कोरोना ने जिस तरह देश दुनिया की कला गतिविधियों को लगभग ठप्प सा कर रखा था। उसमें तो एक बार को लगने लगा था कि कला आयोजन, खासकर कार्यशाला जैसे आयोजन का दुबारा शुरू हो पाना; निकट भविष्य में मुश्किल ही है। बहरहाल शुक्र है कि इस भयावह दौर से हम बाहर आ चुके हैं। तो ऐसे में बिहार में भी कला- गतिविधियों की शुरुआत हो चुकी है। पेश है पटना के सिकन्दरपुर गांव में हुई कोरोनाकाल के बाद की पहली कला कार्यशाला पर लेखक/ संस्कृतिकर्मी अनीश अंकुर की एक विस्तृत रिपोर्ट।
पटना से लगभग 30-32 किमी दूर बिहटा अब इंडस्ट्रियल हब बनता जा रहा है । देशभर में बिहटा स्वाधीनता सेनानी और किसान आंदोलन के प्रणेता स्वामी सहजानन्द सरस्वती के कारण जाना जाता रहा है। बिहटा से लभगभ 2-3 किमी पश्चिम यानी बिहटा-आरा हाइवे पर दक्षिण दिशा में बसा हुआ गांव है सिकन्दरपुर। बिहटा से सिकन्दरपुर के रास्ते में कई नई विशाल बिल्डिंगें नजर आती हैं जिसमें नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट फोर्स ( NDRF) , इ. एस. आई.सी हॉस्पीटल प्रमुख हैं। बिहटा में हो रहे नए परिवर्तनों का काफी प्रभाव इस गांव पर स्वाभाविक है। सिकन्दरपुर के के निवासियों की काफी जमीन बिहटा के आसपास हो रहे निर्माण आधारित विकास में चले गए हैं। खेती के रकबे लगातार घाटे में चले जाते रहने के कारण किसानों को भी जमीन देने में कोई खास दिक्कत नहीं होती बशर्ते जमीन की सही कीमत मिले।
सिकन्दरपुर गांव के सबसे उतरी हिस्से जहां गांव समाप्त होता है वहीं एक देवीस्थान है। उस देवीस्थान के पश्चिम पेड़ों से आच्छादित एक भूखण्ड पर पिछले दस दिनों ( 30 अगस्त से 8 सितम्बर) तक कला कार्यशाला का आयोजन किया गया। इस कार्यशाला में पटना आर्ट कॉलेज से प्रशिक्षित तथा अभी देश के विभिन्न कला महाविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की भागीदारी हुई। कला छात्रों के अतिरिक्त कुछ ऐसे कलाकार भी थे जिन्हें आर्ट कॉलेज से पास हुए अर्सा बीत चुका है और अब वे अपनी कला सक्रियता को थोड़े नए ढंग से आकार देने का प्रयास कर रहे हैं। कोरोना काल ने अधिकांश कलाकारों को अपने गांव और घर में लौटने ओर विवश किया। अभूतपूर्व मानवीय त्रासदी से गुजरने के बाद मन पर कैसा प्रभाव पड़ा इसका ठीक से आकलन होने में अभी लम्बा वक्त लगेगा। लेकिन इन कलाकारों ने कोरोना संकट की पृष्ठभूमि में आने स्व था आसपास के विश्व को परिभाषित करने का प्रयास किया। ये सभी कलाकार सिकन्दरपुर गांव में इकट्ठा हुए। इस कार्यक्रम का नाम दिया गया ‘ Let’s Gather ( आइये इकट्ठा हों।) इस गांव के निवासी व कलाकार रमाकांत , जो ‘भगत’ के नाम से मशहूर हैं , द्वारा उपलब्ध कराए गए पेड़ों, पौधों, बांस के झुरमुटों से घिरे घनी छाया वाले चौकोर जगह ( जिसे रंगकर्मी जयप्रकाश ने ने सही ही ‘गाछी’ की संज्ञा से संबोधित किया) पर दस दिनों तक एक साथ मिलकर कला सृजन का एक अनूठा प्रयास किया। इस स्पेस को ‘ओपन स्टूडियो’ के नाम से पुकारा गया।
