हमारे समय के वरिष्ठतम कलाकार कृष्ण खन्ना ने आज अपने आयु का शतक पूरा कर लिया I इस अवसर पर उनके योगदान को वरिष्ठ कला समीक्षक/ कला इतिहासकार जोनी एमएल ने अपने फेसबुक पोस्ट में रेखांकित किया है I पेश है उस लेख का हिंदी अनुवाद आलेखन डॉट इन के सुधि पाठकों के लिए I -संपादक
Johny ML
जब आपके पास दिन की शिफ्ट वाली एक नौकरी हो, और आप कभी-कभार चित्र बना पाते हों, तो आपकी कला उन लोगों से अलग होगी जो चौबीसों घंटे इसी काम में लगे रहते हैं। आपकी कला में एक भिन्न प्रकार की परिष्कृति होगी। क्योंकि आपकी नियमित नौकरी आपको एक विशेष आत्म-छवि देती है जिसे आप इतनी आसानी से तोड़ना नहीं चाहते। साथ ही, आप अपने समकालीनों के प्रति भी एक ज़िम्मेदारी महसूस करते हैं।
वे आपको विदेश से पत्र लिखते हैं और आप उन्हें कुछ पैसे भेजते हैं, यह जानते हुए भी कि वह पैसा लौट कर नहीं आएगा। परंतु बदले में आपको उनकी संगति, भरोसा, स्नेह और सबसे बढ़कर एक समानता का अनुभव मिलता है। इधर धीरे-धीरे और निरंतर आपकी कला निखरती चली जाती है, और एक दिन, वर्षों के सोच-विचार के बाद, जब आपको लगता है कि आपने अच्छा बैंक बैलेंस बना लिया है, सही जगह निवेश भी कर लिया है, और अपनी संपत्ति उत्तराधिकारियों में बराबर बाँट दी है — तब वह क्षण आता है जब आप नौकरी छोड़कर पूर्णकालिक कलाकार बन सकते हैं।
“game 1” by Krishna Khanna
अब जब आप पूर्णकालिक कलाकार बनते हैं, तब तक आप अपने समकालीनों और कला-संग्राहकों के बीच एक प्रतिष्ठित नाम बन चुके होते हैं, आपकी शालीनता और सुसंस्कृत पहनावे के लिए आपको सम्मान भी मिलता है — ऐसे में आपको वह सब छोड़ना कठिन लगता है जो आपने कलाकार के रूप में अर्जित किया है, उन सारी प्रशंसाओं और आदर को त्यागना कठिन होता है, और उन बोहेमियन जीवनशैलियों में उतरना आसान नहीं होता जिन्हें आप कभी बेरोज़गार साथियों को देख कर चाहा करते थे। आपकी कलाकृतियों में गंभीरता होती है, परंतु आप अपने विषयों और उनके दैनिक सरोकारों से थोड़ा अलग हो जाते हैं। आपने सहानुभूति विकसित की होती है, परंतु उसे कैसे अभिव्यक्त करें — यह नहीं जानते। क्योंकि अब चाह कर भी, परिस्थितियाँ आपको इसकी इजाज़त नहीं देतीं।
आप अपनी कृतियों और अपने साथियों के कलाकृतियों को उदासी भरी नज़र से देखते हैं, और उन्हें इस दुनिया से विदा हो जाने के बाद भी प्रसिद्धि की तरफ बढ़ते हुए पाते हैं I और अब आप आश्वस्त होते हैं कि आप प्रसिद्धि के उस शिखर तक उनसे पहले ही पहुँच चुके हैं, क्योंकि आपने सब सोच-समझ कर और रणनीति के साथ किया है। लेकिन अब आपको लगता है कि आपको अब न तो प्रसिद्धि की जरूरत है, न संपत्ति की। अब आप भौतिक सुख-सुविधाओं के पीछे नहीं भागते, क्योंकि अब आप बस यही चाहते हैं कि आपके अंग-प्रत्यंग सही से चलते रहें और पाचन ठीक बना रहे। आप देखते हैं कि लोग आपकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे हैं, क्योंकि आपने पृथ्वी पर एक शताब्दी पूरी कर ली है।
