अशोक भौमिक की “लिमिनल लाइन्स” शीर्षक रेट्रोस्पेक्टिव प्रदर्शनी 5 अक्टूबर से 15 अक्टूबर तक के लिए बीकानेर हाउस के सीसीए गैलरी में आयोजित की गयी थी I इस प्रदर्शनी के क्यूरेटर थे कलाकार और प्राध्यापक प्रो. राजन श्रीपाद फुलारी और प्रदर्शनी का आयोजन धूमिमल कला दीर्घा द्वारा किया गया था I प्रदर्शनी में अशोक भौमिक के विगत पांच दशक से अधिक की कला यात्रा के चुनिन्दा कृतियों को प्रदर्शित किया गया था I राजधानी समेत देश के विभिन्न हिस्सों से बड़ी संख्या में आये कलाकार एवं कला प्रेमी इस प्रदर्शनी को देखने आये I जहाँ तक शीर्षक की बात है तो “Liminal lines” का शाब्दिक अर्थ यूं तो सन्दर्भ पर निर्भर करता है, पर सामान्यतः यह सीमारेखाओं या संक्रमण बिंदुओं को इंगित करता है — जहाँ एक स्थिति, अवस्था या पहचान दूसरी में परिवर्तित होती है। वहीँ चित्रकला में यह उन दृश्यों या रेखाओं को दर्शाता है जो यथार्थ और कल्पना, भूत और वर्तमान, या देह और आत्मा के बीच के अस्पष्ट क्षेत्र को दिखाती हैं।

वहीँ मानवशास्त्र/दर्शन में विक्टर टर्नर जैसे विद्वानों ने “liminality” को सामाजिक या अनुष्ठानिक संक्रमण की स्थिति बताया है I “liminal lines” इस सीमा को चिह्नित करती हैं जहाँ व्यक्ति या समुदाय एक सामाजिक भूमिका से दूसरी में प्रवेश करता है। अशोक भौमिक की इस प्रदर्शनी में जितने भी चित्र और मूर्तिशिल्प शामिल थे, पहली ही नज़र में वे दर्शकों तक आसानी से अपने कथ्य को संप्रेषित कर रहे थे I वैसे तो अशोक भौमिक चित्रकला के सन्दर्भ में किसी व्याख्या की आवश्यकता नहीं समझते हैं I क्योंकि उनका मत है कि चित्रों को किसी कथानक या व्याख्या से जब हम जोड़ देते हैं तो ऐसी स्थिति में चित्र देखने का आनंद, उस कथा या सन्दर्भ में विलीन हो जाता है I लेकिन इसके बावजूद मैं उनके उन चित्रों की बात करना चाह रहा हूँ, जिसकी मानव आकृतियाँ सामान्य से इतर हैं I
सामान्य मानव आकृति से इतर इन आकृतियों को हम बौना कहकर संबोधित करते हैं I मेरी जानकारी में आधुनिक कलाकारों में से किसी ने भी इन चरित्रों को अपनी कलाकृतियों में शायद ही जगह दी हो I सच तो यह है कि भारत में बौनों (लघु कद वाले व्यक्तियों) की सामाजिक स्थिति अभी भी संवेदनशील और चुनौतीपूर्ण है। समाज में प्रायः उन्हें मनोरंजन या हास्य का पात्र समझा जाता है, जिससे उनके प्रति सम्मानजनक व्यवहार का अभाव दिखाई देता है। शिक्षा, रोजगार और विवाह जैसे क्षेत्रों में भी उन्हें भेदभाव और सामाजिक उपेक्षा का सामना करना पड़ता है। हालाँकि, हाल के वर्षों में जागरूकता, मीडिया और कुछ संगठनों के प्रयासों से बौनों की पहचान केवल शारीरिक भिन्नता तक सीमित नहीं रही है। वे अब कला, खेल, नाटक और सामाजिक कार्यों में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं।

किन्तु इसके बावजूद आवश्यकता इस बात की है कि समाज उन्हें समान अधिकार और अवसर प्रदान करे, ताकि वे अपनी प्रतिभा और व्यक्तित्व को पूर्ण रूप से विकसित कर सकें। वैसे तो हम कहने को तो कह सकते हैं कि बौनों की सामाजिक स्थिति सुधार की दिशा में बढ़ रही है, परंतु वास्तविक समानता के लिए अभी भी लंबा रास्ता तय करना बाकी है। अलबत्ता आधुनिक कला में इनका अंकन या चित्रण भले ही अत्यंत गौण हो, किन्तु भारतीय कला इतिहास में इसका विवरण और अंकन मिलता है I यह अलग बात है कि अधिकांश मामलों में उनका उल्लेख और चित्रण सहायक या प्रतीकात्मक पात्रों के रूप में मिलता है। प्राचीन मूर्तिकला और भित्तिकला में अमरावती, भरहुत और सांची की मूर्तियों में कुछ गण, यक्ष, या भृत्य रूपों में लघु-काय आकृतियाँ दिखाई देती हैं, जिन्हें हम आज के सन्दर्भ में “बौनों” के तौर पर चिन्हित करते हैं I वहीँ एलोरा और अजंता की भित्तिचित्रों में भी देवसभा या राजसभा के दृश्य में छोटे कद के सेवक और संगीतकार दिखाई देते हैं।

