सोमवार सात अगस्त को अमेरिकन सेंटर में यश अलोनेस के क्यूरेशन में कौशल कुमार सौंकरिया की परफॉर्मेंस देखी, सांसो को रोक कर, दिल की धड़कनों को विचलित कर देने वाले बहुत ही गहरे पल थे। लाल हरे पीले रंग का कलावा, कच्चे धागे से बना हुआ, हिंदू धर्म में रीति रिवाज परंपराओं पूजा-पाठ अनुष्ठानों का प्रतीक, रक्षा का सूत्र माने जाने वाला कलावा, कहते हैं इसके बिना कोई भी अनुष्ठान पूरा नहीं होता, किसी भी शुभ काम को इसके संकल्प के बिना अधूरा ही समझा जाता है और न जाने क्या-क्या है जो कलावे के साथ जुड़ा हुआ है।
लेकिन आज इस कलावे की मैं दूसरे महत्व प्रतीक प्रश्नों के रूप में बात करूंगा। कौशल को मैं करीबन 35 बरस से जानता हू। कला के नए माध्यमों में उनकी मेटाफोरिकल समझ बूझ, बिंब आज जिस जगह पर आकर खड़े हो गई हैं, एक ही राग में हर बार नए रियाज़ की तरह, नई परफॉर्मेंस की तरह, पल प्रतिपल नए-नए अर्थों में, नए-नए सवालों में, नई-नई बेचैनियों में, नई-नई कुंठाओ में, नए-नए बिंबो में, नए-नए भावार्थ में, आपके सामने नए-नए द्वंद और विरोधाभासों को प्रस्तुत कर देती हैं।
कलावा धीरे-धीरे करके वहां पर प्रत्यक्ष रूप से साक्षी बहुत सारे दर्शकों, रसिकों और चिंतनशील और संवेदना से भरे हुए लोगों के बीच एक अस्थिरता पैदा कर देता है। कौशल के शरीर पर कलावा बंधते बंधते हजारों सालों से उगलते हुए विष और हिंसा से भरी हुई धारणा से बंधा हुआ, फफूंदी की सड़ांध की सड़न वाला वर्णाश्रम, जकड़े हुए नरमुंडो की तरह आपकी आंखों के सामने आकर खड़ा हो जाता है। जिस बेचैनी, जिस व्यवस्था से, जिस पीड़ा से गुजरते हुए कौशल उस बंधन को झेल रहा होता है, उसी कुंठा उसी पीड़ा से वहां आसपास उसको बांधने वाले, उसको देखने वाले सभी साथ-साथ गुजर रहे होते हैं। हिंसा हिंसा ही पैदा करती है। यह अनुभव निरंतर बदलते हुए रूपों में कोड़ों की तरह आपके बदन पर सट्टाक सट्टाक करके पड़ने लगता है। आप सुन्न हो जाते हैं उस सुन्नता में प्रश्नों का जखीरा आपको जकड़ता रहता है।
आपको पानी भरते हुए अंबेडकर दिखाई देते हैं जिनको कुएं से पानी नहीं भरने दिया जाता, उनके कुएं में मल तैर रहा होता है, आपको मरे हुए जानवर का सड़ा हुआ मांस खाते हुए वर्ण व्यवस्था के नाम पर जाति व्यवस्था के नाम पर दबे कुचले हुए लोग दिखने लगते हैं। मनुष्यता की कड़ी में सबसे निकृष्ट जगह पर दबा कुचला कर रखे हुए सिर, चीखती हुई आवाजें सुनाई देने लगती हैं, गोबर में से निकले हुए ज्वार के दाने लेकर खाते हुए शरण कुमार लिंबाले के पानी में बहते हुए लफ्ज़ दिखाई देने लगते हैं, नामदेव धसाल अपनी जलती हुई कविताओं को लेकर आपके समक्ष आकर जलती चिंताओं की तरह खड़े हो जाते हैं ।
खैरलांजी के अतीत में बहती हुई लाशें, हाथरस में गैंगरेप में मारी गई, जला कर खत्म कर दी गई लड़की, वर्णाश्रम में घुटी हुई खामोशी की तरह सुन्न घाव में दिखाई देती है, आपके सामने सावित्रीबाई फुले के साथ बेशुमार लड़कियां प्रश्नों को लेकर खड़ी हो जाती है। आप चुप रहते हैं, फिर एक छाया दिखाई देती हैं। रोज़ रोज़ संविधान को कैसे समतल किया जा रहा है, कमज़ोर किया जा रहा है, पाखंड की परकाष्ठा ये उसके सामने दंडवत प्रणाम किया जाता है लेकिन उसके मूल्यों को पल प्रति पल खत्म करने की चेष्टा की जाती है। प्रपंच रचे जाते हैं गांठे आपको और जकड़ लेती है; खून के दौरे से जकड़ी हुई नसे फूटती टूटती चली जाती हैं, कांटो सी चुभने लगती है। नसें चटकने लगती हैं, कदम आगे नहीं बढ़ते, उछल उछल के प्रेमचंद की सद्गति की मरी हुई दुखी की लाश की तरह बारिश में जकड़ी हुई नसें भीगने लगती हैं, दलित की लाश को खींचता ब्राह्मणवाद हजारों साल पुरानी सड़ी-गली धारणाओं को बांधकर निरंतर बांधकर खींचता दिखाई देता है।
आपकी दिमाग की नसें आसमान से गिरते तारों की तरह डूबने लगती हैं कौशल भी डूब रहा है साथ में देखते लोग भी डूब रहे हैं, जाएंगे कहां पता नहीं क्या यह सब कुछ बदल पाएगा, पता नहीं संगठित हो संघर्ष करो पढ़ो, चारों ओर से नारे सुनाई देने लगते हैं आप बंधे-बंधे कोशिश करते हैं किसी तरीके से संविधान को कलावे से ना बंधने दें, किसी तरह से अपने संविधान, अपने मूल्यों को जीवंत रखें, लोकतंत्र को ना जकड़ने दें चलते-चलते परफॉर्मेंस में लोग इकट्ठे होने लगते हैं, सब बंधन तोड़ने लगते हैं, फिर तोड़ने लगते हैं तोड़ते-तोड़ते स्वयं की मुक्ति से दूर कलावे टूटने लगते हैं छिटकने लगते है।
पर क्या वह मुक्त हो पा रहे हैं ?
यह प्रश्न आधा अधूरा प्रश्न, गले में अटकी हुई हिचकी की तरह आपके सामने आधा अधूरा ही रह जाता है, अब क्या करें क्या ना करें, इसके बीच सब नारा लगाते हैं और कलावे को तोड़ते चले जाते हैं तोड़ते चले जाते हैं तोड़ते चले जाते हैं । कही कोई विराम नहीं है प्रश्न चिन्ता प्रतीक निरन्तर संघर्ष जारी है; कौशल अगले पल के साथ आगे बढ़ जाता है।
पल प्रतिपल के साथ सारी सरहदों झंडो, कटीली रेखाओं बंटे रंगो के बीच…….
– लोकेश जैन “जुनूनी”