अरस्तू के अनुसार सौन्दर्य आकांक्षा, वासना और उपयोगिता से ऊपर की वस्तु है तथा सुन्दर वस्तु में क्रम, समानता तथा निश्चितता विद्यमान होती है। किसी भी वस्तु, चित्र या काव्य आदि का निर्माण विभिन्न अंगों द्वारा किया जाता है तथा इन अंगों में एक व्यवस्था एवं सामंजस्य के साथ ही एक निश्चित आयाम या विस्तार का होना भी आवश्यक है, इसलिए सौन्दर्य उचित आयाम और व्यवस्था से ही उत्पन्न होता है अर्थात निर्मित विषयवस्तु इतनी छोटी न हो कि वह दृष्टि से दिखाई ही न पड़े और दूसरी ओर इतनी बड़ी भी न हो कि दृष्टि-सीमा में समा ही न सके। जिस प्रकार लघुत्तम जीव सुन्दर नहीं लगता, उसी प्रकार वृहत्तम जीव भी सुन्दर नहीं लगता, क्योंकि दोनों का रूप स्पष्ट नहीं हो पाता। इनकी सम्पूर्णता दृष्टि-सीमा में नहीं आ पाती। नाटक के कथानक का आयाम भी निश्चित होना चाहिए, जो स्मरण-शक्ति की सीमा में धारण किया जा सके। इस प्रकार सौन्दर्य की तीन विशेषताएँ निर्धारित होती हैं- निश्चित आयाम, सन्तुलन तथा सामंजस्य।– डॉ. ममता चतुर्वेदी की पुस्तक ‘सौन्दर्यशास्त्र’ से..
अरस्तू द्वारा दी गई इस परिभाषा या व्याख्या के आधार पर अगर आप प्रमोद प्रकाश के हालिया रेखांकनों की बात करें तो, वह सौन्दर्य शास्त्र की इस व्याख्या से बिल्कुल इतर नजर आता है। यानी प्रमोद प्रकाश की कलाकृतियां अरस्तू द्वारा प्रतिपादित सौंदर्य की उपरोक्त विशेषताओं का पालन करती नहीं दिखती हैं। अब ऐसे में सवाल उठता है कि क्या प्रमोद प्रकाश की कलाकृतियां सौन्दर्यबोध की दृष्टि से खारिज करने लायक है? या अरस्तू द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत आज बेमानी हो चुके हैं?

अगर मेरी मानें तो प्रमोद प्रकाश के हालिया रेखांकन आज के समकालीन यथार्थ का प्रतिबिम्बन है। जहां पुरानी सारी मान्यताएं टूट कर बिखर रहीं हैं। आखिर लगभग चार सौ ईसा पूर्व और इक्कीसवीं सदी के सौन्दर्य बोध में इतना अंतर क्यों कर आ गया? तो इसका उत्तर तो यही हो सकता है कि आज की समकालीन कला में सौंदर्य बोध से ज्यादा प्राथमिकता अपनी अभिव्यक्ति में निहित वैचारिकता की हो चली है। और शायद हमारे समय की यही मांग भी है। जाति, धर्म, संप्रदाय और नस्ल के आधार पर विभेद की प्रवृतियां आज तीव्रतर हो चली हैं।

बावजूद इसके कि हमने इक्कीसवीं सदी के लिए ग्लोबल विलेज का नारा गढ़ा था। और इसके साथ ही सपना देखा था कि हजारों वर्षों से चली आ रही तमाम कुरीतियों से हम अपने आप को मुक्त कर एक नया परिवेश गढ़ेंगे। जहां जाति, धर्म और नस्लभेद जैसी बातें बेमानी लगने लगेंगी। इतना ही नहीं विज्ञान और तकनीक की इस दुनिया में न तो सभ्यताओं के संघर्ष की कोई गुंजाईश होगी और न तो युद्ध जैसा कोई अभिशाप मानवता को झेलना पड़ेगा। किन्तु आज हम इस बात से भलीभांति वाकिफ हैं कि ऐसा कुछ हो नहीं पाया। उल्टा अमीर- गरीब की खाई बढ़ती चली जा रही है। मध्यकाल का कबीलाई संघर्ष आज की राजनैतिक प्रतिद्वन्दिता में बदल चुका है। जहां किसी दूसरे या अपने विरोधियों को देने के लिए घृणा और द्वेष के सिवा कुछ भी नहीं है।