बिहार में कोरोना काल के बाद सम्भवतः यह पहला ऐसा कला हस्तक्षेप था जिसने न सिर्फ कलाकारों अपितु दर्शकों का भी ध्यान आकृष्ट किया। इन कलाकारों ने पारंपरिक ग्रामीण उपकरणों तथा कुदाल, खंती, खुरपी, हसुआ आदि की सहायता से अपने प्राकृतिक स्थिति में रह रहे भूखण्ड को एक कलात्मक ढंग से परिकल्पित किया। इन कलाकारों ने हर सम्भव कोशिश की कोई बाहरी चीज न उपयोग में लाई जाए। बांस, घास, पेड़ की टहनियां, गिर हुए पत्ते, बिखरी लकड़ियों, विभिन्न आकृतियों वाली पेड़ व पौधों के जड़ों के उपयोग से कुछ ऐसा रचा जो बरबस खींचता था। इसके लिए उस स्थल ओर स्थित कुआं, ईंट, झोपड़ी, खटिया आदि को इस प्रकार एक आकार दिया गया था जिसे अजय पांडे ( पटना आर्ट कॉलेज के प्रिंसिपल) ने ‘ साइट आर्ट ‘ के नाम से पुकारा। साइट आर्ट यानी एक साइट या एक स्थल पर मौजूद सामग्रियों की सहायता से कलात्मक गतिविधि को अंजाम देना।
8 सितम्बर को सिकन्दरपुर में हुए इस कला कार्यशाला के अंतिम दिन आयोजित प्रदर्शनी पर कोरोना काल की स्पष्ट छाप देखी जा सकती थी। न सिर्फ कलाकारों की अवधारणा बल्कि इनके कामों पर भी। कोरोना त्रासदी के पश्चात हमारे सोच-समझ या कहें हमारे बोध में जो परिवर्तन लाया है उसकी झलक ‘ लेट्स गैदर’ में देखी और महसूस की जा सकती है।
जिन कलाकारों ने इसमें हस्सा लिया उसमें प्रमुख है रमाकान्त भगत, राकेश कुमुद, मुकेश, अजीत कुमार, नितेश कुमार रजक, धनन्जय कुमार, विक्की कुमार, प्रमोद कुमाए, धनन्जय कुमार आदि। 30 अगस्त से 7 सितम्बर तक चले इस कार्यशाला में तैयार कृतियों का प्रदर्शन 8 सितम्बर को ‘आर्ट पारामीटर’ और ‘मृण्मय कलेक्टिव’ के तत्वाधान में आयोजित किया गया। यहां रहने के दौरान इन कलाकारों ने बिहटा स्थित सीताराम आश्रम का भ्रमण किया। सीताराम आश्रम भारत के किसान आंदोलन के इतिहास में एक विशिष्ट स्थान रखता है। 1927 में यहीं पर पहली दफे किसान सभा की स्थापना हुई थी । यहीं से फिर किसान आंदोलन ने बढ़ते-बढ़ते 1936 में अखिल भारतीय स्वरूप ग्रहण किया। यदि इन कलाकारों द्वारा तैयार किये गए सृजन को समग्रता में देखें तो कहा जा सकता है कि सभी मानो यह कह रहे हों की अपनी जड़ों, अपनी प्रकृति की ओर लौटो, अपने उस मूल स्वभाव को फिर से पाने का प्रयास करो जो विकास की आपाधापी में कहीं छूट सा गया है।
रमाकान्त भगत :
( पटना आर्ट कॉलेज से बी.एफ.ए 2013-17 तथा
त्रिपुरा विश्विद्यालय से एम.एफ.ए , 2018-2020 )
