बिहार म्यूजियम, पटना में चल रही सुबोध गुप्ता की एकल प्रदर्शनी की विस्तृत रपट के इस भाग में अनीश अंकुर व्याख्यायित कर रहे हैं सुबोध गुप्ता द्वारा प्रदर्शित कलाकृतियों को ..
Anish Ankur
2013 की निर्मित प्रसिद्ध इंस्टॉलेशन है ‘टू मेकेनाईज्ड काऊ’ । पीतल और क्रोम चढ़ाये गए पीतल में बनाई गई इस कृति में दो रॉयल इंफील्ड बुलेट पर दूध वाले कन्टेनर को ढोये जाने वाली छवि है। “बुलेट” मोटर साइकिल ग्रामीण परिवेश में ताकत का प्रतीक माना जाता है। दूध बेचने और वितरित करने की पारंपरिक पद्धति कैसे नई परिस्थितियों के अनुकूल खुद को ढालती है इसे यह इंस्टॉलेशन सामने लाता है। सुबोध गुप्ता ने गाय के दूध ढोने वाले मोटरसाईकिल को सही ही नाम दिया गया है ‘मेकेनाईज्ड काउ’ यानी मशीनी गाय। सुबोध गुप्ता के इंस्टालेशन की यह छवि प्रचलित छवि रही है जिसे छोटे शहरों के साथ-साथ महानगरों तक में देखा जा सकता है। बुलेट से लेकर कंटेनर तक के हर हिस्से का अलग से कास्ट कर फिर अलग-अलग हिस्सों को पुनः असेंबल कर दिया गया है। सुबोध गुप्ता ने इस कृति में छोटे-छोटे ब्योरों तक को ध्यान देकर बनाया है। इसे देखते हुए ऐसा महसूस होता है जैसे दूध वाला अपनी बुलेट मोटरसाईकिल लगाकर कहीं आसपास दूध पहुंचाने गया है।
‘टू मेकेनाईज्ड काऊ’
इस पुनरावलोकन प्रदर्शनी में यह इंस्टॉलेशन आम दर्शकों का विशेष रूप से ध्यान आकृष्ट करती रही। बुलेट पर दूध के कंटेनर का लगा होना दूध बेचने वाले ग्वाले समुदाय के सशक्तीकरण का भी प्रतीक है। वैसे भी इन्फील्ड बुलेट के साथ एक दबंगई जुड़ा होता है। बिहार में 1990 के बाद नई शक्तियों के उदय से जोड़ कर देखे जाने पर नया अर्थ ग्रहण कर लेता है।
इंस्टॉलेशन की भीड़ में सुबोध गुप्ता की तीन चित्र सुकून की तरह नजर आते हैँ। जिसे 2018 में हैंडमड पेपर पर वाटरकलर माध्यम से बनाया गया है। तीनों कलाकृतियों में ध्वँस और तबाही के बीच गुलाब के खिलने को खूबसूरती से चित्रित किया गया है। अस्त-व्यस्त से माहौल में गुलाब के पेड़ का गुलाबी रंग खिल कर उभरता है। तीनों का आकार था 61.8×50 इंच तथा 157×127 सेमी.। चित्रकार ने शीर्षक की जगह पर मशहूर शायर रुमी की इन पंक्तियों को अंग्रेजी में रखा है “कम आउट हियर, व्येहर रोजेज हैव ओपेंड, लेट द सोल मीट।’’
इन चित्रों के बगल में है 2012 में फाइबर से वना इंस्टॉलेशन ‘ठीक पास में’। इसमें एक थाल में आँटा गुंधा रखा है। आँटे को रंगीन तौलिया ने आधा ढका हुआ है। यह सामान्य सा दृश्य एक संदर्भ है। आँटा, ऐसे अमूमन हलवाई की दुकान पर रखा हुआ देखा जा सकता है। कस्बाई शहरों में यह एक प्रचलित दृश्य है। आँटा को कभी भी इस तरह घर के अंदर रसोई घर में नहीं रखा जाता बल्कि वह सार्वजनिक स्पेस में रखे गए दृश्य की छवि है। सुबोध गुप्ता का काम देखते हुए प्रेक्षक को तह अहसास होता है कि सामान्य से दिखने वाले दृश्य को वे विजुअल इमेज़ में तब्दील कर देते हैँ। सुबोध गुप्ता की चाक्षुष समझ बेहद उन्नत है, इन्हीं वजहों से उनके पास बेलौस सी बिखरी वस्तुओं में छिपी चाक्षुष संभावना को देख पाने की आसाधारण दृष्टि है।
2015 का एक अनूठा काम है ‘पोट्रेट’। मिक्सड मीडिया में बनी इस कृति का आकार 25.1×22.4×11.8 इंच तथा 64x57x30 सेमी है। यहाँ भी बेहद सामान्य सी लगने वाली चीज को कला में तब्दील कर दिया गया है। ‘पोट्रेट’ में व्यक्ति कहीं नहीं है। वैसे भी सेल्फपोट्रेट को छोड़कर सुबोध गुप्ता के संसार में मनुष्य सीधे-सीधे कहीं नहीं आता है परन्तु उसकी उपस्थिति को महसूस किया जा सकता है। यदि कहा जाए कि उसकी अनुपस्थिति उसकी उपस्थिति से भी अधिक गूंजती प्रतीत होती है।
