बुद्ध के जीवन में शांति व रौशनी की तलाश करते संजय कुमार

अनीश अंकुर एक ऐसे संस्कृतिकर्मी हैं, जो अपनी राजनैतिक व सामाजिक अभिव्यक्ति के लिए भी जाने-पहचाने जाते हैं। उनके नियमित लेखन में राजनीति से लेकर समाज, कला, नाटक और इतिहास के लिए भी भरपूर गुंजाइश रहती है। बिहार के मौजूदा कला लेखन की बात करें तो जो थोड़े से नाम इस विधा में नियमित तौर पर सक्रिय हैं उनमें से एक महत्वपूर्ण नाम अनीश अंकुर हैं। उनकी सदैव कोशिश रहती है बिहार से बाहर के कला जगत को बिहार की कला गतिविधियों से रूबरू कराते रहा जाए। पिछले दिनों बिहार म्यूजियम, पटना में संजय कुमार के कलाकृतियों की पुनरावलोकन प्रदर्शनी आयोजित हुयी। आलेखन डॉट इन के अनुरोध पर प्रस्तुत है संजय कुमार के सृजन संसार पर उनकी यह विस्तृत समीक्षात्मक रपट……

Anish Ankur
  • पटना में संजय कुमार की कलाकृतियों का रेट्रोस्पेक्टिव शो

कुछ दिनों पहले, बिहार म्युजियम में संजय कुमार की पुनरावलोकन प्रदर्शनी समाप्त हुई । 7 जनवरी से शुरू हुई यह प्रदर्शनी 28 जनवरी तक चली। पटना के कलाप्रेमी दर्शकों ने इस प्रदर्शनी को उत्सुकतापूर्वक देखा। संजय कुमार की इस प्रदर्शनी का नाम था ‘ऑफ़ वाकिंग थ्रू द रैशनल पाथ’’। इसे क्यूरेट किया था मुंबई निवासी निखिल पुरोहित ने। सबसे दिलचस्प तथ्य है कि क्यूरेटर ने इस रेट्रोस्पेक्टिव को ‘मिड कैरियर रेट्रोस्पेक्टिव ’ का नाम दिया है। पिछले दिनों बिहार म्यूजियम में कई रेट्रोस्पेक्टिव आयोजित किये गए परन्तु ‘मिड कैरियर रेट्रोस्पेक्टिव ’ नाम पहले दफे इस्तेमाल किया गया है।

संजय कुमार पटना आर्ट कॉलेज से 1983-88 बैच के छात्र रहे हैं। यहां से बी.एफ.ए करने के बाद बाकी लोगों की तरह एम.एफ.ए की पढ़ाई नहीं की। दरअसल उन्हें डिग्री आधारित पढ़ाई में रूचि ही नहीं थी, लिहाजा उन्होंने अपनी बी.एफ.ए का सर्टिफिकेट तक नहीं कलेक्ट किया। 1992-93 में संजय कुमार को नई दिल्ली स्थित ललित कला अकादमी से रिसर्च ग्रांट प्राप्त हुआ वहीं मानव संसाधन मंत्रालय (भारत सरकार ) के संस्कृति विभाग के तहत 1995-97 के लिए इन्हें जूनियर फेलोशिप भी प्राप्त हुआ। 1986 में पटना के रंगकर्मियों-कलाकारों की संस्था ‘कलाकार संघर्ष समिति’ द्वारा जो बिहार सरकार के समानान्तर युवा महोत्सव आयोजित किया था उस ऐतिहासिक समारोह में संजय कुमार को गोल्ड मेडल प्रदान किया गया था।

बिहार के अधिकांश कलाकारों की तरह संजय कुमार ने दिल्ली का रुख नहीं किया बल्कि मुंबई को उन्होंने अपना ठिकाना बनाया। पिछले ढाई दशकों के दौरान वे अब मुंबई के कला दुनिया में चर्चित हो चले हैं। संजय कुमार बनाए चित्र मुंबई के कॉरपोरेट हाउस से लेकर फिल्मी जगत के कलाकारों के निजी संग्रह में शामिल हैं।

