौर पर भले उसमें चमचमाहट हो, भव्य आकर्षण हो लेकिन एक आंतरिक शून्यता झलकती है। इसका अहसास हर देखने वाले को होता रहता है। भारत जैसे विशाल देश की बहुमत आबादी के जीवन के अभाव, खालीपन और सूनेपन को अभिव्यक्त करते हैं ये खाली बर्तन।
एक विचित्र द्वंद है सुबोध गुप्ता के काम में एक ओर उसमें समकालीन समय की चौंधियाने वाली रौशनी है, चमक है तो दूसरी ओर उसका एक अंधेरा पक्ष भी है। समकालीन बदलती दुनिया में विकास की भी संभवतः यही त्रासदी है। तमाम नियोन लाइटों की जगमगाहट और धवल पहलू के बावजूद, सुख-सुविधाओं के सभी साधन उपलब्ध होने के बाद भी जीवन में इतनी उब क्यों हैं ? मन क्यों नहीं लगता है ? लालच, भोग और हिंसा क्यों है? इस अंर्तविरोध पर भी जाने- अनजाने नजर चली जाती है। जैसे खाने का कोई भी बर्तन है तो उसमें भोजन क्यों नहीं है ? बर्तन जिस चीज को रखने के लिए बना है वही चीज उसमें से गायब क्यों है ? मिट्टी और अल्यूमिनियम के बर्तन से स्टेनलेस स्टील यानी बिना दाग-धब्बे के बने बर्तन में खाना क्यों नहीं है ? ऐसे सवाल सहज रूप से प्रेक्षक के मन में उठते हैं।
सुबोध गुप्ता का कमाल या उनकी कला यही है कि ऊपर से, भरी-पूरी नजर आने वाली, ज़िन्दगी के अंदर के खोखलेपन और निरर्थकता को सामने ला रही हो। हर बड़ी कला यह करती है। यदि दूसरे शब्दों में कहें तो सुबोध गुप्ता के यहां आम जीवन का अंधेरा पक्ष उजागर है वहीं नई किस्म के रौशनी से सराबोर जगमगाती दुनिया भी है। संभव यही वजह है दुनिया के बड़े पूंजीपतियों को- जैसे फ्रांस को सुबोध के काम में ऐसा क्या दिखता है ? वे उस बिना किसी नुक्स वाले उस चमचमाते पहलू से संभव है आकर्षित हो रहे हों वहीं दूसरी ओर उसमें अभाव है, खालीपन है। एक ओर समृद्धि है, वैभव और ऐश्वर्य है तो दूसरी ओर कुंठा, हताशा और अकेलापन है। सुबोध गुप्ता का काम एक साथ चमकते और तड़पते दोनों भारत को अपनी कलाकृति में सामने लाने की कोशिश करती प्रतीत होते हैं।
जैसा कि हमलोग अब तक विचार कर चुके हैं कि सुबोध गुप्ता की पेंटिंग, स्कल्पचर, इंस्टॉलेशन आदि अनुशासनों से उनकी अधिकांश कृतियों में व्यक्त छवियां उस दौर की हैं जब वे बिहार के अपने कस्बे खगौल में रहा करते थे। तब से एक लंबा अर्सा व्यतीत हो चुका है। चाहे वह बुलेट मोटर साइकिल के दोनों ओर बंधे दूध का कंटेनर हो या ‘ ट्वेंटी नाइन मॉर्निंग्स’ या अन्य कोई और। तमाम छवियां स्मृतियों से बनाई गई हैं । उस दौर की स्मृतियां जो उनका संघर्षशील दौर था। यह सवाल सहज ही मन में उठ सकता है कि आखिर सुबोध गुप्ता के यहां एक खास दौर की ही छवियां बहुतायात में क्यों हैं ? शेष जीवन के बिंब क्यों नहीं दिखाई देते हैं ? बिहार और खगौल छोड़े हुए उन्हें लगभग साढ़े तीन दशक हो चुके हैं। जितने दिन उन्होंने बिहार में व्यतीत किया उससे अधिक दिल्ली या दूसरे शहरों में। पर उनकी कृतियों में बाद के इमेज अनुपस्थित क्यों है ? क्या वह उनके अनुभव का हिस्सा नहीं बन पाया है ? सुबोध गुप्ता बर्तन, गोबर, साइकिल, घिसा जूता जैसी सामग्री उपयोग में लाते हैं।आज का समाज अब गोबर वाली दुनिया में लौटना नहीं चाहता पर सुबोध गुप्ता एक प्रदर्शनी में उसे अपनी देह में लपेटते हैं। यह उसी पिछड़े हुए उस समाज व समय की चीज है जिसे छोड़कर सुबोध गुप्ता बिहार के बाहर गए।
क्या सुबोध गुप्ता को उसी ठहरे, जड़ छवि आज भी प्रिय है ? अच्छे अवसर की तलाश में वे अपनी जिस दुनिया को छोड़ गए वही उन्हें हॉंट करती प्रतीत होती है। आखिर ऐसा क्यों ? हमारे आस-पास की दुनिया, हमारा समाज आगे बढ़ चुका है पर कलाकार उसी पुरानी विलुप्त हो चुकी दुनिया में खोया हुआ है, उसी के प्रति मोहाविष्ट है ऐसा क्यों ?
