एक भेंट जिसने मेरा रास्ता ही बदल दिया…

रा.कला एवं शिल्प महाविद्यालय, लखनऊ 1957-62.

 

आदरणीय जयकृष्ण अग्रवाल उन चंद वरिष्ठ कलाकारों में से एक हैं, जिन्होंने आधुनिक कला में प्रिंटमेकिंग को अपनाया। वैसे बात अगर मौजूदा भारतीय कला बाज़ार की करें तो प्रिंट्स या छापाचित्रों के लिए यहाँ कोई खास रूचि नहीं दिखती है। कतिपय इन्हीं कारणों से अधिकांश छापा कलाकार (प्रिंटमेकर्स) अपनी अभिव्यक्ति के लिए छापा कला के साथ-साथ कैनवास पेंटिंग को भी अपनाये रहते हैं। बहरहाल अपने फेसबुक पर किये गए जय सर के इस पोस्ट से हमें पिछली सदी के साठ के दशक में प्रिंट मेकिंग की स्थिति का अंदाज़ा तो मिलता ही है। – मॉडरेटर

आलू के ठप्पों से मैटल प्लेट एचिंग तक की मेरी यात्रा एक विचित्र संयोग ही था। बचपन होली पर आलू के ठप्पे बनाते-बनाते हंसी ठिठोली में बीता। कभी सोचा नहीं था कि होली के हुडदंग में बनाए गये इन आलू के ठप्पों ने मुझे निगेटिव और पॉजिटिव स्पेसेज़ से परिचित करा दिया था। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई आलू के ठप्पे बचपन के साथ ही पीछे छूटते गये, किन्तु अक्सर बहुत सी पुनरावृत्तियों की सम्भावना को नकारा नहीं जा सकता और मेरे साथ कुछ ऐसा ही हुआ।

मुझे आज भी याद है वह दिन जब छठे दशक में लखनऊ कला महाविद्यालय में चित्रकला का छात्र था और मुझे अपने गुरू आचार्य सुधीर रंजन ख़ास्तगीर से लीनोकटर का सेट भेंट में मिला था। टैक्नीक के बारे में जानकारी मांगने पर उन्होंने कहा था कि किसी भी माध्यम में कार्य करने के पहले मीडियम को महसूस करो, रास्ता स्वयं ही मिल जायगा। मैने स्वतः ही प्रयास किया और रास्ता भी मिला। एक बार फिर बचपन के आलू के ठप्पों ने मार्गदर्शन किया। पेन्टिंग का छात्र था और प्रिंट मेकिंग मेरे लिये एक नया अनुभव रहा। प्रारम्भिक प्रिंट में अनेक कमियां थी। किन्तु लीनो का कागज़ पर पहली बार प्रिंट लेना और वह भी स्वयं अपने ही प्रयास से बिना किसी विशेष तकनीकी जानकारी के बड़ा रोमांचकारी अनुभव था। एक ही समय में अपनी कल्पना की निगेटिव और पॉजिटिव आकृतियाँ देखकर कुछ ऐसा लगा कि इस माध्यम की सृजनात्मक सम्भावनाएं शायद मुझे अधिक दूर तक ले जायगी, बस यहीं से मेरी कार्यप्रणाली में एक मोड़ आया। पेन्टिंग के साथ-साथ प्रिटमेकिगं में भी रुचि बढ़ती गई। अपने कार्य को बढ़ाने के लिये अन्य कलाकारों के लीनो और वुडकट प्रिंट देख कर प्रेरणा ली और अंततः मेरी स्वयं की पहचान एक प्रिंटमेकर के रूप में ही बन गई।

यहां दिये गये मेरे लीनोकट प्रिंटस् मेरे प्रारम्भिक कार्य है जो ऐसे समय में बनाए गये थे जब तकनीकी जानकारी सहजता से उपलब्ध नहीं थी। वैसे भी उन दिनों प्रिंटमेकिगं को निम्नस्तरी कला की श्रेणी में रखा जाता था जिसकी वजह से मुझे थोड़ा विरोध का सामना भी करना पड़ता था, किन्तु एक बार जब मैने अपना मन बना ही लिया तो रास्ते भी आसान होते गये।

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