इस पुनरावलोकन प्रदर्शनी में संजय कुमार के लगभग साढ़े तीन दशकों के दरम्यान बनी कृतियाँ शामिल है। प्रारंभिक कामों में इनके द्वारा बनाये गए व्यक्ति चित्र, रेखांकन, इंस्टॉलेशन आदि शामिल हैं। जैसे शिशु, दादी, आदि के व्यक्ति चित्र जीवंत बन पड़े हैं। अपने इब्तदाई दौर, में संजय कुमार ने ज्यादातर श्वेत-श्याम रेखांकन किया है। इस दौरान रंग सामग्री के बतौर चारकोल तथा सौस (काला पाउडर) का उपयोग किया गया।लेकिन चेहरे को चित्रित करते समय ब्यौरों में जाने की जो सलाहियत दिखती है वह आगे चलकर संजय कुमार की खास पहचान बनती जाती है। संजय कुमार इस दौरान अपनी उंगली या रुई का इस्तेमाल रेखांकन के लिए करते रहे। नवजात शिशु या दादी मां की तस्वीर को उदाहरणस्वरूप लिया जा सकता है। इन कामों का वर्ष प्रदर्शनी में 1986 दर्ज किया गया है।

संजय कुमार के आरंभिक दौर में ही रंगों के इस्तेमाल, रेखांकन आदि में उनकी कलात्मक विशेषताओं को पहचाना जा सकता है जिसका आगे चलकर काफी विकास हुआ है। उदाहरण के लिए 1986 में पेपर पर वुडकट से बनी ‘ट्रीस्पेस ’ को लिया जा सकता है। चित्र के चारों ओर अंधेरा है वहीं ठीक मध्य में जहां पेड़ नुमा आकृति बनाई गई है वहां प्रकाश है, रौशनी है। संजय कुमार के काम में आगे चलकर विशेषकर बुद्ध श्रृंखला में अंधेरे व प्रकाश का जो जादुई आभामंडल हम पाते हैं उसके संकेत ‘ट्रीस्पेस’ में देखे जा सकते हैं। उनके पूरे चित्र संसार में हम शुरुआत से लेकर अभी तक इसे एक पैटर्न की तरह देख सकते हैं। कैनवास का तीन चौथाई या आधा हिस्सा स्याह तो एक छोटे हिस्से में प्रकाश का महसूसा जा सकता है। अंधेरी दुनिया के बीच में रौशनी है, नाउम्मीदी के बीच उम्मीद की किरणें भी हैं इसे प्रकट करने का प्रयास दिखता है।

इसी दौर की एक अन्य कृति ‘फेस टू फेस’ में उनकी यही प्रवृत्ति देखने में आती है। चेहरे के श्वेत-श्याम रेखांकन को विरूपित कर दिया गया है। चार-चार चेहरों के रेखांकन ऊपर और नीचे किये गए हैं। मध्य में जिसे कहते हैं ग्रे एरिया जैसा रखा गया है। नीचे की ओर वाले चेहरे के रेखांकन में स्याह रंग गाढ़ा होता चला गया है विशेषकर ऊपर वाले शहरों की तुलना में। इस चित्र की विशिष्टता है उन भावप्रवण चेहरों का एक दूसरे का प्रतिबिंब सरीखा होना। उपर वाला चेहरा अपेक्षाकृत श्वेत हैं वहीं नीचे के उससे मिलते जुलते चेहरे हल्के काले होते चले गए हैं। देखने वाले को ऐसा प्रतीत हो सकता है कि समाज में अंधेरा व रौशनी लाने वाली शक्तियां किस प्रकार आपस में मुठभेड़ कर रही हैं। इन दो विपरीत ताकतों का आपसी तनाव को इस दौर की इन तस्वीरों में इस अलग से पहचाना जा सकता है।