‘पोट्रेट’ जूता पालिश या मरम्मत करने वाले मोची का पोट्रेट है लेकिन उसका चेहरा कहीं नहीं है। मोची की मौजूदगी का अहसास उसके द्वारा उपयोग में लाये जाने वाले औजारों के माध्यम से किया गया है। मोची द्वारा उपयोग में लाये जाने वाले लकड़ी के उस उपकरण के माध्यम से जिससे वह आपने ग्राहकों के जूते चमकाता है। मोची द्वारा इस्तेमाल में लाया जाने वाले जूते का फीता लटक रहा है, चमड़े पर चमक लाने वाली क्रीम और पॉलिश करने वाला ब्रश रख दिया गया है। लकड़ी का वह हत्था जिस पर जूतों में कांटी ठोकी जाती है, सुआ से सिला जाने वाला चमड़ा, जहां पॉलिश लगाई जाती है, कटर और चाक़ू से चमडे़ की कतरन की जाती है, कांधे पर टांगने वाला उसका बेल्ट सब कुछ पोर्ट्रेट का अंग है। लेकिन हत्था ही सबसे महत्वपूर्ण जगह है। वह हत्था गवाह है उन सभी अनाम ग्राहकों का जिनके जूतों, चप्पलों की उसने मरम्मत की होगी। घिसे -पिटे हत्थे पर कांटी के दाग़, पौलिश का उड़ा रंग और चमड़े की घिसाई को साफ महसूस किया जा सकता है। मोची के हाथ के श्रम और कारीगरी को उसके हत्था से ही समझा जा सकता है। ‘पोट्रेट’ इस कारण भी महत्वपूर्ण कृति बन जाती है कि कलाकार ने श्रम की महत्ता को उसमें स्थापित किया है। समकालीन कला में मनुष्य और उसका श्रम धीरे-धीरे गायब होता चला गया है। सुबोध गुप्ता का यह इंस्टॉलेशन इस कारण आकृष्ट करता है। पोर्ट्रेट हाथ के काम के महत्व को स्थापित करता है। लकड़ी, चमड़ा, फीता, क्रीम आदि सामानों के साथ विजुअली समृद्ध कृति बन जाती है पोर्ट्रेट । ब्रश, पॉलिश, क्रीम, कांटी, सुआ, चाकू, फीता इन सबके निशान इस हत्थे पर देखे जा सकते हैं। काला पड़ चुका हत्था इस अनाम मोची की याद दिलाता है। जूते की मरम्मत या निर्माण का काम वैसे भी हस्तकला की श्रेणी में आना चाहिए।
ऐसा ही एक अन्य इंस्टॉलेशन है ‘ट्रांजिट’ जिसका वर्ष 2013 अंकित है। इसमें हवाई अड्डों पर सामान या लगेज ढ़ोने वाली ट्रॉली का उपयोग किया गया है। इसे सुबोध गुप्ता ने पीतल और अल्युमिनियम से बनाया है। ट्रॉली जहां पीतल स बना हैे वहीं लगेज अल्युमिनियम से।
अल्यूमिनियम में पुराने वाले सूटकेस, रस्सी से बांधे गए बिस्तर को इस प्रकार ढाला गया है कि वाह बिलकुल स्वाभाविक सा दिखाई दे। आप सफर किसी भी चीज से करें टमटम से करें या हवाई जहाज से लेकिन आपके द्वारा ढोए जाने वाले सामान आपकी हैसियत का पता बता देते हैं। सुबोध गुप्ता जिन समानों का आयोग करते हैं उससे एलीट लोग नहीं अपितु आमलोग, मेहनतकश तबके के मनुष्य की छवि अधिक उभरती है। यहां भी मनुष्य की उपस्थिति महसूस होती है पर वह दिखाई नहीं देता। सुबोध गुप्ता ने व्यक्ति द्वारा इस्तेमाल में लाए जाने वाले सामानों के माध्यम उसे अभिव्यक्त किया है, जो उसकी अनुपस्थिति के बावजूद उसकी कमी नहीं महसूस होने देती है।
सुबोध गुप्ता का एक अन्य इंस्टॉलेशन है ‘अनहद’ जो 2016 में निर्मित है। इसमें स्टील के कई लंबे पैनलों को सजाया गया है। एक बाद जब प्रेक्षक उसे देखना शुरू करता है तो सभी पैनलों में थरथराहट की आवाज निकलती है मानो प्रकृति की अनसुनी आवाजों को सुनने- समझने का उपक्रम हो। ‘अनहद’ में स्टेनलेस स्टील के अलावा एम्प्लीफायर, वायर, म्युजिक प्लेयर और ट्रांसड्यूसर का उपयोग कर इसे निर्मित किया गया है। हर पैनल का आकार 96x48x5.9 इंच लंबा तथा 244x122x15 सेमी चौड़ा है।
