निःसंदेह आज की तारीख में सुबोध गुप्ता अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चित और चिन्हित ख्यात कलाकार हैं I किन्तु बहुत कम लोग इस बात से वाकिफ हैं कि अपने प्रारंभिक दिनों में उनकी प्राथमिकता रंगमंच रही है I यहाँ तक कि अगर यह कहा जाए कि आज के कलाकार सुबोध गुप्ता को गढ़ने में स्थानीय रंगमंच का बड़ा योगदान रहा है, तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी I बिहार म्यूजियम, पटना में चल रही उनकी एकल प्रदर्शनी की इस विस्तृत रपट के इस भाग में अनीश अंकुर से जानिये कला महाविद्यालय, पटना में सुबोध गुप्ता के प्रारंभिक दिनों और उससे पहले की दास्तान….
प्रारंभिक जीवन :
सुबोध गुप्ता का जन्म पटना से दस-बारह कि.मी. पश्चिम खगौल में हुआ। पटना शहर के पश्चिमी हिस्से के विस्तार ने इस इलाके और दानापुर को अब न्यू पटना में तब्दील कर दिया है। सबसे अधिक जमीन की बिक्री और मकानों का निर्माण इन दिनों इसी भाग में हो रहा है।
मात्र बारह वर्ष की उम्र में पिता का साया उठ जाने के कारण सुबोध गुप्ता के परवरिश की जिम्मेवारी उनकी मां पर आ पड़ी। कला से उनका साबका रंगमंच के माध्यम से शुरू हुआ। खगौल की चर्चित रंग संस्था ‘सूत्रधार’ से उनका जुड़ाव था। कस्बाई शहर खगौल रेलवे का एक प्रमुख केंद्र है। यहां डी.आर.एम का कार्यालय है। खुद सुबोध गुप्ता का परिवार रेलवे से जुड़ा रहा है। उनके पिता (रेलवे गार्ड), दोनों बड़े भाई और बहनोई रेलवे में नौकरी किया करते थे। रेलवे के प्रमुख केंद्र की मौजूदगी के कारण बंगाली समुदाय की भी खगौल में खासी उपस्थिति थी। इन्हीं बंगालियों के कारण मनोरंजन के दो माध्यमों- रंगमंच और फुटबॉल- से खगौल का परिचय हुआ। विदित हो कि खगौल में कई सक्रिय नाट्य मंडलियां हैं। जहां नियमित थियेटर होता है।
बीसवीं शताब्दी का आठवां दशक बेहद हलचलों और सरगर्मी भरा सृजनात्मक दशक माना जाता है। सुबोध गुप्ता इसी दौर में नाटक करने वाली संस्थाओं के पोस्टर बनाते और सेट डिजाइन किया करते थे। सुबोध गुप्ता के उस दौर के पोस्टरों में एन.सी.घोष इंस्टीट्यूट का नाम आता है। इसी एन.सी. घोष इंस्टीट्यूट (दानापुर रेलवे स्टेशन के ठीक सामने) में, इस दौर के, सभी नाटकों के मंचन हुआ करते थे। पर इधर कई वर्षों से यह भी बंद है। खगौल से बिहटा तक बनने वाले पुल के कारण इस एन.सी.घोष इंस्टीट्यूट को ध्वस्त किया जाना है।
इस दौर के जिन नाटकों में सुबोध गुप्ता ने अभिनय किया था उनमें ‘सूत्रधार’ संस्था से जुड़े बकौल वरिष्ठ रंगकर्मी नवाब आलम के अनुसार ‘‘‘काठ का उल्लू’, ‘शिल्पी’, ‘पोस्टर’, ‘महेश’ , ‘जुलूस’ , ‘कुंभनिद्रा’ और ‘एक था गधा’ आदि प्रमुख हैं।’ इन नाटकों के साथ सुबोध गुप्ता ने इलाहाबाद, जमशेदपुर, रामपुर जैसी जगहों की यात्रायें भी की। एन.सी.घोष इंस्टीटयूट के बंद हो जाने के बाद अब मंचीय प्रस्तुतियां बहुत कम होती हैं, नुक्कड़ नाटक अधिक होते हैं। नुक्कड़ नाटकों से सुबोध गुप्ता का भी जुड़ाव रहा था बल्कि जैसा कि वे बताते हैं कि उन्होंने पांच सालों तक उसमें अभिनय किया था। रंगमंच जैसी प्रदर्शनकारी कला से सुबोध गुप्ता के आरंभिक जुड़ाव का असर उनके कला संबंधी कृतियों पर देखा जा सकता है। उनका हर इंस्टॉलेशन रंगमंच के दृश्य सरीखा नजर आता है। 2010 में सुबोध गुप्ता द्वारा मॉस्को में विश्वख्यात बोल्शोई थिएटर के लिए बैले प्रीलजोकाज द्वारा कोरियोग्राफ किए गए एक प्रदर्शन में सेट और वेशभूषा डिजाइन किया गया था। बाकी चित्रकारों से उलट यहां उनका रंगमंचीय प्रभाव देखा जा सकता है।