इस दौर में खासकर 1983-87 के दौरान उनके द्वारा बनाए गए रेखांकन भी ध्यान आकृष्ट करते हैं । पता नहीं क्यों उन रेखांकनों को क्यूरेटर ने बहुत कम तवज्जो दिया है। कई रेखांकनों को एक ही जगह जैसे-तैसे क्लब कर प्रदर्शित कर दिया है। उन रेखांकनों में संजय कुमार की विशिष्टता यह दिखाई पड़ती है कि लयात्मक रेखांकनों में एक गति, एक लय, एक बेचैनी को महसूसा जा सकता है। संजय कुमार के लयात्मक रेखांकन को सागर की लहरें, पालों वाली नाव में इसे देखा जा सकता है। एक रेखांकन जिसमें कई चश्मा पहने रहस्मय किस्म के लोग एक मृत लेटे व्यक्ति को गौर से देख रहे होते हैं। यह ब्लैक एंड व्हाइट रेखांकन सोलहवीं शताब्दी के चित्रकार रेम्ब्रां के एक प्रसिद्ध चित्र की छाया सी नजर आती है। लेकिन बड़े कैनवास वाले चित्रों मे ये महत्वपूर्ण रेखांकन थोड़े दब से जाते हैं ।

इस प्रदर्शनी में क्यूरेटर ने कुछ इस प्रकार डिजाइन किया है कि चित्रकार की विकास यात्रा को समझने में थोड़ी कठिनाई होती है। चित्रों को उनके बनाए गए समय के विकास क्रम के बजाए सजावट को ध्यान में रखकर टांगे गए प्रतीत होते हैं। इस कारण पुराने चित्र विशाल कैनवास वाले चित्रों में हल्के गुम से हो जाते हैं। पता नहीं क्यों डिस्प्ले में पहले के कामों की तुलना में बाद वाले कामों को अधिक तरजीह दी गई है? जबकि संजय कुमार के बाद वाले चित्रों को समझने की कुंजी उनके पूर्ववर्ती कामों में ही हैं। उनकी शैली, उनका कंपोजीशन, उनका कलर स्कीम, उनका टोन, उनके संपूर्ण अंदाज का अंकुरण पटना आर्ट कॉलेज के दौर में नजर आने लगते हैं जिसका प्रस्फुटन बाद में जाकर हुआ है।

संजय कुमार की रंग परियोजना में उनकी इस जीवन दृष्टि, जो उनकी कला दृष्टि में भी अभिव्यक्त होती है, कि अपने आस-पास के संसार में काली शक्तियां हैं तो उनसे लड़ने वाली उजली ताकतें भी हैं जिनसे आशा बंधती है इसे कैनवास पर उतारने की जद्दोजहद को देखा जा सकता है। इस विचार या समझ को और निखार के संजय कुमार ने अपने चर्चित ‘बुद्ध सीरीज’ में ऊंचाई पर पहुंचाया है। एक तरह से एक द्वंद्वात्मकता को, डायलेक्टिक्स को उनके काम में पहचाना जा सकता है।

‘इल्यूजन’ सीरीज:

संजय कुमार के चित्रों में इस प्रवृत्ति को 1999 में बने ‘इल्यूजन’ सीरीज में देखा जा सकता है। कैनवास में चारकोल और ब्लैक सौस पाउडर की सहायता से इस श्रृंखला को तैयार किया गया है। इस श्रृंखला में बने चित्रों में श्वेत -श्याम के अलावा कंपोजिशन में एक संतुलन दिखाई पड़ता है। इसके साथ-साथ दिक्-काल में एक तीसरे आयाम या कहें कि थ्री डी इफेक्ट के शुरुआती संकेत भी दिखाई पड़ने लगते हैं जिसका भी बुद्ध सीरीज में और अधिक इस्तेमाल दिखता है।

कैनवास का एक हिस्सा काले रंग से पेंट किया होता है वहीं दूसरे हिस्से को सफेद से पेंट कर कंट्रास्ट पैदा किया गया है। कभी कैनवास का दो हिस्सा काला तो एक हिस्सा सफेद।संजय कुमार इस सीरीज में लाइट का बेहद खूबसूरती से उपयोग करते हैं। एक गोलाकार आकृति इस श्रृंखला में आती है। कहा जाता है आकृति हमेशा किसी न किसी वस्तु को प्रकट करती है फलतः आकृति कभी ब्रह्मांड, कभी पृथ्वी तो कभी गेंद बनकर तस्वीर में आती है। विभिन्न आकृतियां आपस में मिलकर एक समन्वय, एक ऐसा संतुलन स्थापित करती है जो देखने वाले को एक नया रंग आस्वाद कराती है।

