जय झरोटिया: एक मित्र, एक गुरु

वरिष्ठ कलाकार जय झरोटिया 27 मार्च को इस दुनिया को अलविदा कह गए। उनकी यह अनुपस्थिति हमारे कला जगत के लिए बेहद दुखदायी है । एक कलाकार के साथ-साथ जय झरोटिया कला शिक्षाविद व कवि के तौर पर भी जाने जाते रहे हैं । उनसे जुड़े कुछ व्यक्तिगत अनुभव व संस्मरण साझा कर रहे हैं वरिष्ठ कलाकार/ कवि एवं कला लेखक वेद प्रकाश भारद्वाज...

वेद प्रकाश भारद्वाज

जय झरोटिया से पहली मुलाकात कोई 2000 के आसपास हुई। उनसे मिलना तो पहले भी हुआ था पर वह बस मिलना भर था। उसमें एक कलाकार से मुलाकात जैसा कुछ नहीं था। 2000 के आसपास उनके साथ एक कलाकार से लेखक की तरह मुलाकात का सिलसिला शुरू हुआ। मैं तब भी पेंटिंग करता था पर एक कलाकार की बजाय लेखक के रूप में अधिक सक्रिय था। यह अलग बात है कि कई साल तक मिलते रहने और कला को लेकर बातचीत के बाद भी उनके कला जीवन पर बहुत बाद में लिखा। शुरुआती छोटी छोटी टिप्पणियों के बाद उनका एक लंबा साक्षात्कार और उनकी ड्राइंग को लेकर एक लेख लिखा। जय झरोटिया की तरफ मेरे आकर्षण का कारण उनकी ड्राइंग ही थी।

जय झरोटिया की एक कृति

मैं कई बार उन्हें फोन करके कॉलेज पहुंच जाता। वहां उनके काम देखता, उनपर बातचीत करता। कला क्या है, उसे कैसे देखा जाए, स्पेस डिवीजन क्या है जैसे विषयों पर उनसे काफी कुछ सीखा। मैं जब कभी उन्हें अपने ड्राइंग दिखाता तो वो खुश होते। कहते कि खूब ड्राइंग करो। ड्राइंग को लेकर वह मेरा मार्गदर्शन भी करते थे। इसीलिए मैं उन्हें गुरु भी कहता हूं। मित्र तो वह थे ही। हालांकि उम्र में मुझसे बड़े थे परंतु इस बात का कभी अहसास नहीं होने दिया। उन्हीं दिनों कॉलेज में उनके माध्यम से किशन आहूजा, जगदीश डे सहित कई कलाकारों से मिलना हुआ। परमजीत सिंह से भी उन्होंने ही मिलवाया था। सिल्क स्क्रीन के बारे में भी पहली बार उन्हीं से जानकारी मिली थी।

जय झरोटिया

कॉलेज से रिटायर होने के बाद भी मुलाकातों का सिलसिला चलता रहा। मेरे लिए यह बड़ी बात थी कि वह अपने नए काम दिखाने के लिए फरीदाबाद बुलाते थे। पहले उनका स्टूडियो घर में ही था। बाद में फरीदाबाद में ही घर से थोड़ी दूर उन्होंने अलग स्टूडियो बना लिया था। वहां कई बार उनके साथ बैठकी हुई। उन दिनों वह लंबे समय के लिए अपने बेटे के पास लंदन जाते थे। जब वहां से लौटते तो उनके पास नए कामों का खजाना होता था। मुझे बुलाकर दिखाते। मुझसे पूछते, ‘कैसे हैं?’ मैं ज्यादा कुछ कहने की क्षमता नहीं रखता था फिर भी वह पूछकर मेरा मान बढ़ते थे।

