5 जुलाई: 86वें जन्म दिवस के बहाने
किसी कलाकार का जीवन आम जीवन से बेहद अलग होता है। मनुष्य होना उत्तम है लेकिन कलाकार होना अति उत्तम है यह मनुष्य का भी परम सौभाग्य होता है। क्योंकि एक इंसान अपनी आयु को जीता है और मृत्यु के बाद लोप सा हो जाता है लेकिन एक कलाकार चिरकाल तक जीवित रहता है, यह उसकी कला उसकी रचना ही होती है जो उसे जीवित रखती है। कहते हैं कि कला उतनी ही पुरानी है जितना कि मनुष्य। जब व्यक्ति कला से जुड़ता है तो वह सभ्य के श्रेणी में आ जाता है। कलाएं और सभ्यताएं समानांतर चलती रहीं हैं। जहां कला रची बसी होती है वही देश या प्रांत सभ्य माना जाता है। ऐसे ही एक कलाकार की बात हम करने जा रहे हैं जो अब अपनी कृतियों के माध्यम से हम सबके बीच हैं और सदा रहेंगे।

उत्तराखण्ड जहाँ कला उसकी संस्कृति का हिस्सा है। इसी स्थान पर एक कलाकार का जन्म हुआ था जिन्हें मुहम्मद सलीम के नाम से जाना जाता है। पहाड़ का हर इक लम्हा,वातावरण,लोग, मौसम,वादिया सब उनकी कला में बसा हुआ है।
चित्रकार मो. सलीम एक प्रसिद्ध अनुभवी भारतीय चित्रकार थे, जिनका जन्म 5 जुलाई 1939 को अल्मोड़ा में हुआ था। वे अपनी कला में पहाड़ और कुमाऊँ क्षेत्र के जीवन को दर्शाने के लिए जाने जाते थे। जिन्होंने भारतीय कला में महत्वपूर्ण योगदान दिया। मो. सलीम ने लखनऊ कला एवं शिल्प महाविद्यालय में शिक्षा ग्रहण की। 1959 में ललित कला में डिप्लोमा और 1960 में पोस्ट डिप्लोमा किया। लखनऊ कला महाविद्यालय में ललित मोहन, वीरेश्वर सेन, गिरीश्वर सिंह, मदन लाल नागर, राम वेज, श्रीधर महापात्रा जैसे प्रख्यात कलाकारों से शिक्षा ली I वहीं रणवीर सिंह बिष्ट जैसे कलाकारों के साथ शिक्षण कार्य भी किया। मो. सलीम 1961 में पंत विवि, पंतनगर में बतौर ग्राफिक आर्टिस्ट कार्य करने लगे। मो. सलीम का पहाड़ के प्रति विशेष लगाव था, उनकी कला में कुमाऊं के समसामयिक जनजीवन का प्रभाव और लखनऊ की विशेष तकनीक का हुनर था। वह कहा करते थे कि समय को पकड़ना तो कलाकार की बड़ी जिम्मेदारी है।
उन्होंने पहाड़ की लोक जीवन शैली को हूबहू कैनवास पर उतारा था। यहां की पर्वत शृंखलाएं, लोक आभूषण में स्त्री आकृतियां, अल्मोड़ा के पुराने भवन और बाजार, ग्रामीण दृश्य आदि उनकी तूलिका के शृंगार रहे हैं। मो. सलीम को 1995 में राज्य ललित कला अकादमी पुरस्कार, 2000 में उत्तरांचल कला पुरस्कार, मोहन उप्रेती लोक संस्कृति कला एवं विज्ञान शोध समिति आदि द्वारा पुरस्कार मिले थे।और उनकी कला में इस क्षेत्र की सुंदरता और जीवनशैली का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता था। उन्होंने अपनी कला में लोक जीवन, संस्कार, लोक कला, त्यौहार और पहाड़ के सामाजिक जीवन को चित्रित किया। मो. सलीम ने अपनी कला यात्रा में समय के साथ-साथ विकास किया और विभिन्न शैलियों और विषयों को अपनाया। उन्होंने न केवल पारंपरिक भारतीय कला का प्रदर्शन किया, बल्कि पश्चिमी कला के तत्वों को भी अपनी कृतियों में शामिल किया।
अल्मोड़ा में जन्म होने के कारण उनकी कला पर बचपन से ही यहां के सौंदर्य का प्रभाव रहा। मो. सलीम अपनी कला यात्रा में हमेशा समय के साथ चलते रहे। कुमाऊँ के वास्तविक लोक जीवन शैली पर उनके बने चित्र समाज और जीवन को हुबहू कैनवास पर उतार देते थे। उनकी कला में लोक जीवन, संस्कार, लोक कला, त्यौहार आदि का भी विशेष प्रभाव दृष्टिगोचर होता है, कुमाऊं के लोक उत्सव, जीवन की सांझ, तीज त्यौहार, हुड़किया बोल की रोपाई, और यहां की पर्वत श्रृंखलाएं, लोक आभूषण में स्त्री आकृतियां, अल्मोड़ा के पुराने भवन व बाजार, ग्रामीण दृश्य, आदि अनेक चित्र उनकी तूलिका के श्रृंगार रहे हैं। कला जगत में काला रंग का प्रयोग आम तौर पर कलाकार अपनी कला में नहीं करते है । कहा जाता है कि काला रंग भावात्मक दृष्टि से सही नही होता है। लेकिन मो. सलीम ने अपनी कला में इस मिथक को भी तोड़ डाला।
वह इंग्लैंड के प्रसिद्ध जल रंग चित्रकार सर विलियम रसल फिलन्ट के प्रयोगों से प्रभावित थे। मो. सलीम बताते थे कि जब वे छोटी कक्षाओं में पढ़ा करते थे तो स्लेट या पत्थरों के ऊपर कोयलों से चित्र बनाते थे, लेकिन लखनऊ कला विद्यालय ने उनके मस्तिष्क की परतें खोल दी और उनकी कल्पना शक्ति को नए आयाम प्रदान किए। 2022 में, 83 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया, लेकिन उनकी कला आज भी लोगों को प्रेरित करती है।
- भूपेन्द्र कुमार अस्थाना
सौजन्य : सोशल मीडिया, गूगल, चैट जी पी टी