समकालीन मूर्तिकला के बदलते प्रतिमान

विगत वर्षों में कोविड जैसी आपदा ने आम जनजीवन को जिस तरह प्रभावित किया, उसका एक परिणाम यह भी सामने आया कि कला गतिविधियों में लगभग विराम सा आ गया। दिल्ली, मुम्बई जैसे महानगरों से लेकर अपेक्षाकृत छोटे शहरों और कस्बों तक को इसने प्रभावित किये रखा। बहरहाल देखते-देखते अब इसमें कुछ सकारात्मक बदलाव दिखने लगे हैं। कतिपय इसी बदलाव की देन है कि रक्धानी दिल्ली में भी कला-गतिविधियां दिखने लगी हैं। इसी क्रम में दिल्ली की श्रीधराणी कला दीर्घा  में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर कलाकार निवेदिता मिश्रा की एकल प्रदर्शनी “नित्या” की शुरुआत हुयी। प्रदर्शनी के शीर्षक की बात करें तो इसे निवेदिता ने अपने पिता नित्यानंद मिश्रा के नाम पर रखा है। देखा जाए तो इस तरह से यह प्रदर्शनी महिला दिवस पर एक पुत्री द्वारा अपने पिता की यादों को सहेजने जैसा है।

निवेदिता के शब्दों में-” मेरा गाँव रक्षिमुंडा, जहाँ मैंने अपने प्रारंभिक वर्ष बिताए, बोलंगीर जिले में पश्चिमी ओडिशा के दूरस्थ, घने जंगलों वाले आदिवासी अंचल में अवस्थित है। जो अपनी मनमोहक सुंदरता और स्वदेशी कला-परंपराओं के लिए जाना जाता है। कतिपय इन्हीं कारणों से इस पृथ्वी में निहित संस्कार, अनुष्ठान और प्रकृति ने मुझे हमेशा मोहित किया है। उड़ीसा में पलते-बढ़ते मेरी सबसे पुरानी यादों में से एक है अनंत बासुदेव पूजा जो कृष्ण, बलराम और सुभद्रा को समर्पित होती है। मेरी माताजी द्वारा चावल के पारंपरिक पेस्ट का उपयोग करके सात फन वाले शेषनाग का चित्र रचा जाता था। चावल के पेस्ट द्वारा लाल मिटटी पर सफेद रंग की उन रेखाओं से वह प्रतीकात्मक रेखांकन मेरे लिए पहला कलात्मक प्रयोग था। हालाँकि बाद के वर्षों में मैं उन लाल और सफ़ेद रंगों के संयोजन से शिव और शक्ति के समन्वय के महत्व को समझ पायी।”

अब बात आती है इस कलाकार के परिचय की तो निवेदिता यानि निवेदिता मिश्रा ओडिशा की एक कलाकार और मूर्तिकार हैं। जिन्होंने अपनी कला शिक्षा कॉलेज ऑफ आर्ट, नई दिल्ली से मूर्तिकला में पूरी की और स्लेड स्कूल ऑफ फाइन आर्ट, यूसीएल, लंदन से बतौर शोध सहायक जुड़ीं। उड़ीसा ललित कला अकादमी से वर्ष 1998 में राज्य पुरस्कार से सम्मानित निवेदिता ने 1992 में ललित कला अकादमी द्वारा गढ़ी शोध अनुदान और संस्कृति मंत्रालय द्वारा दी गई फेलोशिप के जरिये अपने कला कौशल को निखारा। स्कॉटलैंड में अंतर्राष्ट्रीय स्कॉटिश कार्यशाला (1995), और पोर्टलैंड मूर्तिकला संगोष्ठी (1996) जैसे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय कार्यशालाओं, संगोष्ठियों और निवासों में भागीदारी भी इनके हिस्से आयी। किन्तु इन सबके बावजूद इस मूर्तिकार/ कलाकार का मानना है कि मेरा सर्वश्रेष्ठ आना अभी बाकी है।

बात इस प्रदर्शनी की करें तो पहली नज़र में इसे एक विशाल या भव्य प्रदर्शनी कहा जाना उचित होगा। वैसे सामान्य तौर पर अपने देश में किसी मूर्तिकार द्वारा इस तरह की प्रदर्शनी, जिसके लिए वर्षों या दशकों से तैयारी की गयी हो, देखने को नहीं ही मिलती है। इसके अलावा जो एक और उल्लेखनीय तथ्य इस प्रदर्शनी से जुड़ा है, वह है हमारे पारम्परिक प्रतिमाओं का आधुनिक रूपांतरण। नवग्रह, चौंसठ योगिनी एवं देवी कामाख्या जैसे धार्मिक विषयों या प्रतीकों को लेकर हाल के वर्षों में कोई कला प्रदर्शनी आयोजित हुयी हो, ऐसा तो मुझे याद नहीं आता है। ऐसे में जाहिर है इन विषयों की गहरी समझ, अध्ययन और उसे नए तरीके से प्रस्तुति दे पाना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं कहा जा सकता। हम जानते हैं कि हिन्दुओं के प्रत्येक धार्मिक और मांगलिक अनुष्ठान में अशुभ के विनाश तथा सांसारिक ऐश्वर्य, सुख, समृद्धि, शांति आदि की प्राप्ति के निमित्त गणेश के सामान नवग्रहों की पूजा- परंपरा अति प्राचीन काल से चली आ रही है। ज्योतिष शास्त्र में तो इन नवग्रहों का विशेष महत्व है। मान्यता है कि प्रत्येक मनुष्य पर इन नौ ग्रहों का प्रभाव पड़ता ही है।