अलबत्ता हमारे पुराणों में वर्णित और प्रतीकात्मक कला में वामनावतार (विष्णु का पाँचवाँ अवतार) को भारतीय कला में “बौने” रूप के दार्शनिक और धार्मिक प्रतीक के रूप में दर्शाया गया है I इतना ही नहीं चोल कांस्य मूर्तियों, मध्यकालीन मंदिरों की भित्तियों, तथा राजस्थानी–पाहाड़ी मिनिएचर चित्रों में वामनावतार का व्यापक चित्रण है। यहाँ उनके बौने रूप का चित्रण केवल शारीरिक नहीं, बल्कि ज्ञान और विनम्रता की प्रतीकात्मक व्याख्या के रूप में देखा गया है। इससे इतर हमारे ग्रंथों में जिन यक्षों का विवरण मिलता है उनका चित्रण या अंकन भी लघु आकार में ही किया गया है I रूपविज्ञान (iconography) से अलग हटकर अगर इसे हम भारतीय प्रतीकवाद और धर्म-सांस्कृतिक कल्पना से जोड़ कर देखें तो पाते हैं कि संस्कृत में “यक्ष” शब्द का अर्थ है — संरक्षक, देवदूत या प्रकृति के अधिष्ठाता प्राणी।
ऋग्वेद से लेकर जैन, बौद्ध और हिंदू परंपराओं में यक्षों को वृक्ष, जल, पर्वत या धन–संपदा के रक्षक के रूप में देखा गया है। यानी वे देव और मनुष्य के बीच के मध्य प्राणी (liminal beings) माने जाते हैं — अर्थात न पूर्णतः दिव्य, न पूर्णतः मानव।
साथ ही भारतीय कला में यक्षों का “बौने या ठिगने कद का रूप” उनके आध्यात्मिक और प्रतीकात्मक चरित्र से जुड़ा माना जाता है। चूँकि वे पृथ्वी और भौतिक संपदा के रक्षक माने जाते हैं, अतः उनका शरीर गोल, ठोस और स्थूल दिखाया गया है — जिससे धरातलीय ऊर्जा, स्थायित्व और भौतिकता का बोध हो। यहाँ उनका छोटा कद विनम्रता, अधीनता और सेवा के भाव का भी प्रतीक है — क्योंकि वे देवताओं के सहचर तो हैं, किन्तु उनकी बराबरी के नहीं। यहाँ कला में बौना कद संयमित शक्ति या अंतर्निहित बल का भी संकेत देता है — जैसे छोटे शरीर में छिपा अपार सामर्थ्य।
प्राचीन शिल्पशास्त्रीय ग्रंथों, जैसे विश्वकर्मा शिल्प और मयमतम्, में यक्षों की मूर्तियों का वर्णन “अल्प-शिर, विस्तृत-उदर, स्थूल भुजाओं वाले” के रूप में किया गया है। यहाँ यह उनके स्थूल भौतिक अस्तित्व और भू-देवत्व को मूर्त रूप देता है। भरहुत, सांची और अमरावती की मूर्तियों में यक्षों के लघु, भारी और मांसल शरीर, उभरे हुए पेट और गोल चेहरे उन्हें धरती और समृद्धि से जोड़ते हैं। वे कोषाध्यक्ष, द्वारपाल या वृक्षरक्षक के रूप में दिखाए जाते हैं — अतः उनका ठिगना कद “दृढ़ पहरेदार” की स्थिरता को व्यक्त करता है। भारतीय प्रतीकवाद में “ऊँचाई” को अक्सर आध्यात्मिक उत्कर्ष से जोड़ा जाता है, जबकि “लघुता” को भौतिकता और पृथ्वी से संबंध का द्योतक माना जाता है। इस नज़रिए से, यक्षों की लघु आकृति उनके पृथ्वी से घनिष्ठ संबंध और भौतिक धन–संरक्षण के कार्य का दृश्य रूप है। इस आधार पर यक्षों को बौने कद का दिखाना कोई शारीरिक विकृति नहीं, बल्कि एक गहन प्रतीकात्मक भाषा है। यह उनके भौतिक, भूमिगत और रक्षक स्वरूप का रूपक है — जहाँ ठिगनापन स्थायित्व, समृद्धि और धरती की शक्ति का प्रतीक बन जाता है।

