बिहार म्यूजियम, पटना में चल रही सुबोध गुप्ता की एकल प्रदर्शनी की विस्तृत रपट के इस भाग में अनीश अंकुर व्याख्यायित कर रहे हैं सुबोध गुप्ता की कला भाषा और उससे जुड़े सन्दर्भ ..
Anish ankur
भारत में पिछले ढ़ाई-तीन हजार साल से बर्तन जैसे लोटा, कलश और घड़ा के मूल स्वरूप में कोई अंतर नहीं आया है। इन बर्तनों का उभरा हुआ आकार एक मानो एक भरी हुई कोख की याद दिला रहे हों । लोटा और कलश ऐसे बर्तन हैं जिनमें पानी या दूसरा द्रव्य, चाहे पवित्र हो या अधार्मिक, रखा जाता है।
नब्बे के दशक के मध्य से सुबोध गुप्ता की कला भाषा में बर्तन स्थाई अंतरा की तरह, बार-बार, उनकी कृतियों में आते रहते हैं। दरअसल स्टेनलेस स्टील के खाली बर्तन प्रेक्षकों को अपनी चमक- दमक की वजह से आकर्षित करते हैं। लेकिन तमाम चमक के बीच बर्तन खाली है। यह वर्तमान समय के अभाव और खालीपन को दर्शाता है।
लेकिन 1991 के बाद बनी दुनिया में एक इसका एक खास संदर्भ भी जुड़ जाता है। विकास के सभी रंगीन और महत्वाकांक्षी दावों के बीच जीवन में खालीपन है, सूनापन है। सुबोध गुप्ता के बर्तन अब काफी बड़े होते चले गए हैं। पहले बर्तन की जरूरत भारतीय बाजारों से पूरी हो जाया करती थी परंतु अब दुनिया भर से विभिन्न आकार – प्रकार के बर्तनों का इंतजाम किया जाता है। इंजीनियरों और तकनीशियनों की पूरी टीम, उनके साथ, इस कार्य में संलग्न रहा करती है।
वैसे भी सुबोध गुप्ता का डिजायन महत्वपूर्ण रह गया है। उनके अमूर्त अवधारणा को मूर्त रूप देने के लिए दर्जनों कलाकार और कारीगर लगे रहते हैं। सुबोध गुप्ता के इंस्टॉलेशन पूंजीवाद की नई चलन के अनुकूल है। अब जैसे एपल कंपनी का डिजायन स्टीव जॉब्स के नाम है जिसे व्यवहारिक रूप चीन जैसे देशों में दिया जाता है। ठीक उसी प्रकार कलात्मक उत्पादन के वैश्विक तौर-तरीकों को कला में सामने लाता है।
सुबोध गुप्ता पॉप आर्ट को भारतीय चाक्षुष संस्कृति और अनुभव से जोड़कर देखने की कोशिश करते हैं। सामान्य व मामूली वस्तुओं से कला निर्मित करने की प्रेरणा सुबोध गुप्ता को बीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक के दादावादी आंदोलन से मिली। गुप्ता के इंस्टॉलेशन में मनुष्य कहीं भी नहीं नजर आता है बल्कि उसके द्वारा उपयोग में लाये गये वाहन या वस्तुयें नजर आती हैं। लोगों की मौजूदगी को उनके द्वारा उपयोग में लाए जा रहे सामानों से महसूस किया जा सकता है।
भारत में स्टेनलेस स्टील के बर्तन साठ व सत्तर के दशक से प्रवेश करना शुरू किया। समाजवादी सोवियत संघ के सहयोग से भारत में स्टील उत्पादन को शुरू किया गया। स्टील के उत्पादन ने भारतीय परिवारों की रसोई में स्टील के बर्तनों प्रवेश संभव बनाया।
