छापा कलाकारों की बात करें तो ऐसा देखा जाता रहा है कि अक्सर इनमें से ज्यादातर तकनीक और संयोजन के किसी खास दायरे तक सिमट कर रह जाते हैं । ऐसे में मधुकर मुंडे का रचना संसार उनकी सृजन फलक की व्यापकता और कलात्मक अभिव्यक्ति के वैविध्य का पर्याय नज़र आता है। इस कलाकार के लगभग चार दशकों की कला यात्रा पर एक नज़र….
प्रिंट मेकिंग या छापा कला की बात करें तो समझा जाता है कि बीसवीं सदी के प्रभाववादी कलाकारों ने अपनी सर्जनात्मक अभिव्यक्ति के लिए इस माध्यम को पहले पहल अपनाया। सर्वकालिक महान कलाकारों में से एक पाब्लो पिकासो ने भी इस माध्यम में काफी कृतियों की रचना की। माना जाता है कि इन्होंने लगभग हजार से ज्यादा कृतियां लिनोकट, वुडकट, एचिंग, ड्राई पॉइंट व लिथोग्राफी माध्यम से तैयार की। उनके समकालीन कलाकारों में जार्ज ब्राक, हेनरी मातिस, जॉन मीरो समेत तमाम कलाकारों ने अपने चित्रों के अलावा ग्राफिक प्रिंटस के माध्यम से अपनी कृतियां कला जगत को दीं। अपने देश में प्रिंट मेकर्स की बात करें तो एफ. एन. सूजा, सोमनाथ होर, सनत कर, के. जी. सुब्रमनयम, ज्योति भट्ट, कृष्णा रेड्डी, कंवल कृष्णा, रिनी धूमाल, जयकृष्णा अग्रवाल, श्याम शर्मा, अनुपम सूद, लक्ष्मा गौड़, अजीत दूबे, देवराज डकोजी व पलानिअप्पन जैसे कलाकारों ने इस माध्यम से रची अपनी कृतियों से भारतीय कला जगत को समृद्ध किया है। यह तो हुयी कला जगत द्वारा इसके अपनाने की बात, वैसे मुद्रण के प्रारंभिक प्रमाण तो यही इंगित करते हैं कि सबसे पहले चीन में लकड़ी के ठप्पे से छपाई की शुरुआत हुयी I किन्तु छपाई के सबसे ठोस प्रमाण के तौर पर पूर्वी तुर्किस्तान की एक गुफा से प्राप्त वह स्क्रॉल है; जिस पर 868 ईस्वी में बौद्ध धर्म के डायमंड सूत्र का मुद्रण किया गया है।
लेकिन इन सबके बावजूद देखने को यही आया कि पिछली सदी के नौवें दशक तक आते-आते भारतीय कला जगत में इस प्रिंट मेकिंग के प्रति रुझान में खासी कमी आती चली गयी । यहाँ तक कि एक ऐसा भी दौर आया जब नए कलाकारों ने इस माध्यम से दूरी बनानी शुरू कर दी । वैसे इसके कारणों की पड़ताल से यह बात भी सामने आती है कि अपने देश में ग्राफ़िक स्टूडियो की कमी को भी एक कारण समझा जा सकता है । हालाँकि कुछ लोग इसका एक अन्य बड़ा कारण मानते हैं, और वह यह कि कला बाजार में इसकी मांग न के बराबर होना। साथ ही बिकने की स्थिति में अक्सर उचित कीमत नहीं मिल पाना भी एक कारण रहा, खरीदार की इस मानसिकता ने भी इस विधा को प्रभावित किया । अलबत्ता पेंटिंग के लिए अपेक्षाकृत कुछ बड़ा बाजार था, ऐसे में कलाकारों ने भी प्रिंट मेकिंग से दूरियां बना लीं । यहाँ तक कि अगर किसी कलाकार की पहचान प्रिंट मेकर या छापा कलाकार के तौर पर थी, तो उसकी कोशिश अपने को चित्रकार साबित करने की होती चली गयी । यहाँ यह सच बहुत पीछे चला गया कि अगर किसी भी व्यक्ति के पास कला दृष्टि संपन्न सृजन क्षमता है तो माध्यम कुछ भी हो न तो उसकी अभिव्यक्ति प्रभावित होगी और न तो रचना या कृति की गुणवत्ता।