Nivedita Mishra With her artworks

इन नौ ग्रहों में सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध, वृहस्पति, शुक्र, शनि , राहु और केतु की गणना होती है। याज्ञवलक्य स्मृति में स्वर्ण, रजत आदि के पट्ट पर नवग्रह की स्थापना कर उनकी पूजा का विधान मिलता है। अपराजितपृच्छा, मतस्यपुराण तथा विष्णु धर्मोत्तर पुराण में भी नवग्रह का वर्णन किया गया है। वैसे कला इतिहास में इन नवग्रहों का अंकन गुप्त काल से मिलने लगता है, किन्तु उत्तर भारत के मंदिरों में कहीं भी इन ग्रहों की अलग-अलग प्रतिमाएं नहीं मिलती हैं। अधिकांश जगहों पर इन्हें एक साथ ही अंकित किया गया है। अलबत्ता दक्षिण भारत में प्रत्येक ग्रह की पृथक प्रतिमाएं अवश्य पायी जाती हैं। वैसे यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि भले ही आज हम नवग्रह को मानते हों, किन्तु हमारे यहाँ अष्टग्रह की अवधारणा भी मिलती है। जिसके अनेक पुरातात्विक प्रमाण देश के विभिन्न संग्रहालयों में मौजूद हैं।

वैसे अपने भारतीय उप-महाद्वीप में मूर्तिपूजा का आरम्भ कब और कैसे हुआ, इसको लेकर कोई एक राय या मत नहीं है। किन्तु हिन्दू या ब्राह्मण धर्म से लेकर बौद्ध और जैन धर्म में भी यह विद्यमान रहा है। यहाँ तक कि ऐसे अनेक देवी-देवता हैं जिनका वर्णन हिन्दू, बौद्ध और जैन धर्म में थोड़े फेरबदल के साथ मिलता है। इन्हीं में से एक हैं योगिनी, जिनके बारे में विवरण मिलता है कि भारतीय उपमहाद्वीप, दक्षिण पूर्व एशिया और ग्रेटर तिब्बत में हिंदू या बौद्ध आध्यात्मिक स्त्री के लिए प्रयुक्त हुआ है। वैसे हिन्दू परंपरा में इन्हें माता पार्वती के विभिन्न रूप के तौर पर मान्यता दी जाती है, भारत के योगिनी मंदिरों में ये चौंसठ योगिनियों के रूप में प्रतिष्ठित है। मान्यता है कि इन योगिनियों की पूजा वैदिक धर्म के बाहर शुरू हुई, शुरुआत में इन्हें स्थानीय ग्राम देवी के तौर पर मान्यता दी गयी। किन्तु बाद में चलकर तंत्र साधना के तहत इन्हें हिन्दू या सनातन परंपरा में समाहित कर लिया गया। योगिनी कौल पर ऐतिहासिक साक्ष्य बताते हैं कि यह प्रथा 10वीं शताब्दी तक हिंदू और बौद्ध दोनों तंत्र परंपराओं में अच्छी तरह से स्थापित हो चुकी थी।

बहरहाल निवेदिता द्वारा इन प्रतिमाओं के अंकन में पारम्परिक मूर्ति शास्त्र के अनुसरण के बजाय आधुनिक व्याख्या का होना ही इस प्रदर्शनी को विशिष्ट बनाता है। चौंसठ योगिनी प्रतिमाओं में सिर्फ चेहरे का अंकन यहाँ हैं, जिसे लकड़ी के पैडस्टल पर एक साथ संयोजित किया गया है। निःसंदेह इस वृहत प्रदर्शनी को समकालीन मूर्तिकला के बदलते प्रतिमानों के तौर पर देखा जाना चाहिए, ऐसा तो कहा ही जा सकता है। इतना ही नहीं इस प्रदर्शनी के माध्यम से निवेदिता समस्त नारी शक्ति का आह्वान करती प्रतीत होती है। जिसके बारे में हम जानते हैं कि इन मातृ देवियों की पूजा परंपरा के प्रमाण तो सिंधु-सभ्यता से ही मिलने लगते हैं। किन्तु देवियों के रूप में इस शक्ति का आविर्भाव ऋग्वेद के देवीसूक्त से मिलता है, जो आगे चलकर अपने सर्शक्तिमान स्वरुप शाक्त सम्प्रदाय के रूप में विकसित होता चला गया।

-सुमन कुमार सिंह  

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