रमाकान्त भगत ने एक खिड़कीनुमा आकृति को रस्सी के सहारे पेड़ की टहनी से बांध कर स्पेस को कुछ इस प्रकार रचा मानो आप घर के अंदर से बाहर के प्राकृतिक दृश्यों को निहार रहे हैं। घर के बाहर से घर के अंदर झांक रहे हैं दोनों अवस्था में मनुष्य की स्वाभाविक अवस्थिति से साबका होता है। ऐसा घर जो सामानों व उपभोक्ता सामग्रियों से ठूसा न गया हो बल्कि अपने आसपास के पर्यावरण से सहकार महसूस करता है। रमाकान्त अपने इस काम के संबन्ध में बताते हैं ” बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं, बहुमंजली इमारतों की खिड़की से देखी गई दृश्यों में सद्भावना कैसे पनपेगी ? हमने शहर के मकान की खिड़की, बालकनी में गमले के पौधों को ऑक्सीजन देखने के लिए रखा होता है जबकि जंगल में प्रकृति में पेड़ और लताओं के संबन्ध में कितना प्रेम है ! बहुजातीय वृक्ष आपस में कितने उदारता से जीते हैं। “
राकेश कुमुद:
( पटना आर्ट कॉलेज से बी.एफ.ए 2008 -13 तथा
विश्वभारती विश्विद्यालय से एम.एफ.ए 2013-2015 )
राकेश कुमुद ने ग्रामीण जीवन की पहचान मानी जाने वाली खटिया को पेड़ से बांधकर कुछ इस तरह बुना व तैयार किया था जो बरबस देखने वाले का ध्यान आकृष्ट किया करता था। जमीन से खटिया की पारंपरिक ऊंचाई के बदले उसे थोड़ा ऊपर रखा गया था। पेड़ से खटिया का बांधा जाना उसे एक खास अर्थ प्रदान कर रहा था। पेड़, खटिया और उसपर अकुंठ भाव से लेटा हुआ मनुष्य ये तीनों मिलकर कुछ पुरानी स्मृतियों को कुरेदने का अहसास तो कराते ही हैं तनाव, हिंसा व शोर से भरे समय में एक सुकून भरी ज़िन्दगी की चाहत की आकांक्षा को प्रकट करते प्रतीत होते हैं।
अपनी कृति के ठीक बगल में राकेश कुमुद ने एक नया प्रयोग सीताराम आश्रम से स्वामी सहजानन्द सरस्वती तथा कला संबंधी पुस्तकों को रखकर किया। खटिया और पुस्तक का पुराना रिश्ता रहा है। खाट पर लेटकर किताबें पढ़ना हिंदी साहित्य व समाज में एक लोकप्रिय छवि है।
मुकेश कुमार:
( पटना आर्ट कॉलेज से बी.एफ.ए 2014-18 तथा
खैरागढ़ सेएम.एफ.ए, 2019-2021 )
युवा कलाकार मुकेश कुमार ने ‘ओपन स्पेस’ में बांस की झुरमुटों (स्थानीय भाषा में बंसवारी) के बीच से एक सोये हुए मानव आकृति को पत्तों व रस्सी के माध्यम से सृजित करने का प्रयास किया। इस मानव आकृति के हाथ, छाती व पेट के बीच कुछ इस प्रकार रखे गए हैं जैसे कोई व्यक्ति तकलीफ में यंत्रणा झेल रहा हो। एक स्तब्धकारी दुःख की अवस्था में देह का संचालन कुछ बेढंगा या बेतरतीब सा होता है कुछ-कुछ उसी प्रकार।
बांस के पेड़ों के मध्य से पत्तों द्वारा बनाये गए मनुष्य को देखने से एक पुरानेपन का बोध कराता है। उत्खनन में प्राप्त प्राचीन मानव आकृति की तरह के अहसास से गुजरती प्रतीत होती है।
प्रमोद कुमार:
( पटना आर्ट कॉलेज से बी.एफ.ए 2003-07 )
