बिहार की राजधानी पटना के खगौल कस्बे से निकले सुबोध गुप्ता ने अंतर्राष्ट्रीय कला जगत में अपनी जो पहचान बनायीं है, वह किसी परिकथा से कम नहीं है I सुबोध ने कला की औपचारिक शिक्षा कला एवं शिल्प महाविद्यालय, पटना से हासिल की है I ऐसे में पटना स्थित बिहार म्यूजियम में आयोजित उनकी एकल प्रदर्शनी, बिहार के कला जगत की महत्वपूर्ण परिघटना है I इस प्रदर्शनी को क्युरेट किया है अंजनी कुमार सिंह ने, जिनकी विशेष पहचान पूर्व नौकरशाह एवं बिहार म्यूजियम के महानिदेशक वाली है I किन्तु इस प्रदर्शनी ने बतौर क्यूरेटर उन्हें एक नयी पहचान दी है I वैसे यह दूसरा अवसर है जब उन्होंने किसी कलाकार की एकल प्रदर्शनी को क्युरेट किया है I इस प्रदर्शनी पर प्रस्तुत है कला समीक्षक अनीश अंकुर की विस्तृत रपट I जिसे हम पाठकों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए धारावाहिक के रूप में सामने ला रहे हैं I -संपादक
भारत के कला जगत में सुबोध गुप्ता का नाम एक सनसनी की तरह है। पिछले लगभग दो-ढ़ाई दशकों से सुबोध गुप्ता, न सिर्फ भारत अपितु वैश्विक समकालीन कला के चमकते सितारे की तरह देखे जाते हैं। सुबोध गुप्ता को भारत का ‘डैमियेन हस्र्ट’ भी कहा जाता है। विदित हो कि डैमियेन हस्र्ट भी बीसवीं शताब्दी के नब्बे के दशक में सनसनी की तरह थे।
आज की तारीख में सुबोध गुप्ता की कृतियां दुनिया की प्रतिष्ठित गैलरियों, संग्रहालयों और बिनाले का हिस्सा बन चुकी हैं। उनकी कृतियों की एकल प्रदर्शनी दुनिया में समकालीन कला के लिए प्रख्यात कला गैलरियों में आयोजित हुई हैं। ऐसी गैलरियों में प्रमुख हैं लन्दन, ज्यूरिख, न्यूयार्क और समरसेट स्थित हाउगर और मर्थ के गैलरी में। सियोल और बीजिंग के अरारियो की गैलरी में, यूक्रेन की राजधानी कीव के पिंचुक आर्ट सेंटर में, सन गिमिग्नानो और इटली के गैलेरिया कंटिनुआ में।
सुबोध गुप्ता अभी भारत के सबसे महंगे कलाकारों में गिने जाते हैं। 2005 से 2008 के दरम्यान सुबोध गुप्ता की कृतियों की कीमतों में पांच हजार प्रतिशत का अविश्वसनीय इजाफा हुआ। कला की दुनिया में गुप्ता की अभूतपूर्व वृद्धि का श्रेय आंशिक रूप से जिनेवा गैलरी पियरे ह्यूबर को जाता है। इस गैलरी ने सुबोध गुप्ता की प्रतिभा को पहले से ही पहचान कर उन्हें आगे बढ़ाया था। फ्रांस के पूंजीपति फ्रांकोइस पिनाॅल्ट सुबोध गुप्ता के प्रारंभिक संरक्षकों में माने जाते हैं।