धार्मिक और जातीय कट्टरता की धार दिन ब दिन तीक्ष्ण होती जा रही है। मानवीय संवेदना की स्थिति तो यह है कि अपनी प्रेमिका या पत्नी को मारकर फ्रीजर में डाल दिया जा रहा है। या विरोधियों को जिन्दा जला दिया जा रहा है। तमाम देश गृहयुद्ध की आग में जल रहे हैं। अपने आपको महान लोकतांत्रिक मानने का दावा करने वाले अमरीका में भी नस्लीय भेदभाव के क्रुरतम उदाहरण सामने आते रहते हैं। ऐसे में कोई संवेदनशील कलाकार अपनी अभिव्यक्ति में इस विरोधाभास को जिस रूप में चित्रित कर सकता है, प्रमोद प्रकाश भी वही कर रहे हैं। उनके चित्र मानव मन की उस छटपटाहट को रेखांकित करते हैं, जो हमारे इर्द-गिर्द के परिवेश की देन हैं।

कहा जाता है कि जब द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाजियों ने पेरिस को अपने कब्जे में ले लिया था। पिकासो के पेरिस वाले अपार्टमेन्ट में एक दिन खुफिया गेस्टापो पुलिसवाले आ घुसे। उन्होंने कमरे की दीवार के सहारे खड़ी पेंटिंग ‘गुएर्निका ’ को देखा जिसमें स्पेनिश गृहयुद्ध के दौरान जर्मन लड़ाकू विमानों द्वारा बास्क राजधानी पर बमबारी का चित्रण किया गया है । एक पुलिस अधिकारी ने गुएर्निका को देखकर पिकासो से पूछा – “ये तुम्हारा काम है?” पिकासो ने कहा – “ नहीं, ये तुम्हारा काम है”।

वैसे प्रमोद प्रकाश की कृतियों को देखकर जीन मिशेल बास्किया का नाम एकबार जरूर प्रतिध्वनित होती है, और आंखों के सामने उनकी कलाकृतियां उपस्थित हो जाती हैं। उन कलाकृतियों में जो विद्रोह की जो भावना या विसंगतियों के प्रति आक्रोश की गूंज सुनाई देती है। कुछ वैसा ही अहसास प्रमोद प्रकाश के रंगीन रेखांकनों में दृष्टिगत है। प्रमोद बडोदा कला संकाय के छात्र रहे हैं, अगर वे चाहते तो मौजूदा कला-बाजार के अनुकूल चित्र रच सकते थे। किन्तु प्रमोद ने यह रास्ता क्यों नहीं चुना ? यह तो वही बता सकते हैं। क्योंकि बिहार का कला जगत उनके उन संघर्षों से भी वाकिफ है, जो उनके हिस्से बाजार से समझौता नहीं करने की वजह से आया। वैसे प्रमोद एक तरह से मेरे ग्रामीण भी हैं, क्योंकि हमारे घरों के बीच का फासला महज एक से डेढ किलोमीटर का ही है; और ग्रामीण समाज में आज भी इस दूरी को पड़ोस ही माना जाता है।
बहरहाल प्रमोद लगातार नियमित तौर पर चित्र रचना कर रहे हैं। यह बात मुझे कुछ ज्यादा प्रभावित करती है। ऐसे में मेरा विश्वास है कि एक दिन प्रमोद अपनी कला से देश के कला जगत में अपनी मुकम्मल पहचान हासिल कर ही लेंगे। क्योंकि वे समाज की विद्रुपताओं और विसंगतियों को जिस तरह से रूपायित कर रहे हैं, उसकी अनुगूंज समाज के संवेदनशील तबके तक अपनी पहुंच जरूर बनाएगी। शुभकामनाएं…