पटना की पृष्ठभूमि से आने वाले चर्चित अंग्रेजी लेखक अमिताभ कुमार ने अपनी पटना पर लिखी किताब ‘‘ मैटर ऑफ रैट्स’ में सुबोध गुप्ता के स्टील के बर्तनों से जुड़ाव के बारे में लिखा है ‘‘ सुबोध गुप्ता की सबसे छोटी बहन ने एक नई खोज की। स्टेनलेस स्टील बनाने वाली कंपनी के स्कीम ने सामान्य उपभोक्ताओं को सेल्समैन में तब्दील कर दिया गया था। स्कीम के मुताबिक आप तीन थाली बेचें और दो थाली मुफ्त में प्राप्त करें। गुप्ता की बहन ने अपने मित्रों व पड़ोसियों के बीच इस स्कीम का सफलतापूर्वक प्रचार कर उन्हें स्टेनलेस स्टील के बर्तन खरीदने को प्रेरित किया। इसके पहले ये लोग पीतल की मामूली थाली उपयोग में लाते थे। लेकिन बीस सालों बाद परिस्थिति बदल गयी।
एक दिन गुप्ता रसोई घर में जब खाना बना रहे थे तो उन्हें यह अहसास हुआ कि उनकी कला में चमक का अभाव है। इस तरह बचपन के स्टेनलेस स्टील की थाली उनकी कला में दाखिल हो गई। स्टील की थाली चमकती है जो उनके इंस्टॉलेशन में भी चमक पैदा कर उसे इच्छानुकूल शक्ल प्रदान कर देती है। उनके विषयवस्तु उनके बचपन की स्मृतियों से उन्हें जोड़ते हैं। अपने गुड़गांव वाले घर में सुबोध गुप्ता ने स्टेनलेस स्टील की थाली में खाना खिलाते हुए मुझे बताया कि कला में मैंने अपनी भाषा खोजी, खुद जो मैं हूॅं, उसी ओर लौटकर।’’
दिल्ली जाने के कई वर्षों बाद 1995 के आसपास सुबोध गुप्ता ने स्टेनलेस स्टील का उपयोग करना शुरू किया। सुबोध गुप्ता ने यह पाया कि उनके द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली कला सामग्री में चमक का अभाव है। भारतीय के सामान्य जनजीवन को सुबोध गुप्ता ने स्टील में ढ़ाल दिया है। भारत के रसोई घरों में पाई जाने वाली जानी-पहचानी घरेलू बर्तनों को आंखों को चौंधियाने वाले चमक प्रदान कर सुबोध गुप्ता ने उसे इतना सुंदर, भव्य और थोड़ा अलौकिक सा बना डाला है।
स्टेनलेस स्टील के बर्तनों से लगाव का कारण सुबोध गुप्ता द्वारा खुद खाना बनाने और दोस्तों को बुलाकर खिलाने की पुरानी आदत का भी प्रभाव है। इस माध्यम से कलाकारों के अंदर एक समुदाय की भावना विकसित होती। रसोई घर में खासा समय व्यतीत करने के कारण बर्तनों से उनका स्वाभाविक लगाव को समझा जा सकता है। एक दिन रसोई घर में उन्हें यह अहसास हुआ कि ये बर्तन उनसे मानो बातचीत कर रहे हैं, संवाद स्थापित कर रहे हैं। इसी लगाव को उन्होंने कला सामग्री के रूप में उपयोग करना शुरू कर दिया।
2024 की बिना शीर्षक के बनी कृति स्टेनलेस स्टील और हैलोग्राफ़िक फैन से बनी है। यह कृति दर्शकों को ठिठक कर देखने को मज़बूर करती है। रसोई घर में रखे विभिन्न उपयोग के ढ़ेर सारे बर्तनों के मध्य प्रेशरकुकर का दृश्य है। रसोई में सब्जी आदि को अभिव्यक्त करने के लिए हरे कैकटस को रखा गया है। बाल्टी, लोटा, टिफिन कैरियर, थाली, कटोरी, दूध रखने वाला कन्टेनर के बीच में प्रेशर कूकर को हैलोग्राफ़िक प्रभाव देकर एकदम भिन्न प्रभाव रच दिया गया है। दर्शक बार-बार इसे देखने के लिए रुक रहे थे। इस इंस्टॉलेशन का आकार 106.2×65.7×33 इंच तथा 270x167x84 इंच था। प्रेक्षक को यह इंस्टॉलेशन देर तक ठहरने पर मजबूर करता है।