इंडोनेशिया के प्लाओसन मंदिर (Plaosan Temple) में द्वारपाल के रूप में स्थापित यक्ष एक संरक्षक देवता के रूप में दर्शाया गया है। यह मूर्ति बौद्ध-जावानी कला की उत्कृष्ट उदाहरणों में से एक है, जहाँ यक्ष को बलिष्ठ शरीर, विशाल गदा और संरक्षक मुद्रा में दिखाया गया है। द्वारपाल के रूप में यक्ष का यह रूप न केवल मंदिर की रक्षा का प्रतीक है, बल्कि यह धर्म की सीमाओं की रक्षा करने वाले दिव्य प्रहरियों का भी प्रतिनिधित्व करता है। इंडोनेशिया के मध्य जावा क्षेत्र में 9वीं शताब्दी में निर्मित प्लाओसन मंदिर, बौद्ध वास्तुकला और स्थानीय जावानी परंपराओं के समन्वय का उत्कृष्ट प्रमाण है।
अन्य प्राचीन सभ्यताओं में मसलन मिस्र, ग्रीस और रोम में बौनों का उल्लेख मिलता है। मिस्र में उन्हें शुभ प्रतीक माना जाता था, और कई बार राजदरबारों में विशेष पदों पर रखा जाता था। मध्ययुगीन यूरोप में हालांकि बौनों को “दरबारी विदूषक” या मनोरंजन का साधन बनाकर प्रस्तुत किया गया, जिससे उनकी सामाजिक गरिमा को ठेस पहुँची। गुलिवर के यात्रा वृतांत में तो एक ऐसे देश कि भी चर्चा है, जहाँ सिर्फ छोटे कद के लोग ही निवास करते हैं I यह अंग्रेज़ी साहित्य की एक प्रसिद्ध व्यंग्यात्मक रचना का हिस्सा हैं, जिसे जोनाथन स्विफ़्ट (Jonathan Swift) ने 1726 में लिखा था। यह केवल रोमांचक यात्रा-वृत्तांत नहीं, बल्कि समाज, राजनीति और मानव स्वभाव पर गहरा व्यंग्य भी है। कहानी का नायक लेम्युअल गुलिवर (Lemuel Gulliver) एक जहाज़ी डॉक्टर है जो विभिन्न काल्पनिक द्वीपों की यात्राएँ करता है। पहली यात्रा में वह लिलिपुट नामक द्वीप पर पहुँचता है, जहाँ के लोग बहुत छोटे — लगभग छह इंच लंबे — हैं। लिलिपुट में सब कुछ सूक्ष्म आकार का है — घर, जानवर, हथियार, सेना और यहाँ तक कि राजा भी । परंतु उनके अहंकार, राजनीति और सत्ता-संघर्ष उतने ही बड़े हैं जितने धरती के किसी अन्य हिस्से में निवास कर रहे मनुष्यों के होते हैं। दरअसल यहाँ यह एक व्यंग्यात्मक प्रतीक है — जिसके माध्यम से लेखक यह दिखाना चाहता है कि आकार में छोटे होते हुए भी मनुष्य की महत्वाकांक्षा और मूर्खता कितनी विशाल होती है या हो सकती है।

उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में पश्चिमी समाजों में सर्कस और मेलों में बौनों को प्रदर्शन की वस्तु के रूप में दिखाया जाता था। परंतु धीरे-धीरे मानवाधिकार आंदोलनों और चिकित्सा विज्ञान के विकास ने “ड्वार्फ़िज़्म” (Dwarfism) को एक आनुवंशिक या जैविक भिन्नता के रूप में स्वीकार कराया, न कि विकृति के रूप में। आज विश्व के अनेक देशों में बौनों के अधिकारों और सम्मान के लिए संगठन सक्रिय हैं — जैसे Little People of America, Dwarf Sports Association UK आदि। शिक्षा, रोजगार और खेलों में उन्हें समान अवसर देने की दिशा में पहल हो रही है। हॉलीवुड और अन्य मीडिया में भी अब बौनों को केवल हास्य पात्र नहीं, बल्कि सशक्त भूमिकाओं में दिखाया जाने लगा है।
भारतीय चित्रकला, विशेषकर मुग़ल और राजस्थानी मिनिएचर परंपराओं में बौनों को दरबार, उत्सव या नृत्य–संगीत के प्रसंगों में दिखाया गया है। वे प्रायः विदूषक, सेवक या मनोरंजनकर्ता के रूप में चित्रित किए जाते थे, जिससे तत्कालीन समाज में उनकी सीमित सामाजिक भूमिका का संकेत मिलता है। कृष्ण लीलाओं या दरबारी दृश्यों में भी वे हास्य और चंचलता का प्रतीक बनकर उपस्थित रहते हैं। वहीँ यूरोपीय कला की बात करें तो पुनर्जागरण काल की स्पेनिश दरबारी चित्रकला में, विशेषकर डिएगो वेलाज़्केज़ (Diego Velázquez) के चित्रों में, बौनों का यथार्थपूर्ण और संवेदनशील चित्रण मिलता है। वेलाज़्केज़ ने उन्हें केवल मनोरंजनकर्ता नहीं, बल्कि आत्मसम्मान और मानवीय गरिमा वाले व्यक्तियों के रूप में दिखाया।

इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो अशोक भौमिक की कृतियों में इनका चित्रण पुराने तमाम सन्दर्भों और व्याख्यायों से इतर एवं करुणा अथवा हास्य से परे, एक स्वतंत्र अस्तित्व और पहचान के साथ किया गया है। यूं तो अशोक भौमिक के कला संसार में पक्षियों से लेकर पहाड़ और भवन तक, अपने मानवीय संवेदना के साथ रूपायित हैं I यहाँ पेंगुइन का परिवार है तो पहाड़ की धड़कन और चिड़ियों की चहचाहट भी है I एक चित्र जिसकी पृष्ठभूमि में चटख इंडियन येलो (पियरी) का प्रयोग है, हवा में उन्मुक्त उड़ान को उन्मुख दंपत्ति में से पुरुष आकृति के सिर पर एक पक्षी है I उसके नीचे की तरफ एक बच्चा लट्टू नचा रहा है, उस बच्चे के साथ इस आनंद को साझा करता उसका कुत्ता भी है I यहाँ कुत्ता भी सामान्य कद-काठी के बजाय बौना ही है I

एक अन्य चित्र में जहाँ तीन पुरुष और दो स्त्री आकृतियाँ हैं, उसमें दोनों स्त्री आकृति बांहें फैलाये आनंद मग्न हैं I एक स्त्री की हथेली पर एक छोटी सी चिड़िया है, वहीँ उसके बगल की पुरुष आकृति ने हाथों में फिरकी पकड़ रखा है I एक अन्य पुरुष आकृति अपनी कमर से ड्रम बांधे दोनों हाथों से ड्रमस्टिक थामे हुए है I बैठे हुए तीसरी पुरुष आकृति के बगल में एक कुत्ता नृत्य मुद्रा में है, वहीँ कुत्ता और पुरुष दोनों आकर्षक अंदाज़ में एक दुसरे को देख रहे हैं I तीसरे चित्र में दो पुरुष एवं दो स्त्रियों के साथ एक बच्चा है, यहाँ फिरकी एक महिला के हाथ में है I चिड़िया और कुत्ता इस संयोजन का हिस्सा नहीं हैं, किन्तु पार्श्व में वही चटख इंडियन येलो छाया हुआ है I पहले चित्र में जहाँ लाल रंग पात्रों के पोशाक में है, तो अन्य दो चित्रों में इस लाल रंग के साथ हरे रंग की जुगलबंदी है I

दुसरे चित्र के धरातल वाले हिस्से में काले रंग का भी प्रयोग है I चित्रांकन की दृष्टि से लाल, हरा, चटख पीला जैसे रंगों को कुछ इस अंदाज़ में बरतना कि प्रत्येक रंग अपनी स्वतंत्र सत्ता को बरक़रार रखते हुए, एक दुसरे से समन्वय भी बनाये रखे; इसे आसान नहीं समझा जाता है I वहीँ आकृतियों का विरूपण अक्सर जोखिम भरा ही माना जाता है, क्योंकि सामान्य तौर पर हम किसी चीज, वस्तु या आकृति को जिस रूप में देखने के आदी रहते हैं I उसे उसी रूप में देखना हमें भाता है, इससे इतर कोई विरूपित आकृति देखकर बहुधा कुछ अटपटा सा ही लगता है I इसलिए चित्रकला के छात्रों को पहली सीख तो यही दी जाती है कि आप किसी आकृति या वस्तु का हुबहू चित्रण ही करें I और रही बात विरूपण की तो उसे संयोजित कर पाना हमेशा चुनौती पूर्ण ही माना जाता है I

दरअसल रंग, रेखाओं और आकृतियों को साधकर अपनी तरह से रूपायित कर पाने की लालसा भले ही प्रत्येक कलाकार के मन में रहता हो किन्तु उसे साध पाते हैं कोई अशोक भौमिक सरीखे कला साधक ही I स्पष्ट है कि अशोक भौमिक अपने इन चित्रों के माध्यम से समाज के एक बड़े तबके द्वारा लगभग उपेक्षित समझे जाने वाले बौनों की दुनिया को, उतना ही आहलादित, आनंदित और उन्मुक्त दर्शाते हैं जितना किसी सामान्य और स्वस्थ व्यक्ति का संसार हो सकता है या होना चाहिए I
-सुमन कुमार सिंह