जय झरोटिया की एक कृति

जब वह रिटायर हुए तो उन्हीं दिनों दिल्ली आर्ट गैलरी ने उनके ज्यादातर काम खरीद लिए थे जिनकी बाद में प्रदर्शनी भी हुई। वह निमंत्रण पत्रों, पत्रिकाओं के पन्नों पर बनाई ड्राइंग दिखाते और कई किस्से भी सुनाते। आज अफसोस होता है कि काश उस समय वह सब रिकॉर्ड कर लिया होता। फिर भी कई बातें याद हैं। जैसे एक बार उन्होंने बताया कि वह ट्रेन से राजस्थान जा रहे थे। जब ट्रेन चल दी तो उन्होंने अपना बैग खोला। वह स्केचबुक रखना भूल गए थे। उन दिनों रेलवे विभाग एक पत्रिका प्रकाशित करता था ‘रेल यात्रा’। जय जी उसे पढ़ने लगे। पढ़ते-पढ़ते अचानक उनके मन में कुछ आया और उसके पन्नों पर छपे हुए मैटर पर ही ड्राइंग करने लगे। पूरी यात्रा में उन्होंने कई ड्राइंग किए।

वह कविता लिखते थे। हमारे संपादक मंगलेश डबराल से उनकी अच्छी मित्रता थी। मंगलेश जी खुद बहुत बड़े कवि थे फिर भी उन्होंने जय जी की कविताओं को पढ़ने और आवश्यकता होने पर उनमें सुधार का दायित्व मुझे सौंपा। कविता के संदर्भ में उनसे कई बार मिलना हुआ, कभी उनके घर पर, कभी ललित कला अकादेमी की गैलरी में। उनमें से कुछ कविताएं साप्ताहिक राष्ट्रीय सहारा में उनके ही ड्राइंग के साथ प्रकाशित हुईं। बाद में उन्होंने अपने ड्राइंग शो में कैटलॉग में ड्राइंग और कविताएं, एकसाथ प्रकाशित कीं।

उनकी इच्छा थी कि मैं उनके कला जीवन पर हिंदी में एक किताब लिखूं। इसके लिए कई बार उनके साथ बैठक हुई। उनके साथ एक लंबी बातचीत के बाद उसे लिखा, फिर कई और बातों की जानकारी ली। यह कोई आत्मकथा या जीवनी नहीं बननी थी। मैं इसे एक कलाकार की कला यात्रा की तरह लिखना चाहता था। जब मैंने अपनी इच्छा बताई तो उन्होंने स्वीकृति दे दी। काम शुरू तो कर दिया था पर पूरा नहीं हो सका। कुछ उनकी व्यस्तता थी, कुछ मेरी लापरवाही। वह बीच-बीच में महीनों लंदन रहने लगे थे। वहां से लौट कर आते तो दूसरे कामों में व्यस्त हो जाते। इसलिए टुकड़ों-टुकड़ों में कभी किसी प्रदर्शनी के बाद तो कभी किसी गैलरी के लिए जाते समय रास्ते में बात हो पाती थी।

जय झरोटिया की एक कृति

उन्हें कला पर किताबें पढ़ने का भी शौक था। बचपन में वह पत्रिकाएं व किताबें खरीद नहीं पाते थे, पर अब वैसी कोई मजबूरी नहीं थी। इसलिए जब उन्हें कोई किताब पसंद आती तो खरीद लेते। उसे पढ़ने के बाद वह उसके बारे में चर्चा भी करते थे। उनके पास किताबों का खजाना है। एक बार मेरे लिए वह पॉल क्ली पर एक किताब लेकर आए। एक बार वह ‘क्ली इन अमेरिका’ किताब लेकर आए। मैंने उनसे लेकर वह पढ़ी थी।

कला लेखन को लेकर वह अक्सर सुझाव देते रहते थे। एक बार ‘शिल्पी चक्र’ पर लिखने का सुझाव दिया। कोई एक-डेढ़ महीने पहले जब फोन पर बातचीत हुई तो कहने लगे कि मुझे गढ़ी कला केंद्र को लेकर लिखना चाहिए। इसके लिए उन्होंने कई सुझाव भी दिए थे।

उनके साथ कितनी ही यादें हैं, शायद कभी उनको लिखना संभव हो पाए। फिलहाल इतना ही।

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