कहीं ऐसा तो नहीं कि इसके पीछे कला के दुनिया के जिस अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क ने, कला पारखियों ने सुबोध गुप्ता को आगे बढ़ाया या उनकी ‘‘कीमत पहचानी’’ उनका कोई हित सध रहा हो। हिंदुस्तान आज भले दुनिया से कदमताल करते रहने का दंभ भर रहा हो। लेकिन हिंदुस्तान के बारे में पश्चिम की समझ आज भी एक ओरिएंटलिस्ट दृष्टिकोण से निर्देशित होती है। यानी भारत आज भी ‘लैंड ऑफ इक्जॉटिका’ ही बना हुआ है। यानी भारत आज भी भालू और संपेरो का देश है,अंधविश्वास और कूपमंडूकता का मुल्क है। भारत आज भी उनके लिए उन्नीसवीं शताब्दी में ही ठहरा हुआ है। अंग्रेजों की बनायी गयी यह दृष्टि इतनी सशक्त थी कि पूरी दुनिया भारत को उसी ऑंख से देखती आती रही है।
क्या सुबोध गुप्ता भी कुछ-कुछ उसी परिघटना के शिकार अब तक रहे हैं ? कहीं पश्चिम के कला समीक्षक, खरीददार, ग्राहक आदि हिंदुस्तान के गरीब इलाके से आने वाले इस कलाकार की उन्हीं चीजों को ग्लैमराइज करने की कोशिश कर रहें है जिसे छोड़कर यहां से वह गया है ? मानो वे सुबोध गुप्ता को यह बताना चाहते हों कि ‘‘सुबोध ! तुम्हारी जगह वहीं है ! बिहार के खगौल में ! गोबर, कीचड़, झोपड़ी, दूध के कंटेनर,थाली, पीढ़ा, बक्सा, बर्तन ! ’यही तुम्हारी दुनिया है !’’ खबरदार ! यदि तुमने इस दुनिया का अतिक्रमण किया !’’ कला के व्यापार की राजनीति को भी समझना आवश्यक है। बिहार से फिल्मी दुनिया में सफल हुए बिहारी कलाकारों को भी बिहार से संबंधित वही भूमिकायें मिला करती हैं जो बिहार से संबंधित प्रचलित और पारंपरिक छवि निर्मित की गयी है। यानी वही देहाती, रंगदार, भदेस दुनिया की बातें करने वाला, कट्टे की भाषा में बातें करने वाला।
हम बिहारी भी शासक वर्ग द्वारा निर्मित अपनी उसी छवि को इंज्वाय करने लगते हैं। कहीं सुबोध गुप्ता भी उसी फिनोमिना के शिकार तो नहीं हो गए हैं ? सुबोध गुप्ता आधुनिक, समकालीन, दुनिया भर में सबसे अद्यतन कला सामग्रियों के उपयोग में सिद्धहस्त नजर आते हैं पर सबसे अहम सवाल यह है कि वे बना क्या रहे हैं ? कौन से बिंब ला रहे हैं ? पांरपरिक छवि, इमेज ही क्यों हैं? आधुनिक सेंसिबिलिटी क्यों नहीं है ? आधुनिकता के बारे एक दृष्टिकोण यह है कि यह श्रम और उत्पादन के बदले व्यापार (कॉमर्स) को प्रमुखता देता है। अब पुराने जमाने के क्लासिक्स की तरह कलाकार पसीना नहीं बनाता अपितु चीजों में बस हेर-फेर करता है। वैसे भी आज के कलाकारों की यही मुख्य आलोचना भी की जाती है। कलाकारों में खुद हाथ से किये जाने वाले काम के बदले उसे विशेषज्ञों को आउटसोर्स कर देने की प्रवृत्ति हावी होती जा रही है। मानवीय श्रम अदृश्य सा होता जा रहा है।
पिछले पच्चीस वर्ष से सुबोध गुप्ता अपनी स्टील वाले बर्तन के पर्याय बन चुके हैं। सुबोध गुप्ता अब साठ साल के हैं तो क्या अब वे एक पड़ाव पर आ चुके हैं ? क्या अब उन्हें खुद को रिइन्वेंट करने की आवश्यकता है ? कहीं वे दुहराव के तो शिकार नहीं हो रहे हैं ? समृिद्ध और यश के बाद ऐसा होना स्वाभाविक है। प्रख्यात ब्रिटिश कला समीक्षक जॉन बर्जर ने पाब्लो पिकासो के बारे में एक अंर्तदृष्टिसंपन्न टिप्पणी करते हुए कहा था ‘‘ पिकासो निस्संदेह महान कलाकार थे। लेकिन एक बार स्थापित होने, धन, यश और समृद्धि प्राप्त करने के बाद उनकी कला में वह उंचाई भी नहीं रह गयी थी।’’
क्या सुबोध गुप्ता भी इसी डायलेमा के शिकार हो गए हैं ? उम्र के जिस मुकाम पर सुबोध गुप्ता हैं वैसे में उनके साथ भी कहीं वैसा ही खतरा तो नहीं उपस्थित हो गया है ?
कहीं उनकी पूरी कला मेट्रो आर्ट का प्रतीक तो नहीं जो 1991 के बाद बने मध्यवर्ग के लिए अधिक मुफीद हो। कहीं यह उस मध्यवर्ग के डायलेमा को तो प्रकट नहीं कर रहा है जिसमें पुराने से मोह नहीं छूटता और नया कुछ अब तक अस्तित्व में नहीं आया है ?
सुबोध गुप्ता पुनरावलोकन प्रदर्शनी से गुजरते हुए ये सहज सवाल उठ सकते हैं। मेरे ख्याल से सुबोध गुप्ता को भी अपने जीवन व कला के बारे में पुनरावलोकन करने का उचित समय आ गया है।