संजय कुमार के अधिकांश काम स्याह-सफेद की द्वंद्वात्मक फ्रेमवर्क में बने हैं। लेकिन बाद के चित्रों मं खासकर 2022 में बने बृद्ध श्रृंखला में कैनवास बड़े और रंगीन से होते चले गए।

संजय कुमार के काम में बुद्ध सन् 2000 के आस-पास से दाखिल होते दिखाई देते हैं। वैसे हाल के दिनों में बुद्ध की छवि का चित्र तथा कविता में धड़ल्ले से उपयोग हो रहा है। क्या यह महज संयोग कि हमारे समय के अधिकांश कलाकारों व साहित्यकारों को बुद्ध इतने आकर्षित करने लगे हैं ? बस कुछ दिनों पहले बिहार ललित कला शिक्षक संघ द्वारा आयोजित चित्र प्रदर्शनी में कई चित्रकारों ने बुद्ध और गांधी को पेंट किया है।

अपने चारों ओर फैली अराजकता और हिंसा के दौर में बुद्ध व गांधी शांति व सुकून की खोज की बेचैन तलाश है। संजय कुमार ने जब बुद्ध श्रृंखला पर काम शुरू किया तब दुनिया में उथल-पुथल से भरे युग में निर्णायक तौर पर प्रवेश कर गयी थी। वैश्विक स्तर पर अफगानिस्तान पर अमेरिका हमला कर चुका था जबकि इराक में उसका अगला निशाना था। राजनीतिक विश्लेषक इस बात की भविष्यवाणी कर रहे थे कि हमारा समाज अब ‘परमानेंट केओस’ की ओर बढ़ चुका है।

बुद्ध के करीब जाने की वजह संजय बताते हैँ ” बुद्ध से बड़ा ज्ञानी,साधक कौन हुए? जिनका न धर्म है जाति. न सुख, न दुख. धूप-छाँव से परे एक केंद्र बिंदु में ठहरा है जिसकी कोई परिधि नहीं है। नित्य है, नित्य नहीं. वर्तमान है भविष्य नहीं। यहां है, वहां नहीं। इनकी देह बोली और चेहरे की भाव-भंगिमा देख मन शान्तचित्त हो जाता है। और फिर मनुष्य के जीवन में शान्ति से बड़ी दौलत क्या है? वर्तमान से बड़ा अवसर क्या है? ठहराव से बढ़कर सुख क्या है? जीवन में इन्हीं चीजों के प्रति हमें बुद्ध के करीब लाती है. ”

इस पुनरावलोकन प्रदर्शनी में संजय कुमार ने चारकोल से ही काम शुरू किया लेकिन आगे चलकर चारकोल, पेन, सिल्वर इंक, मिक्स मीडिया, ऑयल, इनामेल सभी माध्यमों में काम करने का प्रयास किया। लेकिन शुरुआत में संजय कैनवास पर बुद्ध को चारकोल से चित्रित करते हैं और यहां वे अब तक चले आ रहे तकनीक यानी कोल व सफेद, अंधेरा व रौशनी का इस्तेमाल करते प्रतीत होते हैं।

बाद में हल्के मैरून कलर को उपयोग में लाते हैं। इस रंग का बौद्ध भिक्षुओं द्वारा इस्तेमाल रंग से काफी साम्य दिखाई पड़ता है। अब संजय कुमार बुद्ध की एक केंद्रीय छवि के साथ-साथ लघु बौद्ध भिक्षुओं को चित्रित करते हैं। बुद्ध के जीवन से जुड़ी कथाएं, घटनाक्रमों को अभिव्यक्त करते से नजर आते हैं। हाथियों के झुंड, बतख, मछली, घोड़े की छवि उभर कर पेंटिंग के बीच से आती है। कैनवास के ऊपर यदि महलों की बसावट दिखाई पड़ती है तो नीचे की ओर हाथियों को देखा जा सकता है। या फिर बुद्ध को केंद्र में रखकर भिक्षुओं को आते-जाते, अलग-अलग मुद्राओं में देखा जा सकता है। यदि आप बुद्ध के जीवन से जुड़ी घटनाओं से पहले से परिचित नहीं हैं तो संभव है चित्र जिस संदर्भ को ध्यान में रखकर बनाया गया है उस तक पहुंचने में प्रेक्षक को कठिनाई आ सकती है।