कला के समकालीन विश्व परिदृश्य में भारतीय कला को अब तक जिस दृष्टिकोण से देखा जाता रहा था सुबोध गुप्ता ने उसे हमेशा के लिए बदल डाला है। सुबोध गुप्ता को लेकर विश्व कला जगत में कुछ ऐसी भावना है जो इससे पहले शायद ही किसी भारतीय कलाकार के लिए रही हो। बीसवीं शताब्दी के साठ और सत्तर के दशक में एम.एफ हुसैन को लेकर कुछ वैसा ही आकर्षण था। सुबोध गुप्ता का अभ्युदय चूंकि भारत के बाजार खुलने के दौर में हुआ है, लिहाजा पहुंच और प्रभाव के मामले में कोई भी दूसरे हिंदुस्तानी कलाकार को वैसी ख्याति शायद ही मिल पाई है। उनके अंतर्राष्ट्रीय संपर्कों और पहुंच का अंदाजा इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि अमेरिका या विदेश के किसी संस्थान के लिए बनने वाले इंस्टॉलेशन के लिए बर्तन किसी एक देश से आता है तो उसे असेंबल करने का काम चीन जैसे देश में होता है।
ऐसा नहीं है कि उनकी कृतियों की मांग विदेशों में बसे भारत के लोगों या भारत प्रेमियों के बीच ही है, इसके दायरे में पश्चिम की मुख्यधारा के गैलरी, संग्रहालय और कला मेला भी हैं। सुबोध गुप्ता को फ्रांस सरकार द्वारा 2013 में नाइट ऑफ द ऑर्डर ऑफ आर्ट्स एंड लेटर्स की उपाधि से सम्मानित किया गया था। 1997 में अमेरिका का बोस पैसिया मॉडर्न, न्यूयॉर्क, द्वारा स्थापित इमर्जिंग आर्टिस्ट अवार्ड तथा नई दिल्ली के वढेरा आर्ट गैलरी में एम.एफ. हुसैन द्वारा आयोजित अखिल भारतीय चित्रकला प्रदर्शनी में प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था।
सुबोध गुप्ता का काम जिन प्रतिष्ठित प्रदर्शनियों में प्रदर्शित हुआ है उनमें प्रमुख हैँ फ्रांस का ‘मोनाई दे पेरिस’ ( 2018) इंग्लैण्ड के ‘वार्विक आर्ट्स सेंटर’, कोवेंट्री (2017), अमेरिका के ही ‘स्मिथसोनियन म्यूजियम ऑफ एशियन आर्ट’ ( 2017) में ऑस्ट्रेलिया के ‘नेशनल गैलरी ऑफ विक्टोरिया’ (2016), स्विटजरलैंड के ‘आर्ट बैसेल’ ( 2017) में, जर्मनी के ‘म्यूजियम ऑफ मॉडर्न कुंस्ट’ (2014), नई दिल्ली के ‘किरण नाडार म्यूजियम’ (2012), फिनलैंड के ‘ताम्पेरे के सारा हिल्ड़न आर्ट म्यूजियम’ (2011) आदि। उनके कैरियर के मध्य में उनपर केंद्रित, 2012 में , भारत के नेशनल गैलरी ऑफ मॉडर्न आर्ट ने एक महत्वपूर्ण प्रदर्शनी आयोजित किया गया। सुबोध गुप्ता ने ‘चैनल और ऐब्सोल्यूट’ सरीखे अंतर्राष्ट्रीय ब्रांडों के लिए काम किया है।
अखबारों में, पत्रिकाओं और कला पुस्तकों में उनके बारे में काफी कुछ लिखा गया है और लिखा जा भी रहा है। पटना के पिछवाड़े के कस्बे खगौल की गलियों से निकलकर अंतर्राष्ट्रीय कला जगत में छा जाने (रैग्स टू रिचेज) की उनकी कहानी पर काफी कलम चलाई गई है। उनके काम को देखते हुए आप निरपेक्ष नहीं रह सकते। सुबोध गुप्ता और उनका काम एक इनिग्मा की तरह है, जिसमें आप काफी कुछ जानते हैं पर बहुत कुछ अनजाना भी रह जाता है। जिसे ‘न्यू इंडिया’ कहा जा रहा है सुबोध की कलाकृतियां उसकी चाक्षुष अभिव्यक्ति प्रतीत होती है। कस्बाई जीवन की सुबोध गुप्ता की छवियों की कला के अंतर्राष्ट्रीय बाजार में क्यों इतना लोकप्रिय हैं ? फ्रांस, यूक्रेन से लेकर इंग्लैंड और अमेरिका तक के पूंजीपति उसपर इस क्यों इस कदर फिदा हैं ? इस प्रश्न का उत्तर आसान नहीं है।
