अगर कहूं कि चुनाराम हेम्ब्रम भी कलाकार हैं तो शायद आप भी मान लेंगे। लेकिन अगर कहूं कि चुनाराम हेम्ब्रम एक सक्षम और बड़े कलाकार हैं तो आप में से बहुतों को शायद यह रास ना आए। क्योंकि वे आज के प्रचलित बड़े या स्थापित कलाकार वाली परिभाषा में कहीं मिसफिट से नजर आते हैं। और तो और बिहार के जिस पटना कला महाविद्यालय से उन्होंने कला की पढ़ाई की, वहां के कला जगत के लिए भी वे लगभग अपरिचित से ही हैं, इसके बावजूद कि हम जैसों की स्मृति में वे ऐसे प्रतिभाशाली छात्र के रूप में दर्ज हैं, जैसा दशकों में देखा-सुना जाता है। वहीं समकालीन कला में जिस बड़ौदा संकाय या बड़ौदा लॉबी का दबदबा माना जाता है, हेम्ब्रम जैसे नाम आपको वहां भी दर्ज नहीं मिलेंगे । इसके बावजूद कि पटना के बाद आगे की कला शिक्षा उन्होंने यहीं पायी थी।
बिहार की बात करें तो लगभग साल डेढ़ साल पूर्व की एक घटना याद आती है, स्थानीय कला संरक्षक अंजनी कुमार सिंह जब अपने संग्रह के चित्रों पर चर्चा कर रहे थे, तब उन्होंने हेम्ब्रम के चित्र दिखाते हुए कहा कि आपलोग शायद इन्हें नहीं जानते होगे, यह झारखंड के एक युवा कलाकार हैं। बहरहाल मैंने उन्हें जब बताया कि हम सहपाठी रह चुके हैं, और शायद किसी और से ज्यादा इन्हें जानते हैं, तो उन्हें सहसा विश्वास नहीं हुआ । जिसका एक बड़ा कारण शायद यह था कि अंजनी जी लगभग डेढ़ दशक से बिहार और देश-विदेश की कला से अपेक्षित गंभीरता से जुड़े रहे हैं। ऐसे में इतने दिनों तक इस कलाकार से अपरिचित रह पाने का उन्हें किंचित आश्चर्य था। बिहार जैसे राज्य में अंतरराष्ट्रीय सज-धज वाले बिहार म्यूजियम की स्थापना वाले उनके सोच-समझ से कला जगत बखूबी परिचित है।यहां हुए समकालीन कला के बड़े आयोजनों की चर्चा से भी कला जगत अपरिचित नहीं है, बावजूद इसके कि स्थानीय स्तर पर यदा-कदा कुछ असंतोष के स्वर भी आते रहे। लेकिन इन सबके बावजूद यह मानने से आप गुरेज नहीं कर सकते कि यहां कुछ ऐसे बेहद सफल आयोजन जरूर हुए जिसे राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा और सराहना दोनों मिली तो इन सबके पीछे अंजनी कुमार जी की भूमिका ही ज्यादा महत्वपूर्ण रही है।
बहरहाल बात अगर हेम्ब्रम की कला की करें तो ऐसा नहीं कि इस कलाकार ने अपनी कला सक्रियता को विराम दे दिया हो, अलबत्ता जहां तक चित्र रचने के बाद की सक्रियता यानी उसकी मार्केटिंग की बात करें तो इस मामले में उन्हें आप पूरी तरह असफल कलाकार कह सकते हैं। बावजूद इसके कि उन्होंने दर्जनों कला शिविरों में भागीदारी के साथ-साथ लगभग नियमित तौर पर रांची और कलकत्ता में आयोजित समूह प्रदर्शनियों में भी भाग लिया हैैं।
वैसे आज के संदर्भ में जब हम कला और कलाकार की बात करते हैं तो हमारा दायरा दिल्ली, मद्रास, बंगलोर और मुंबई जैसे शहरों में चल रही कला गतिविधियों तक ही सीमित होकर रह जाता है। यह बात सिर्फ समकालीन कला पर ही लागू नहीं होती लोक-कलाओं का भी हमारा ज्ञान कुछ यहीं तक सिमटकर रह गया है। कतिपय इन्हीं कारणों से आज बिहार की मिथिला चित्रकला हो या छत्तीसगढ़ की गोंड- आदिवासी कला से लेकर राजस्थान व दक्षिण भारत के राज्यों की विभिन्न परंपरागत चित्रशैलियों को भी अपनी पहचान को बनाए-बचाए रखने के लिए इन महानगरों का रूख करना ही पड़ता है। तो अपने हेम्ब्रम महोदय ने महानगर संचालित इस कला- कॉक्स से अपने को दूर रखा, यहां तक कि जिस इंडिया आर्ट फेयर में दर्शक के रूप में ही सही अपनी उपस्थिति दर्ज कराना लगभग अनिवार्य समझा जाने लगा है, वहां भी कभी नजर नहीं आए। ऐसे में महानगर के प्रभु-वर्ग की पेज थ्री पार्टियों में तो दिखने-दिखाने की बात ही बेमानी है। इस पर भी तुर्रा कि कभी किसी निजी गैलरी में जाकर इतनी भी कोशिश नहीं की कि किसी तरह की समूह प्रदर्शनी में भी उन्हें शामिल कर लिया जाए। और तो और दिल्ली में आयोजित एक प्रदर्शनी में जब कुछ मित्रों ने उनकी कृतियां प्रदर्शित की तो वहां भी उपस्थित नहीं हो पाए।