पटना आर्ट कॉलेज के पुराने छात्र रहे प्रमोद कुमार ने ग्राम्य जीवन की परिचित सामग्रियों के सहारे एक छवि रचने की कोशिश की है। हरे बांस, नारियल की रस्सी, बांस के साथ-साथ पेड़-पौधों के छोटे-छोटे सूखी टहनियों के सहारे अपनी कृति को आकार देने का प्रयास किया गया है। भूमि में धंसे एक बांस के टुकड़े के सहारे लंबे, हरे बांस को रखा गया है। एक तरफ झुके हुए हिस्से पर छोटे-छोटे लकड़ी के वैसे टुकड़ो को रखा गया है जो अमूमन जलावन के काम में आते हैं। दूसरी तरफ बांस के छोटे हिस्से को रस्सी से आपस मे पिरोकर रखा गया है। इस ओर बांस हल्का उलार (उठा हुआ ) सा है। इस प्रकार एक ऐसा बिम्ब रचा गया है जो एक सन्तुलन को अभिव्यक्त करता है। ग्रामीण जीवन के खुरदुरे यथार्थ को सामने लाती इस छवि में एक किस्म की हल्की उदासीनता झलकती है। मानो किसान ने लकड़ी के टुकड़े चुनकर रख दिये हैं और आसपास कहीं व्यस्त है। प्रमोद कुमार का सीधा, सहज काम आकर्षित करता है।
अजीत कुमार :
( पटना आर्ट कॉलेज से बी.एफ.ए 2010-15)
तथा एम.एफ.ए 2016-2018 )
अजीत कुमार ने बाकी कलाकारों के वर्टिकल के बजाए हॉरिजॉन्टल स्पेस को चुना। अपेक्षाकृत वृहत क्षेत्र में अजीत कुमार ने ईंट, मिट्टी के लेप, खूंटे और रस्सी की सहायता से कुछ ऐसा सृजन किया जो देखने वाले के मन में खुदाई में निकली मनुष्यों की प्राचीन बसावट का एहसास कराता है। लगभग 10 फ़ीट लंबे व 3 फ़ीट चौड़े क्षेत्रफल में बनाई गई भूमि पर हाथों से किये गए मिट्टी के लेप ने प्राचीन घर में मानो हाथों की समकालीन ऊष्मा से भर दिया हो। मनुष्य, प्रकृति और पर्यावरण के अन्तर्संबंधो के अव्यक्त से संपर्क को अजीत कुमार अभिव्यक्त करते से प्रतीत होता है।
नितेश कुमार रजक:
( पटना आर्ट कॉलेज से बी.एफ.ए (2013-17) तथा
खैरागढ़ से एम.एफ.ए , 2019- 2021 )
नितेश कुमार रजक ने ‘ओपन स्टूडियो’ में मौजूद पेड़ों के हरे रंग के माहौल में लाल रंग को शामिल कर कलर स्कीम में थोड़ी तबदीली की। इससे एक अलग कला अनुभव का अहसास होता है। नितेश ने मकड़ी के जाले सरीखे महीन जाल जो लगभग डेढ़ फीट के रेडियस वाले गोलाकार वृत्तीय स्थल से वर्टिकल लगभग 5 फ़ीट की ऊंचाई तक ले जाया गया। भूमि के वृत्तीय स्वरूप को समतल के बजाय कुछ इस प्रकार बनाया गया था कि एक सिरा हल्का ऊंचा सिरा उसी अनुपात में जमीन में धंसा था। वृत्ताकार भूमि को एक डाएगनल टच दिया गया।
डाएगनल वृत्ताकार के , जमीन में धंसे हिस्से में, वर्षा जल और उसके साथ एक मकड़ी के जालेनुमा लाल रंग का गोलाकार आकृति एक अलहदा किस्म के विजुअल को सामने लाती है। भूमि के टुकड़े को हाथ से हल्का शेप देना, मिट्टी का रंग, बारिश के पानी के गन्दला रंग और लाल बुनावट ये सब किस्म मिलकर आकर्षक दृश्य उपस्थित कर रहा था।
नीतीश कुमार:
( विश्वभारती विश्विद्यालय से बी.एफ.ए 2013-18 तथा
यहीं से एम.एफ.ए , 2018-2020 )