सुबोध इस वर्ष साठ साल के हो गए हैं। बिहार म्यूजियम में 9 नवंबर से अगले वर्ष 15 फरवरी तक उनकी पुनरावलोकन प्रदर्शनी चल रही है। सुबोध गुप्ता का काम एक साथ देखने का मौका पटना के कला प्रेमियों को मिल रहा है। देखा जाए तो सुबोध गुप्ता के जीवन और सृजन के लिए भी यह बेहद महत्वूपूर्ण मुकाम है।
इस पुनरावलोकन प्रदर्शनी को शीर्षक दिया गया है ‘द वे होम’। इसे बिहार म्यूजियम के दो हॉल में प्रदर्शित किया गया है। बिहार म्युजियम द्वारा आयोजित अब तक की पुनरावलोकन प्रदर्शनियों में शायद ही किसी कलाकार को दोनों हॉल मुहैया कराया गया हो। इससे भी सुबोध गुप्ता के महत्व का अंदाजा लगाया जा सकता है। इस प्रदर्शनी को क्यूरेट किया है कला जगत की जानी-मानी शख्सियत और बिहार संग्रहालय के महानिदेशक अंजनी कुमार सिंह ने।
सुबोध गुप्ता की प्रदर्शनी अब तक आयोजित प्रदर्शनियों में सबसे लंबी भी है। सुबोध गुप्ता के बीस लाइफ साइज आकार की मूर्तियाँ और 10 चित्र शामिल है। ये सभी काम 2003 से 2024 के दरम्यान के है। उनके शुरूआती दिनों के काम नहीं के बराबर हैं। सभी काम उनके बिहार छोड़ने के बाद के हैं।
सुबोध गुप्ता के कुछ इंस्टाॅलेशन बिहार के सार्वजनिक स्थलों पर पहले से प्रदर्शित हैं। पटना के मशहूर इको पार्क में 26 फूट ऊंचा ‘कैक्टस’ है जिसे सैंकड़ों लोग प्रतिदिन देखा करते हैं। तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद बिहार की जिजीविषा को सामने लाने वाली कृति मानी जाती है ‘कैक्टस’। यह स्टील के बर्तन, टिफिन बाॅक्स, कटोरी, थाली आदि से बना काफी वजनी ( लगभग दो सौ किलो ) इंस्टाॅलेशन है। सुबोध गुप्ता के दिल्ली स्थित स्टुडियो में इसे बनने में छह माह लगे थे।
प्रतिदिन बिहार म्यूजियम घूमने आने वाले दर्शकों की नजर विशालकाय गोलाकर इंस्टॉलेशन ‘यंत्र’ पर पड़नी स्वाभाविक है। ‘यंत्र’ को सुबोध गुप्ता ने वाशिंग मशीन, लोहा और दूसरे इलेक्ट्रॉनिक सामग्रियों से निर्मित किया है। रिक्शा पर लदे बर्तनों वाली कृति तो बहुत दिनों तक बिहार म्युजियम के प्रवेश द्वार पर ही लगी हुई थी। मेरा खुद का अनुभव है कि बिहार संग्रहालय घूमने के दौरान किसी सामान्य नागरिक की उसकी नजर सुबोध गुप्ता के रिक्शा पर बर्तनों या यंत्र वाली कृति पर पड़ती है तो वह अचानक ठिठक सा जाता है। गौर से उस इंस्टॉलेशन को पहले निहारता है, फिर घूरने जैसा भाव बनाया है, फिर चकित सा होता है, और एक स्तब्ध भाव लिए आगे की ओर बढ़ता है।