सुबोध गुप्ता के नाटकों के पोस्टर देख किसी ने उन्हें पटना आर्ट कॉलेज में नामांकन की सलाह दी। उससे पूर्व उन्होंने तब तक इस कला संस्थान का नाम नहीं सुना था। पटना आर्ट कॉलेज में जब सुबोध गुप्ता आए वह इस कॉलेज से बी.एफ.ए (बैचलर ऑफ फाइन आर्ट्स) की डिग्री मिलने के भी प्रारंभिक वर्ष थे। उससे पूर्व पटना आर्ट कॉलेज में डिप्लोमा दिया जाता था। वर्ष 1980 से यहाँ बैचलर की पढाई होने लगी थीi सुबोध गुप्ता का बैच 1983-88 था। इस वक्त छाई शैक्षणिक अराजकता के कारण सुबोध गुप्ता को पांच साल की डिग्री हासिल करने में सात साल लग गए। कॉलेज के दौरान जैसा कि बाद में उन्होंने कहा है
‘‘कॉलेज की लाइब्रेरी एक दिन भी नहीं खुलती थी। कला इतिहास पर एक भी किताब मैं पटना आर्ट कॉलेज में रहने के दौरान नहीं पढ़ सका था। हांलाकि कला इतिहास की परीक्षायें ली जाती थीं।’’
गुप्ता के उस दौर के साथी रहे सुप्रसिद्ध छायाकार शैलेंद्र कुमार के अनुसार ‘‘सुबोध गुप्ता का कथाकार रॉबिन शॉ पुष्प के घर खूब आना जाना था। उनके यहां सुस्वादु भोजन मिला करता।’’ पटना आर्ट कॉलेज के दौरान भी सुबोध गुप्ता थियेटर करते रहते थे। सुबोध गुप्ता इसी बीच रॉबिन शॉ पुष्प से काफी नजदीक होते चले गए थे। रॉबिन शॉ पुष्प ने सुबोध गुप्ता को समझाया कि “चित्रकला या रंगमंच दोनों काम एक साथ नहीं हो सकता। दो नावों की सवारी एक साथ नहीं हो सकती। किसी एक पर ही ध्यान केंद्रित करना होगा।” इसने सुबोध गुप्ता को आगे की राह तय करने में सुविधा हुई।
पटना आर्ट कॉलेज में रहने के दौरान एक दैनिक अखबार के लिए वे पार्ट टाइम के रूप में इलस्ट्रेशन बनाने का काम किया करते थे। बाद में अखबार ने उन्हें स्थायी नौकरी देने का भी प्रस्ताव दिया था पर सुबोध गुप्ता की आंखें दिल्ली की ओर लगी थी।
पटना आर्ट कॉलेज एक दिलचस्प जगह पर अवस्थित है। प्लानेटोरियम के ठीक उत्तर यानी गंगा नदी की ओर जाने वाली सड़क पर अवस्थित है आर्ट कॉलेज । इस कॉलेज ने सुबोध गुप्ता की जीवन दृष्टि को शुरुआती दिनों में निर्मित करने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की होगी जो उनके काम में परिलक्षित किया जा सकता है । कॉलेज के गेट के ठीक सामने, पूरब में, पुराना लेडी स्टीवेंसन हॉल है जहां हमेशा विवाह समारोह आयोजित होते हैं। कॉलेज गेट के सामने से ही मृतकों की शव यात्रा शमशान घाट ( स्थानीय भाषा में ‘बांस घाट’) तक जाती है। कभी-कभी शवयात्रा (ज्यादातर वृद्ध लोगों का) के पीछे लाल बैंड वाले बाजा बजाते देखे जा सकते हैं। ईस्ट इंडिया कंपनी के फौजों की याद दिलाते ये बैंड बजाने वाले खाली पैर हुआ करते थे यानी उनके पास चप्पल खरीदने तक के पैसे नहीं होते थे। सुबोध गुप्ता ने अपनी अपने रचना संसार पर प्रभावों के बारे में कॉलेज गेट के इन जीवन और मौत के विरोधाभासी दृश्यों का जिक्र किया है। मृत्यु, बाजा, संगीत और नंगे पांव। ये आगे आने वाले वक्त में उनकी सृजन प्रक्रिया पर परोक्ष रूप से असर डालने वाले थे।