एक अन्य दिलचस्प इंस्टॉलेशन का शीर्षक है ‘परिक्रमा’। 2010 में निर्मित इस इंस्टॉलेशन को स्टेनलेस स्टील, सुशी बेल्ट और मोटर की सहायता से इस सृजनात्मकता के साथ स्थापित किया है कि वे घूमते दिखाई देते हैं। रसोई घर में स्टेनलेस स्टील के टिफिन कैरियरों के साथ ताम्बई रंग वाले बर्तनों के साथ संयोजित कर एक गोलाकर थाल में रख दिया गया है थाल को डेढ़ फुट की ऊँचाई पर धीरे-धीरे मद्धिम गति से घूम रहा है, परिक्रमा कर रहा है। सुबोध गुप्ता के बर्तनों में एक और खास बात है कि उसमें गति रहा करती है। हर इंस्टॉलेशन में अपने अंदर दो किस्म के भावों को साथ लिये चलती है।उदाहरणस्वरूप टिफिन कैरियर को लिया जा सकता है। टिफिन कैरियर के बॉक्स हजारों कामगार अपने दोपहर का भोजन घर से ले जाते है। पर साथ ही वही टिफिन करियर हमारे महानगरों बड़ी-बड़ी अट्टालिकाओं को भी प्रकट करती है। सामूहिक जीवन के बदले डब्बों में बंद जिंदगी का सूचक बन जाता है।
ऐसे ही एक और त्रिआयामी इंस्टॉलेशन है ‘इन्साइड मी’। 2019-2022 के दौरान अल्यूमिनियम, फैब्रिक और मोटर से निर्मित इस कृति का आकार है 42.9×42.9×24.4 तथा 109x109x62। एक बड़े आकार के कुछ कुछ सुराहीनुमा बर्तन में छोटे-छोटे ढ़ेर सारे बर्तनों को रखा गया है। मोटर की उन छोटे बर्तनों में हल्की गति प्रदान करता है जिससे वे धीरे-धीरे हरकत करते प्रतीत होते है।
‘परिक्रमा’ और ‘इन्साइड मी’ को देखते हुए एक भिन्न कला अनुभव होता है। एकदम अलग सा अहसास। ‘द वे होम’ सुबोध गुप्ता की सन 2000 में आई कृति का भी नाम है। वही इस पुनरावलोकन प्रदर्शनी का भी शीर्षक दिया गया है। इंस्टॉलेशन के साथ कई चित्र इसमें शामिल हैं। अधिकांश चित्र कैनवास या लाइनेन पर ऑयल से चित्रित हैं। इन चित्रों में भी स्टील और ताम्बे के बर्तन उपस्थित हैं।
2009 का बना तैलचित्र है ‘राजधानी एक्सप्रेस’। इस चित्र में दिल्ली जाने वाली ट्रेन राजधानी एक्सप्रेस में मिलने वाले कई खानों वाली थाली को केंद्र कर चित्र को निर्मित किया गया है। थोड़ा ठहरकर ध्यान से देखने पर चित्र अधिक समझ में आता है। समझ आने से भी अधिक एक नया अनुभव होता है।
2020-21 के दौरान की बनी ‘माई विलेज़’ शीर्षक से चार पेंटिंग हैं। एक कैनवास पर और बाकी लाइनेन से बना है। इन चित्रों में भी स्टेनलेस स्टील के बर्तन हैं। बर्तनों को रखने के ढंग में कोई तरतीब नहीं है जो निम्न मध्यमवर्गीय ग्रामीण जीवन की पहचान भी है। जैसे बाल्टी, लोटा और डेकची एक दूसरे के साथ अनौपचारिक तरीके से रखे गए हैं। चुंकि यहाँ शीर्षक ‘माई विलेज’ है अतः स्टेनलेस स्टील के साथ पीतल के बर्तन देखे जा सकते हैं। शुभ कार्यों में अभी भी पीतल के बर्तन उपयोग में लाये जाते हैं। कैनवास के रंग का सतर्कता से चुनाव किया गया है ताकि ग्रामीण माहौल की धूसर पृष्ठभूमि का अहसास हो सके।
यदि प्रेक्षक सुबोध गुप्ता के इंस्टॉलेशन को देखने के बाद उनके पेंटिंग देख रहा है तो उसे कुछ भी नया नहीं लगेगा। लेकिन पेंटिंग में गँवई माहौल का रंग स्टील और पीतल के चमचमाते रंग के साथ एक कंट्रास्ट पैदा करता है। सुबोध गुप्ता के चित्रों में भी बाकी माध्यमों की तरह मनुष्य का चेहरा अनुपस्थित है। उसकी मौजूदगी का अहसास उसके साथ उपयोग में लायी जा रही वस्तुओं से होता है।