सुबोध गुप्ता का काम एक साथ देखना पटना के कलाप्रेमियों के लिए दुर्लभ अवसर है। इस पुनरावलोकन प्रदर्शनी में सुबोध गुप्ता की ऑयल पेंटिंग,स्कलपचर, इंस्टॉलेशन सहित कई नए माध्यमों में किए गए कामों को देखा जा सकता है। वैसे कला की दुनिया में इंस्टाॅलेशन अपेक्षाकृत बहुत नया माध्यम है। वैसे हम किसी भी मूर्ति को किसी खास माहौल व सदंर्भ में, लाइट आदि का प्रबंध कर उसे स्थापित करते हैं वह भी इंस्टाॅलेशन की श्रेणी में ही आता है।
विशाल आकर की बनवाई गई थाली से लेकर छोटे-छोटे उपकरण का उपयोग सुबोध गुप्ता के यहां दिखता है। सुबोध गुप्ता यद्यपि स्टेनलेस स्टील का सबसे अधिक इस्तेमाल करते हैं। इसके साथ-साथ कांस्य, पत्थर, पीतल, लकड़ी, मिट्टी और फाइबरग्लास भी उनके काम में आते हैं। घर में पाई जाने वाली और बनाई गई चीजों के मध्य उनके कृतियां संवाद स्थापित करती हैं। दैनन्दिन जीवन के चिर परिचित सामग्रियों से एक भिन्न अपरिचित और आधुनिक संसार को निर्मित करते हैं सुबोध गुप्ता। बेहद सामान्य से लगने वाले अपने आसपास पाई जाने वाली सामग्रियों से सुबोध गुप्ता कुछ ऐसा जादुई रचते हैं कि देखने वाले को अब तक अनदेखे को देखे जाने का भाव महसूस होता है। सुबोध गुप्ता के काम की विशालता, भव्यता और उसका अनोखापन नए बनते भारत की विजुअल अभिव्यक्ति प्रतीत होती है।
इस पुनरावलोकन प्रदर्शनी में जो छवियां उभर आईं हैं वे छोटे शहरों के जीवन के प्रचलित छवि है। जैसे बूट पालिश करने वाले का बैग, मोटरसाइकिल पर दूध का लदा कंटेनर, रसोई घर के बर्तन, पीढ़ा, भोज, जूते-चप्पल आदि। कई कला आलोचक मानते हैं कि सुबोध गुप्ता ने भारतीयता की ठीक से पैकेजिंग की। भारत में जो चीजें सामान्य सी नजर आती हैं, हमारे आसपास के जीवन में बिखरी रहा करती है; सुबोध गुप्ता ने उन्हीं छवियों को समकालीन और आधुनिक तरीके से इस प्रकार पैकज किया कि विदेशों में उसे पसंद किया जाने लगा। विदेशियों की नजर में भारत की छवि एक गरीब मुल्क की मानी जाती है।
भारत के बदहाली और अभावग्रस्तता को जिस रूप में पश्चिमी देशों में समझा जाता है या जो प्रचलित किस्म की इमेज रही है सुबोध गुप्ता की कृतियां खासकर इंस्टॉलेशन उसके अनुरूप रहा करती है। दूसरे शब्दों में कहें तो सुबोध गुप्ता ने विदेशियों के भीतर पैठी भारत के प्रति नजरिए को सुबोध गुप्ता ने ठीक से समझा, साथ ही अंतर्राष्ट्रीय कला बाजार को समझा और फिर उसी के अनुरूप अपनी खुद तथा अपनी कला को ढाला। सुबोध गुप्ता को नव उदारवादी दौर में बाजार की पैदावार माना जा सकता है।
सुबोध गुप्ता की कृतियां घरेलू बर्तन जैसे थाली, चम्मच, कटोरी, टिफिन बॉक्स आदि से निर्मित होती हैं। इस तरह से घर के अंदर के सामान से बाहर की दुनिया को अभिव्यक्त करने का काम सुबोध गुप्ता बखूबी करते हैं।
जारी …..
(अगले अंक में सुबोध गुप्ता के प्रारंभिक जीवन से जुड़ी जानकारियां….. )
बढ़िया लेख । अगले अंक का इंतजार रहेगा !