वैसे पिछले कुछ वर्षों में एक बार फिर से कलाकारों के एक वर्ग में प्रिंटमेकिंग के प्रति रुझान देखने को मिल रहा है, जो सुखद है । किन्तु इन सब परिस्थितियों के बावजूद हमारे बीच कुछ ऐसे भी कलाकार रहे जिन्होंने छापा चित्रण विधा से अपना जुड़ाव नियमित बनाये रखा । इन्हीं कुछ चुनिंदा कलाकारों में से एक हैं मधुकर मुंडे । संप्रति मधुकर जे.जे. कॉलेज ऑफ़ आर्ट में अध्यापन से जुड़े हैं, जहाँ अगले कुछ वर्षों में उनकी सेवानिवृति संभावित है । देखा जाये तो उनकी यह पारी पूरी तरह उस अध्यापक की रही है जिसकी पहली प्राथमिकता अपने छात्रों की कला दृष्टि को विकसित करने के साथ-साथ चित्र भाषा और तकनीक की बारीकियों से अवगत कराना रहा है । यह अलग बात है कि इस प्राथमिकता के बावजूद मधुकर का कला सृजन रुका या थमा नहीं । और तो और उस मुंबई महानगर, जिसे भारतीय कला बाज़ार का केंद्र समझा जाता है, में रहकर भी कला बाजार की मनमानी शर्तों को दरकिनार किये रहने का जोखिम उठाते रहे हैं । कतिपय यही कारण है कि अपनी तमाम उपलब्धियों और संभावनाओं के बावजूद मधुकर उन नामों में शामिल नहीं दिखते हैं, जो बाजार की पहली पसंद है । वैसे तो इस तथाकथित कला बाजार की सच्चाईयों से हमारा कलाकार वर्ग अनजान नहीं है । फिर भी अगर कुछ बच जाता है तो उसे बड़ी साफगोई से बयां करता वरिष्ठ कला समीक्षक विनोद भारद्वाज का उपन्यास ‘सेप्पकू’ हमारे सामने है ।
प्रिंट मेकिंग की तकनीक की जब बात आती है तो लीनोकट, वुडकट से लेकर एचिंग व लिथोग्राफी से हमारा परिचय कॉलेज के दिनों के समाप्त होते होते हो चूका होता है । लेकिन मधुकर जैसे कलाकार यहाँ भी कुछ अन्य कारणों से अपनी विशेष पहचान रखते हैं, यानि लीनो माध्यम का उपयोग कर एचिंग के विस्कॉसिटी जैसे प्रभाव के लिए । यही नहीं अपनी कृतियों के ज्यामितीय रूपाकार को लेकर मधुकर भी बहुतों से अलग नज़र आते हैं । वैसे तो चित्र रचना में ज्यामितीय रूपाकार का प्रयोग का इतिहास आदिम गुफा चित्रों से ही मिलने लगता है ।लोक कलाओं की बात करें तो वर्ली की चित्रकला का तो आधार ही ज्यामितीय आकृतियां हैं । वहीँ अगर वैश्विक कला इतिहास पर नज़र डालें तो कान्दिस्की की कृतियों में प्रमुखता से ज्यामितीय रूपाकार का संयोजन दृष्टिगत होता है । लेकिन मधुकर यहाँ भी अपने खास जुदा अंदाज़ में नज़र आते हैं, मुझे तो उनकी रूपाकृति की साम्यता अगर कहीं दिखती है तो वह है जापानी ओरिगामी कला में । जिसके तहत कागज़ को ज्यामितीय आकार में तह करके अनूठी कलाकृतियों का सृजन किया जाता है । वैसे इस तकनीक से ज्यादातर फूल और पक्षियों की आकृतियां ही बनायीं जातीं हैं, किन्तु मधुकर के रूपाकार का दायरा मनुष्य से लेकर सम्पूर्ण जीव- जगत तक विस्तृत हैं । इनके रचना संसार की बात करें तो यहाँ छापा चित्रों की प्राथमिकता होते हुए भी यह रेखांकन से लेकर चित्र यानी आयल और ऐक्रेलिक पेंटिंग तक को समाहित किये हुए है । अगर इसे हम कुछ यूं कहें कि मधुकर मुंडे के कला संसार का मतलब है छापा चित्रों से लेकर कला के तमाम विविधताओं का समागम। यहाँ संलग्न हैं मधुकर के कुछ हालिया रेखांकन, जिसे रचा है उन्होंने लॉक डाउन के दिनों में, उम्मीद है कि इस अनूठे कलाकार की इस नियमित सृजन यात्रा की अनवरतता आगे भी बनी रहेगी । जिससे कला जगत को उनके इस कला विविधता का आनंद भविष्य में भी मिलता रहे।