By Krishna Khanna
आप इससे प्रसन्न हैं, और अब सच में कुछ ऐसे काम करना चाहते हैं जो आपके अब तक के किये-धरे को फिर से पहले जैसा कर दे I आप चाहते हैं कि लोग आपकी कलाकृतियों को बाज़ारू उत्पाद बनाना बंद करें, और आपकी चिंताओं की गंभीरता को हास्य के स्तर तक गिराना बंद करें। लेकिन अब चाहकर भी आप इसके लिए कुछ कर नहीं सकते। आप जानते हैं कि पैसा कैसे काम करता है और यह भी समझते हैं कि जब पैसे से नैतिकता को हटा दिया जाता है, तो वह खुद एक उद्देश्य बन जाता है — वह मूल्यहीन शेयरों जैसा हो जाता है, या किसी ऐसी कंपनी के शेयर जैसा जो अब अस्तित्व में है ही नहीं। आप इस पूरे खेल को अपनी थकी हुई आँखों से स्पष्ट देख सकते हैं — जो अब भी मुस्कुराते समय झुर्रियों से भर जाती हैं। आप अपनी पुरानी पाइप उठाकर उसे सुलगाना चाहते हैं, लेकिन वह पाइप अब परिजनों के कब्जे में है, क्योंकि डॉक्टर ने इसे पीने से मना कर रखा है I फिर भी आप अपनी व्हिस्की का थोड़ा-थोड़ा सेवन करते हैं, हर दिन, एक ही तय समय पर — जैसे खुशवंत सिंह किया करते थे।
The Pillars of Society by George Grosz (1926)
अचानक आप सब कुछ नए सिरे से करना चाहते हैं; और कुछ नया करने के लिए पहले वाला सब कुछ पलट देना होगा। इसके लिए आपको वह पुराना, अच्छा समय-संदर्भ फिर से रचना होगा। किसी समय-यात्रा (टाइम ट्रेवल) की तरह? किन्तु आप शायद फिर से विभाजन की पीड़ा नहीं झेलना चाहेंगे, न ही बेदखली का दर्द, और न ही वह नौकरी फिर से करना चाहेंगे जो अच्छा वेतन देती थी। लेकिन आप फिर से उन्हीं में एक बनना चाहते हैं — उन महिमामंडित कलाकारों में से एक । आप वैसी ही कलाकृतियाँ रचना चाहते हैं जैसी उन्होंने रची। आप झुकी हुई देहों वाले न्यूड्स चित्रित करना चाहते हैं और यह दावा करना चाहते हैं कि आपने यह सब देखा है। आप जॉर्ज ग्रॉस की तरह आक्रामकता से चित्रित करना चाहते हैं, लेकिन आपने तो अभी तक मैक्स बेकमैन वाली सौम्यता से चित्र रचे हैं ।
“Paris Society” by Max Beckmann
आप भी उनकी तरह देश छोड़ देना चाहते हैं — जैसे उपनिवेशों से निकले आधुनिकतावादी कलाकार प्रसिद्धि की तलाश में करते थे। आप वहाँ से पत्र लिखना चाहते हैं, पश्चिमी दुनिया के दोहरे मानदंडों की निंदा करते हुए। आप ऐसे घोषणापत्रों पर हस्ताक्षर करना चाहते हैं जो समय बीत जाने पर तुच्छ और सुविधाजनक लगते हैं। आप अपनी पेंटिंग्स को एकटक देखते हैं, और उसी क्षण एक शून्य, एक खाई, आपको देखती है — आपने उन चित्रों को देखा तो है, पर ठीक से पकड़ नहीं पाए — न उनके जीवन को, न उनके दुख को। आपको बाकी किसी से ज़्यादा अल्ताफ, विवान, पटवर्धन, नवजोत और गीव पटेल याद आते हैं। फिर आप मुस्कुरा देते हैं। कमरे के बीच वाली मेज़ पर फूलों के गुलदस्ते जमा होते जाते हैं, और उनका ढेर छत में टंगे झूमर को छूने लगता है — एक छोर फूलों का, दूसरा काँच का — दोनों एकाकार होते हैं।
आपके इर्द-गिर्द खड़े लोग आपकी उस मुस्कान के रहस्य को समझ नहीं पाते।