बुद्ध के प्रारंभिक और परवर्ती कामों में एक अंतर यह देखने केा मिलता है जैसे -जैसे संजय कुमार आगे बढ़ते गए हैं उनके कामों में स्थिरता सी नजर आने लगती है। यदि हम 2022 में बनाये गये बुद्ध के चित्रों की तुलना एक या दो दशक पूर्व के चित्रों से देखें तो तो यह फर्क साफ नजर आता है। चारकोल व साउस पाउडर वाले दौर के स्ट्रोक में रेखाएं लयात्मक रहा करती है इसे देखने वाले को एक हलचल का अहसास होता है। परन्तु धीरे-धीरे उनके चित्रों में विशेषकर बड़े कैनवास वाले चित्रों में एक किस्म की स्थिरता, शांति व ठहराव सा नजर आने लगता है। इस प्रक्रिया में चित्र का रंग भी बदलने लगता है। बाद के चित्र देखने पर एक सुकुन का, एक शांति का अहसास होता है जबकि पहले उसमें एक बेचैनी, एक अंदरूनी जद्दोजहद से कलाकार गुजरता मालूम पड़ता है।

प्रदर्शनी में एक चित्र विशेष रूप से ध्यान खींचता है वह है ‘ सायलेंट सरमन’। इस चित्र में संजय कुमार ने बुद्ध के भिक्षापात्र को बड़े कैनवास पर चित्रित किया है। यह चित्र उनके ‘बाउल सीरीज’ का हिस्सा है। भिक्षापात्र का बाहरी हिस्सा श्याम रंग से जबकि भीतरी हिस्से जहां बुद्ध कई लेयर्स में विभिन्न मुद्राओं में बैठे नजर आते हैं। इस तस्वीर की खूबसूरती है भिक्षापात्र जहां बुद्ध के चित्र यानी भीतरी हिस्से से रोशनी आती नजर आती है। यानी जहां बुद्ध है वहां प्रकाश है। यह चित्र भी त्रिआयामी प्रभाव पैदा करता है। भिक्षापात्र को संजय कुमार ने हल्का तिरछा चित्रित किया है जिससे एक मूवमेंट का इफेक्ट पैदा होता है। श्वेत-श्याम के पुराने कामों का यहां भी प्रभाव दिखता है। इस चित्र में संजय कुमार ने कलात्मक ऊंचाई हासिल की है। चित्र देखते हुए प्रेक्षक के मन में कई किस्म की भावनाएं उमड़ती है।

2022 में ही एक्रिलिक व इनामेल से बनाया गया ‘कालचक्र’ एक मोहक कलाकृति हैं। सूर्य की रौशनी सरीखी ‘कालचक्र’ में चित्रकार ने कल्पनाशीलता से कार्य लिया है। सूर्य को काले रंग से चित्रित किया गया है जो इंटरेस्ट पैदा करता है। बाकी सूर्य का प्रकाश काले रंग की गोलाकार आकृति से निकलती प्रतीत होती है। यहां संजय कुमार ने रंगों को उपयोग बेहद सावधानी से किया है। ‘कालचक्र’ सूर्योदय के वक्त की तरह सूर्य की लालिमा को पकड़ने का प्रयास करता है।

2009 में लकड़ी, तांबा व रेजिन से ‘पंचशील’ प्रदर्शनी में बुद्ध की भावनाओं को सबसे प्रभावी ढ़ंग से अभिव्यक्त करता है। संजय कुमार ने इसे बनाने में कल्पनाशीलता का सहारा लिया है। पांच खानों में बनी यह कलाकृति ‘अहिंसा’ के मूल्य को स्थापित करने का प्रयास करता है। बुद्ध यहां बीच में भिक्षा मांगने की मुद्रा में है वहीं बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो और बुरा मत बोलो के सिद्धांत को इस कृति के माध्यम से लोकप्रिय बनाने की कोशिश चल रही है।

