प्रभाविता जो धरा के आभूषण हैं-नीना खरे

ललित लवंग लता परिशीलन कोमल मलय समीरे
मधुकर निकर करम्बित कोकिल कूजित कुंज कुटीरे।
-महाकवि जयदेव

चित्रकार नीना खरे की एकल प्रदर्शनी इन दिनों नई दिल्ली स्थित त्रिवेणी कला संगम के त्रिवेणी दीर्घा में चल रही है। 21 जुलाई से शुरु हुई यह प्रदर्शनी 31 जुलाई तक जारी रहेगी। नीना ने अपनी इस प्रदर्शनी को शीर्षक दिया है ‘प्रभाविता’, इस प्रभाविता शब्द की व्याख्या नीना इन शब्दों में करती हैं -” प्रभाविता जो धरा के आभूषण हैं और उसके उल्लास में जो प्रथम दृष्टया होते हैं, वो वृक्ष ही होते हैं यत्र तत्र फैले हुए। मेरे चित्रों में भी प्रथम दृष्टया वृक्ष ही हैं। चित्रों की प्रभाविता हैं।”

दीर्घा में अपनी कलाकृतियों के साथ नीना खरे

दरअसल यहां प्रभाविता से आशय वांछित परिणाम तक पहुंचने की क्षमता से है। दूसरे शब्दों में, जब यह कहा जाता है कि अमुक कोई कार्य प्रभावी है, तो इसका अर्थ यह होता है कि उस कार्य के परिणाम, वांछित परिणाम के निकट या उससे बेहतर हैं। प्रभाविता की इस कसौटी पर हम नीना की कलाकृतियों को परखते हैं तो पाते हैं कि वाकई अपने चित्रों या कलाकृतियों में नीना ने उस दक्षता को पा लिया है, जो कला का अभीष्ट हो सकता है। अपने इन चित्रों मे नीना ने न केवल प्रकृति को आत्मसात किया है, बल्कि उसे अपनी चित्रभाषा में सार्थक अभिव्यक्ति भी दी है।

कला समीक्षक जयंत सिंह तोमर के शब्दों में – ‘ नीना खरे के चित्रों में वृक्ष एक सघन वितान का रूप लिये दिखते हैं जैसे कोई चंदोवा तना हो। किसी भूदृश्य या लैंडस्केप से इतर यह तरुवर का ‘क्लोज-अप’ है। पृष्ठभूमि बदलती जाती है। कहीं नीली, कहीं हरी तो कहीं किसी और रंग में। रवीन्द्रनाथ टैगोर ने जिसे ‘अरण्य की संस्कृति’ कहा है, ये चित्र उस संस्कृति पर छा रहे संकट की ओर ही इंगित नहीं करते, बल्कि संकट का समाधान भी सुझाते हैं। ठीक यही काम साहित्यकार अज्ञेय ने ब्रजमंडल से द्वारका तक भागवतभूमि यात्रा निकालकर किया था। अनीश्वरवादी होते हुए भी यह किसी का साक्षा सौन्दर्यबोध हो सकता है। नीना खरे के कैनवास पर अंकित वृक्ष हमें रूपमती के नगर मांडू में जहाँ तहाँ नज़र आते गोरख इमली या बाओबाब की भी याद दिला सकते हैं और कवयित्री तोरु दत्त के प्रिय कैजुरीना वृक्ष की भी। कैजुरीना का वह पेड़ जाने कहां रहा होगा जिसे देखकर कवयित्री को अपना बचपन और बिछड़ा हुआ भाई याद आता है। विद्यानिवास मिश्र ने जिस तरह विंध्य के चचाई प्रपात को ग्रीष्म, वर्षा और शीत जैसे अलग-अलग ऋतुओं में देखा, नीना खरे के चित्रों में वृक्षों का पतझड़, बसंत और बहार आर्किमबोल्दो की हर ऋतु की फसलों के मानवीकरण की तरह दर्शक को दिखाई दे सकती हैं। नीना खरे का शैशव बुन्देलखण्ड के पन्ना में बीता। जितने देवालय और जितने घने वन पन्ना में है उतने कम ही कहीं होंगे। नीना जी के अवचेतन में बसे यह वन एक गहरी प्रशांति का बोध हमें कराते हैं।’

हम जानते हैं कि यूं तो दुनिया की सभी सभ्यताओं में वृक्ष एवं पर्यावरण को विशेष महत्व दिया गया है। किन्तु भारतीय संस्कृति तो विशेष तौर पर वृक्ष-पूजक संस्कृति है। वृक्षों में देवत्व की अवधारणा औरउसकी पूजा की परंपरा हमारे देश में प्राचीन काल से चली आ रही है। वैदिक काल की बात करें तो हम पाते हैं कि वेदों और आरण्यक ग्रंथों में प्रकृति की महिमा का सर्वाधिक गुणगान है। इतना ही लोकजीवन में भी वृक्षों को लोक-देवता का दर्जा दिया गया है। यक्ष परंपरा की बात करें तो इन अद्र्ध-देवताओं को प्रकृति और पर्यावरण के रक्षक के तौर पर ही वर्णित किया गया है। वैसे वृक्षों में देवत्व की अवधारणा का उल्लेख वेदों के अतिरिक्त प्रमुख रूप से मत्स्यपुराण, अग्निपुराण, भविष्यपुराण, नारदपुराण, रामायण, भगवद्गीता और शतपथ ब्रााह्मण आदि ग्रंथों में मिलते हैं। इतना ही नहीं वेद-पुराण से लेकर सूफी-साहित्य, आगम ग्रंथों, पंचतंत्र, जातक कथाओं, कुरान, बाइबिल, गुरुग्रंथ हो या अन्य कोई धार्मिक ग्रंथ सभी में वृक्षों के लोक मंगलकारी स्वरूप का वर्णन मिलता है।

प्रदर्शनी में कलाकृतियों को निहारते रघु ठाकुर

कला इतिहास की बात करें तो अजंता के गुफाचित्रों से लेकर सांची के तोरण स्तंभों की विभिन्न आकृतियों में वृक्ष-पूजा के अनके प्रसंग मिलते हैं। भारतीय लघुचित्रशैली की बात करें तो अधिकांश कलाकृतियों में प्रकृति के मनोहारी स्वरूप का अंकन मिलता ही है। अलबत्ता यूरोप की तरह लैंडस्केप या भूदृश्य अंकन की अलग से कोई परंपरा यहां भले नहीं दिखती है। किन्तु राजा-रानी से लेकर राधा-कृष्ण के प्रसंगों तक के चित्रण में वृक्षों और लताओं का चित्रण लगभग अपरिहार्य सा दिखता है।

वरिष्ठ कलाकार/ कला समीक्षक अशोक भौमिक एवं नीना खरे

अपनी कलात्मक अभिव्यक्ति में नीना भारतीय चित्र परंपरा का अनुसरण तो करती हैं, किन्तु अपनी अकादमिक कला शिक्षा की छाप को साथ रखते हुए। उनकी कलाकृतियों में लघुचित्रशैली वाली लयात्मक रेखाएं हैं तो रंगों को लेकर आधुनिक प्रयोग भी स्पष्ट परिलक्षित हैं। उनकी कलाकृतियों में वृक्षों के लिए हरा, नीला और पीला की छटा तो है ही लाल रंग की आभा भी है। जो जाने-अनजाने किसी पलाश वन की याद दिलाती है। सिल्क पर किए गए उनके रेखांकन भी परंपरागत सिल्क टेंपरा से अलग हटकर हैं।

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