लेकिन इन सब बातों के बावजूद हम जैसे अनेक कलाकार साथियों का अब भी मानना है कि- जग घूमयां थारे जैसा ना कोई, तो इसका सबसे बड़ा कारण इस कलाकार में प्रतिभा और लगन दोनों का होना है। जिसकी सृजन यात्रा इस बात का मोहताज कभी नहीं रही कि उसके काम को सराहा-स्वीकारा जाता है या नहीं। मेरी समझ से यही वह सबसे बड़ा कारण है कि इनके चित्रों में न तो उटपटांग अमूर्तन है और न तो फोटोशॉप की मदद से दर्शाया गया हाइपर रियलिस्टिक अप्रोच । यहां तक कि तमाम परंपरागत व लोक-कलाओं की निर्लज्ज चोरी भी यहां नहीं दिखती, अलबत्ता इनके चित्र पूरी तरह अपनी जमीन की उपज का अहसास दिलाती है। हेम्ब्रम आदिवासी समुदाय से आते हैं, किन्तु आदिवासी व जनजातीय प्रतीकों को भुनाने की बजाय वे सिर्फ उस परिवेश तक अपने को सीमित रखते हैं। अलबत्ता मुख्य विषय के तौर पर यहां सबसे ज्यादा प्रभावी दिखती है उनके रचना में समाहित सार्वभौमिकता ।
वह सार्वभौमिकता जिसमें परिलक्षित है आम-अवाम का परिवेश और उसकी जीवन गाथा । यहां हम विशेष रूप से चर्चा करेंगे उनके हालिया उस चित्र की जिसमें कोराना महामारी से उत्पन्न स्थितियों व चुनौतियों को दर्शाया गया है। चित्र के केन्द्र में ग्लोब को थामे दो महिलाएं दिखती हैं, जिनके पास परियों जैसे पंख हैं और साड़ी पहने हुए इन युवतियों ने चिकित्सा सेवियों वाला एप्रन भी पहन रखा है। इसके पार्श्व के बड़े हिस्से में जो कुछ दिखता है वह है एक मोटी फौलादी सतह । जो जंग से जर्जर होकर अभेद्य सुरक्षा दीवार होने जैसी अपनी महत्ता खोता प्रतीत हो रहा है। इतना ही नहीं इस फौलादी दीवार पर तमाम कीड़े-मकोड़े भी रेंग रहे हैं, साथ ही एक खोपड़ी जो शायद आसन्न संकट की भयावहता को दर्शा रहा है। इन सबके बावजूद धरती को हाथों में उठाए हुए उन उड़ती परियों के भरोसे टिका है हमारा भरोसा, वही भरोसा जिसके सहारे हम जीने की नई आशा संजोते हैं। मेरी समझ से मौजूदा हालात पर चित्रकृति के माध्यम से की गई टिप्पणियों में से यह एक ऐसी गंभीर टिप्पणी है जो हमारे समय-समाज और सत्ता के खोखलेपन को उजागर तो करता ही है, उम्मीद की लौ को भी बचाए रखता है उन चिकित्साकर्मियों के माध्यम से जिन्हें हम इस कोरोना जंग की अग्रिम पंक्ति में देख रहे हैं।
अब बात अगर इसकी तकनीक वाले पक्ष की करें तो पहली नजर में यह चित्र किसी कोलाज जैसा अहसास देता है, खासकर कंप्यूटर की मदद से तैयार कोलाज का, जिसे अक्सर हम फोटो-मोंटाज कह देते हैं। किन्तु सच्चाई यह है कि यह चित्र प्लाईवुड की सतह पर एक्रिलिक रंगों से बनाया गया है। अगर आप चित्र निर्माण की तकनीकों से बखूबी वाकिफ हों तो आसानी से इसे उकेरने में प्रयुक्त कला दक्षता को समझ सकते हैं। इतना तो जरूर कह सकता हूं कि इस प्रभाव को अति सुक्ष्मता व विस्तार से सिर्फ रंग और ब्रश के माध्यम से उकेरना आसान नहीं है। चित्र निर्माण में कैनवस के बजाय प्लाईवुड के प्रयोग को लेकर कलाकार का कहना है कि कैनवस और कागज पर भी मैंने इसे आजमाया किन्तु कई कारणों से प्लाईवुड ज्यादा मुफीद लगा। जिनमें से एक है इसका कठोर होना, जिसकी वजह से पैलेट नाइफ का प्रयोग कर एक के ऊपर एक रंगों की मोटी परत चढ़ाना संभव हो पाता है। कैनवस पर ऐसे करते समय उसका लचीलापन बाधक बन जाता है। वैसे यहां संलग्न हैं ऊपर व्याख्यायित चित्र के अलावा कुछ अन्य चित्र भी, अपने इस खास मित्र के लिए ढेर सारी मंगलकामनाओं और यदा-कदा दायरे से बाहर निकल आने की उलाहना के साथ ।
– सुमन कुमार सिंह