दिल्ली जाने के बाद भी लगभग एक दशक तक सुबोध गुप्ता का शायद ही कोई काम बिक सका था। वैसे उन्होंने प्रशिक्षण चित्रकला में लिया था पर धीरे-धीरे कई माध्यमों में पारंगत होते गए। लेकिन स्टेनलेस स्टील सुबोध गुप्ता का सिग्नेचर मीडियम बनता चला गया। 1996 में जापान के फुक्युका म्यूजियम में 29 थालियों वाला उनका काम ‘ट्वेंटी नाइन माॅर्निंग्स’ बहुत सराहा गया था। बचपन में स्मृति से लकड़ी के पीढ़े पर सामूहिक भोजन करने के दृश्य को इंस्टाल किया गया। पीढ़ा, स्टेनलेस स्टील की थाली, कटोरी आदि को बहुत पसंद किया गया। इसके बाद सुबोध गुप्ता हमेशा के लिए इंस्टाॅलेशन की दुनिया में आ गए और बर्तन उनके सृजनात्मक जीवन का अब सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा बन जाने वाला था।
सुबोध गुप्ता के जीवन में टर्निंग प्वाइंट 1995 से 1998 के बीच आने लगा था। 1991 में नरसिम्हा राव व मनमोहन सिंह की जोड़ी ने अर्थव्यवस्था को खोलने की प्रक्रिया अब परवान पर चढ़ने लगी थी। बिहार में सामाजिक न्याय की कही जाने वाली लालू प्रसाद की सरकार सत्तासीन हो चुकी थी। लालू प्रसाद के बहाने दिल्ली में बसे बिहारी लोगों पर अपमानजनक व्यंग्योक्ति कसी जाती। इसकी प्रतिक्रिया में सुबोध गुप्ता ने अपनी क्षेत्रीय पहचान को लेकर खुद को एसर्ट करने वाला चित्र ‘बिहारी’ बनाया। 1999 में बनी बिहारी में सुबोध गुप्ता ने गाय के गोबर में लिपटे अपना सेल्फ पोट्रेट बनाया। कैनवास को गोबर, कीचड़ आदि पोत कर बनाया गया। उसपर एल.ई.डी लाइट-अंकित देवनागरी शब्द, ‘बिहारी’ लिखा।
बिहारी को कुछ इस प्रकार अपने पोर्ट्रेट पर अंकित किया कि तीनों अक्षर पर बल पड़ता कुछ इस तरह बि……हा….. री…। एल.ई.डी लाइट को इस प्रकार रखा गया था कि हर अक्षर पर एक-एक कर चमकता। सबसे दिलचस्प है एल.ई.डी का रंग लाल रखा गया है। लाल रंग कुछ-कुछ विद्रोह और प्रतिरोध जैसी इंक्लाबी भावना को सामने ला रही हो । इससे बिहारी पहचान संबंधी उनकी तीखी प्रतिक्रिया उभर कर आती। लगभग ढ़ाई दशक पहले नियाॅन लाइट या एल.इ.डी वाली तकनीक प्रयोग को इस पुनरावलोकन प्रदर्शनी की कई कृतियों में देखा जा सकता है।
सुबोध गुप्ता को सामान्य वस्तुओं के अंदर चाक्षुष संभावना को पहचानने की विलक्षण सृजनात्मक क्षमता मानी जाती है। जैसा कि वे खुद भी कहते हैं
“मेरा चाक्षुष अध्ययन और अनुभव मेरे अकादमिक अध्ययन से अधिक मजबूत है। लिखित और दृश्य कहानी के बीच अंतर होता है। दृश्य की कहानियाँ असीमित हैं, प्रत्येक व्यक्ति अपने साथ अपनी कहानी लेकर आता है।”
इन्हीं वजहों से सुबोध गुप्ता अलग-अलग पाठ को प्रोत्साहित करने के लिए अपनी कुछ मूर्तियां शीर्षक रहित रखना पसंद करते हैं।
( अगले अंक में- सुबोध गुप्ता : चमक भरी दुनिया के सूनेपन की अभिव्यक्ति )