वैचारिकता और परंपरा का समन्वय 

दिशा रवि, निकिता जैकब व ग्रेटा थनबर्ग भले ही मौजूदा किसान आंदोलन के लिए चर्चा में हों, किन्तु इनकी मूल पहचान पर्यावरण कार्यकर्ता की ही है। इनकी उपलब्धि की बात करें तो पर्यावरण संकट के प्रति दुनिया भर में चर्चा और चिन्ता के समावेश को माना जा सकता है। अब यह अलग बात है कि हमारा शहरी व महानगरीय समाज का एक बड़ा हिस्सा भले ही इन चिन्ताओं के प्रति अब भी लगभग लापरवाह नजर आ रहा हो। किन्तु ग्रामीण खासकर जनजातीय समाज सदियों से अपने पर्यावरण के प्रति सजग और संवेदनशील रहा है और आज भी है। दरअसल हमारा शहरी या तथाकथित सभ्य अथवा विकसित समाज प्रकृति और पर्यावरण को अपनी दासी बनाने की मानसिकता में जीता है। जबकि ग्रामीण खासकर जनजातीय समाज अपने जीवन शैली को प्रकृति और पर्यावरण के अनुकूल बनाए रखना पसंद करता है।

बहरहाल कला की दुनिया की बात करें तो हमारे बीच कई ऐसे कलाकार हैं जो प्रकृति से जुड़ाव के साथ साथ पर्यावरण संरक्षण के प्रति अपनी कला के माध्यम से जागरूकता फैलाने में विश्वास रखते हैं। अब यह अलग बात है कि हमारे महानगरीय समाज में कला के प्रति रूझान और समझ का उतना ही अभाव है जितना पर्यावरण चेतना के। किन्तु रंजीत कुमार जैसे कलाकार इससे हतोत्साहित होने के बजाय अपने कला कर्म को निरंतरता से जारी रखे रहते हैं। रंजीत स्वयं भले ही जनजातीय समाज से नहीं आते हों किन्तु झारखंड की माटी से अपने जुड़ाव के लिए जाने जाते हैं। वैसे उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि आज भी कृषक समाज वाली ही है। कतिपय इन्हीं कारणों से पटना एवं लखनऊ के कला महाविद्यालय से ललित कला की औपचारिक शिक्षा के बावजूद किसी महानगर को अपना ठिकाना बनाने के बजाय बोकारो जैसे छोटे शहर को उन्होंने अपना रखा है। ताकि अपने समाज और शहर की माटी से खुद को जोड़े रख सकें। वैसे किसी फ्रीलांस कलाकार के लिए रोजी रोटी के ख्याल से छोटे शहर मुफीद नहीं समझे जाते हैं, उस पर भी अगर वह शहर बिहार या झारखंड जैसे राज्य में हो। क्योंकि दावे जितने भी किए जाते हों सच्चाई यही है कि न तो यहां के समाज में कला के प्रति अपेक्षित जागरूकता है और न तो स्थानीय सरकारों के लिए यह खास महत्व का विषय है। बावजूद इसके कि नारों और वादों में कला- संस्कृति की बड़ी-बड़ी बातें अक्सर कर ली जाती है। तो ऐसे में बोकारो जैसी जगह में रहते हुए अपने कलाकर्म को जारी रखना कितनी बड़ी चुनौती है इसे आसानी से समझा जा सकता है। इन सबके बावजूद रंजीत न केवल अपना कलाकर्म जारी रखे हुए हैं समय समय पर कला गतिविधियां भी आयोजित करते ही रहते हैं। हालाँकि इसके लिए उन्हें राज्य के संस्कृति मंत्रालय का चक्कर लगाने पड़ते हैं, तब जाकर कहीं कोई कार्यक्रम हो पाता है।

रंजीत कुमार वैसे तो अपने रंगीन चित्रों के लिए जाने जाते हैं किन्तु इन दिनों श्वेत श्याम रेखांकनों की अपनी श्रृंखला से कला प्रेमियों को रूबरू करा रहे हैं। इन रेखांकनों की चित्र भाषा पहली नजर में आकृतिमूलक सी दिखती है, किन्तु आकृतियां यहां अपनी विशिष्ट लयात्मकता के साथ नजर आती हैं। यह लयात्मकता आकृतियों के निरूपण से लेकर उसके संयोजन तक में बरकरार दिखती है। जहां तक रंगीन चित्रों की बात है, लयात्मकता का वही जादू यहां रंगों की जुगलबंदी में कुछ और निखर आया है। इन आकृतियों में यूं तो जनजातीय समाज से जुड़े चेहरों या रूपाकृतियों की प्राथमिकता है किन्तु प्रकृति से समन्वय भी यहां स्पष्ट तौर पर बरकरार है। समकालीन कला के मौजूदा चलन की बात करें तो इस दौर को वैचारिक प्रधानता के लिए जाना जाता है। साथ ही प्रस्तुतिकरण में नवीनता या अनूठेपन को भी प्राथमिकता मिलने लगी है। इस लिहाज से रंजीत की प्रस्तुति में तो पारंपरिकता का ही निर्वाह दिखता है, किन्तु इसके बावजूद वैचारिक धरातल पर यह प्रेक्षक या दर्शक को ज्यादा प्रभावी ढंग से आकर्षित करता है। एक और बात जो रंजीत की कलाकृतियों को विशेष बनाती है वह है कला के अकादमिक व्याकरण को अपनाए रखने की। क्योंकि अक्सर देखा गया है कि प्रस्तुति की नवीनता के चक्कर में कई बार कलाकार अकादमिक व्याकरण से काफी परे चला जाता है। वैसे देखा जाए तो रंजीत कुमार की कलाकृतियां अपनी व्याख्या खुद से करने में सक्षम है, अत: शब्दों में उलझने से बेहतर है कि आप स्वयं उसका रसास्वादन करें।

-सुमन कुमार सिंह
कलाकार/कला लेखक

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