स्टेनलेस स्टील के बर्तनों से बना एक प्रमुख इंस्टॉलेशन को नाम दिया गया है ‘गहरी नींद’। स्टील के अलावा पीतल और फैब्रिक से बनी यह कृति एक विशाल मानव खोपड़ी को मखमली बिस्तर पर लिटा दिया गया है। खोपड़ी में स्टील के साथ-साथ पीतल और तांबे का उपयोग किया गया है। ‘गहरी नींद’ सुबोध गुप्ता की एक चर्चित कृति ‘द हंगरी गॉड’ की अनुकृति नजर आती है। इसमें अंतर सिर्फ इतना है कि खड़े की बजाए करवट की मुद्रा में सोने होने का पोस्चर हो। खोपड़ी के दांतों की अलग से शिनाख्त करने के लिए पीतल का रखा गया है। स्टेनलेस स्टील की चमक में पीतल की पहचान एकदम अलग से हो जाती है।
इसी इंस्टॉलेशन के पास 2008 में निर्मित पीतल और टेराकोटा से बना ‘मौसम’, और सिर्फ स्टेनलेस स्टील के बर्तनों से बना ‘गुच्छा’ ठहरने को विवश कर देता है। 2019-23 के बीच बनी इस कृति में एक स्टेनलेस स्टील की बड़ी सी बालटी है उसमें से गुच्छे के रूप में निकलता छोटे -छोटे बर्तनों से फूल के गुच्छे सरीखे पौधे निकलते प्रतीत होते हैं। प्रेक्षक उसे देखता रह जाता है। गुच्छा में छोटे बर्तनों जैसे चम्मच आदि का बेहद सृजनात्मक उपयोग दिखता है। ‘गुच्छा’ मनभावन कृति है। इस पुनरावलोकन प्रदर्शनी में ‘गुच्छा’ अपने सौंदर्यात्मक महत्व के कारण विशेष रूप में से उल्लेखनीय है।
पी.वी.डी कोटेड स्टेनलेस स्टील की रंगीन पत्तियों से इंद्रधनुषी छटा बिखेरता ‘रेनबो’ आकर्षित करता है। इसे 2024 में ही बनाया गया है।
स्टेनलेस स्टील की एक विशाल चमचमाती थाली में इस्तेमाल में लाये गए जीर्ण-शीर्ण जूते-चप्पल रख दिये गए हैं। इस विशाल थाली को खासतौर से बनवाया गया है। इसका शीर्षक ‘तस्वीर’ रखा गया है। यहां भी सुबोध गुप्ता ने अपना वहीं सिग्नेचर कंट्रास्ट पैदा करने का प्रयास किया है। एक ओर थाली की चमक है तो दूसरी ओर घिस चुके जूते-चप्पल। प्रेक्षक देर तक ठहरने को विवश होता है और अपने अंदर पनप रही दो विपरीत भावनाओं का समझने का प्रयास करता है। विशाल थाली को किसी निजी स्टील कंपनी में खास तौर पर ऑर्डर देकर बनावाया गया है।
पुनरावलोकन प्रदर्शनी में सुबोध गुप्ता का एक और ध्यान खींचने वाला इंस्टॉलेशन है ‘डोर’ जिसे उन्होंने 2007 में बनाया था। कैसे पीतल से बने सामान्य दरवाजे को कलाकृति में तब्दील कर दिया जाता है उसका उदाहरण है ‘डोर’। पीतल के रंग का दरवाजा, चौखट, उसकी सिटकनी आदि सब अपनी जगह सुरक्षित हैं। सुबोध गुप्ता की कल्पनाशीलता उस जगह है जहां दरवाजे के नीचे ट्यूबलाइट लगा है। दरवाजे के निचले हिस्से के समानान्तर ट्यूबलाइट को रख दिया गया है। देखने वाले को यह अहसास होता है मानो घर के अंदर से रौशनी दिख रही है। दरवाजे के अंदर से मानो सूर्य की रौशनी आती नजर आती है। कैसे एक मामूली दृश्य कला अनुभव में बदल जाता हे उसे सामने लाती है सुबोध गुप्ता की ‘डोर’।
2016 में बनी एक कृति का शीर्षक है ‘आई सी सपर ’ को 2023 में बनी सफर के साथ रखा गया है। ‘सफर’ एक बड़े आकार का तैलचित्र है जबकि ‘आई सी सपर’ इंस्टॉलेशन है जिसे अल्यूमिनियम, फ्रॉस्ट, कूलिंग सिसटम, मार्बल और स्टेनलेस स्टील की मदद से बनाया गया है। एक सफेद टेबल पर टेबलक्लॉथ रख सफेद रंग के ही कुछ बर्तन रखे गए हैं। टेबल के नीचे कूलिंग सिस्टम है जिससे हल्की एसी के चलने की ठंढ़ी हवा का आभास दर्शक को होता है। दर्शक इन दोनों कृति के पास ठहरकर देखने-समझने की कोशिश करते देखे जा सकते हैं।
( क्या सुबोध गुप्ता खुद को दुहराते प्रतीत हो रहे हैं -अंतिम भाग )