नीतीश कुमार ने स्टूडियो के भूखण्ड में मौजूद एक पुराने कुँए को अपनी कला परिकल्पना का आधार बनाया। कुँए की गोलाई को, वहां उपलब्ध बांस की टुकड़ियों व कमानियों से भर कर एक कृति रचने का प्रयास किया। कुँए के चारों ओर जमी, काई का रंग, सूखे बांस का हल्का पीला रंग, और वहां मौजूद पेड़ों के हरे रंग से मिलकर एक मनःस्थिति को जन्म देती है। बांस की खपचियों ,उनका नुकीलापन , और कुँए के भीतरी व्यास में उसका टँगा होना एक छोर पर हल्की सी जगह जहां से कुँए में झांका जा सकता है। यह सब एक ऐसा दृश्य रचता है जो स्मृतियों व कल्पनाओं को जगाती प्रतीत होती है। इस कलाकृति को देखने से उस बात का अहसास होता है कि हमारे आस-पास बहुत कुछ ऐसा अदृश्य है जिसे एक कलाकार दृश्यमान बना डालता है। इस प्रक्रिया में देखने वाले के अंदर जो रूपांतरण होता है वह कलात्मक आनंद को जन्म देता है।
विक्की कुमार:
( पटना आर्ट कॉलेज से बी.एफ.ए 2014-18
तथा बी.एच .यू से एम.एफ.ए 2019-21)
कार्यशाला में विक्की कुमार की कलाकृति को देखने के लिए नजरें उठानी पड़ती थी। विक्की ने लगभग 14-15 फ़ीट की ऊंचाई पर पतले बांस, लकड़ी के छोटे टुकड़ों तथा रस्सी की सहायता से अपनी अपना काम प्रदर्शित किया। आसानी से मोड़े जाने वाले कमनीय बांस का एक गोलाकार ढाँचा लकड़ी के लंबे आकार के छोटे टुकड़ों को लटकाये हुए है। फिर उसे पेड़ पर ऊंचाई से बांध दिया गया। नीचे से देखने पर कुछ- कुछ आजकल के मध्यवर्गीय घरों में छतों के ऊपर टांगे जाने वाले सजावटी आकृति से मिलती-जुलती है। लेकिन विक्की के काम में एक जो खुरदुरा आयाम है वह ग्रामीण माहौल में एक सौंदर्यात्मक अनुभति कराता है। हवा के चलने या हिलने पर गोलाकार बांस की कमानी में नीचे टँगे लकड़ी के टुकड़ों का आपस मे टकराकर एक मधुर ध्वनि की रचना करते है जो कर्णप्रिय लगता है।
विक्की ने रचनात्मक ढंग से इसे निर्मित कर , देखने वाले के मन में, कौतुहल व आनन्द की अहसास कराता प्रतीत होता है।
धनन्जय कुमार :
( पटना आर्ट कॉलेज से बी.एफ.ए (2008-13) तथा
जामिया मिलिया इस्लामिया से एम.एफ.ए 2019-21)
धनन्जय ने सबसे अनूठा कार्य कार्यशाला स्थल में एक छीटे से हॉलनुमा आकृति बनाकर किया। धनन्जय ने सृजनात्मक कल्पना के सहारे बांस के झुरमुटों में एक स्पेस का इस्तेमाल कर उसे कुछ इस प्रकार बनाया है कि वहां चन्द लोग बैठकर कुछ देख सुन सकते हैं। लकड़ी के एक डंठल के सहारे को खूंटे के सहारे बैठने लायक बनाया गया था। एक छोर पर एल.सी.डी प्रोजेक्टर के सहारे कार्यशाला के दौरान के फुटेज प्रसारित किए जा रहे हैं। कार्यशाला के दौरान अपनी कृति में ध्यानमग्न कलाकार, स्वामी सहजानन्द सरस्वती के ‘मेरा जीवन संघर्ष’ का पाठ करते तथा आपस मे अनौपचारिक संवाद करते नजर आते हैं। ग्रामीण व प्राकृतिक पृष्ठभूमि में निर्मित उस सभागार का अहसास कराती जगह में बैठ आपस में संवाद करना एक अलहदा अनुभव का अहसास कराता है। धनन्जय का यह छोटा रचनात्मक प्रयास देखने वाले को प्रकृति व मनुष्य के बीच के रागात्मक संबन्धों की याद दिलाता है।