1999 में चित्रित ‘साध्वी’ संजय कुमार की एक छोटी कृति है पर देखने वाले को रूकने पर मजबूर करती है। साघ्वी के बालों का खुलापन समाज की परंपराओं का धता बताती है साथ ही उसके चेहरे के भाव व देखने में बेपरवाह, एक किस्म की उदासीनता का भाव झलकता है। प्रदर्शन कक्ष में एक दरवाजे पर थोड़े बेलौस ढ़ंग से टंगे इस तस्वीर पर कम नजर जाती है।बड़े चित्रों के बीच यह छुप सी जाती है। पृष्ठभूमि का धूसर रंग पर काले केश चित्र के विद्रोही तेवर को उभारते प्रतीत होते हैं।

इस पुनरावलोकन प्रदर्शनी में एक अन्य चित्र भी दर्शकों का ध्यान खींचती है वह है ‘रिफ्लेक्शन्स’। 2022 में बनी यह तस्वीर कैनवास पर एक्रीलिक व इनामल से बाई गई है। इस चित्र में संजय कुमार ने रंगों का ऐसा अभिनव प्रयोग किया है जो देखने वाले पर गहरा प्रभाव डालता है। कैनवास को पहले एक्रीलिक से पेंट किया गया है फिर इनामल से उस काले पर और गहरे काले रंग का गोलाकार स्थल बनाया गया। फिर नीचे में अपने गाढ़े कत्थई वेशभूषा में बौद्ध भिक्षु बैठे हैं। संजय कुमार ने त्रिआयामी प्रभाव पैदा करने का प्रयास किया है। यह चित्र अपने रंगसंयोजन के लिए खासतौर पर दर्शकों को आकृष्ट करती है। काले, अंधेरे माहौल में बौद्ध धर्म की रौशनी छटा बिखेरती है। काले रंग का दो शेड तथा बौद्ध भिक्षुओं का अपना भगवा रंग चित्र को विशिष्ट बना डालता है।

बुद्ध पर बनाये चित्रों मे बौद्ध धर्म से जुड़ी दार्शनिक भावना को पकड़ने की कोशिश दिखती है। बौद्ध भिक्षु निस्पृह व उदासीन भाव आते -जाते हुए दिखते हैँ मानो जगत की असली सच्चाई से परिचित हों। बुद्ध चुप हैँ, स्थिर व शांत है। बुद्ध की चुप्पी बुद्ध की अधखुली आँखें मानो भौतिक जगत के यथार्थ पर नजर डालने की जहमत तक उठाना नहीं चाहती। बुद्ध को ‘जन्नत की हकीकत ‘ पता है !

संजय कुमार ने एक मूर्ति हल्के हरे रंग से बनाया है। चेहरे को सिल्वर कलर से सपाट कर दिया गया है। मूर्ति के चारों ओर विभिन्न धर्मों से जुड़े कथन, कथाएं आदि चित्रित की गयी है। यह मूर्ति भी पुनरावलोकन प्रदर्शनी के दर्शकों के लिए ठहरने की जगह बन गई थी। मूर्ति का हल्का हरा रंग तथा सिल्वर कलर का चेहरा और मूर्ति को थोड़े डायग्नल अंदाज में बनाया जाना इससे मूर्ति में एक गति का प्रभाव पैदा होता है। संजय कुमार ने चित्रकला के साथ-साथ मूर्तिकला में भी सफलतापूर्वक हाथ आजमाया हुआ है। दोनों माध्यमों में एक सफाई दिखती है।

संजय कुमार ने बुद्ध के संपूर्ण व्यक्तित्व को भारत में बेहद लोकप्रिय रामायण व महाभारत के साथ जोड़कर देखने का प्रयास किया है। एक चित्र में चित्रकार ने गोलाकार आकृति में पहले रामायण, दूसरे महाभारत व बुद्ध की कहानी को पेंट किया है। रामायण व महाभारत जहां मिथक हैं वहीं बुद्ध ऐतिहासिक शख्सियत हैं। संजय कुमार ने बुद्ध को रामायण , महाभारत की अगली कड़ी में रूप में समझने का प्रयास किया है। रामायण, महाभारत सारीखे महाकाव्य और बुद्ध के महाकाव्यात्मक जीवन को उतारने के लिए बड़े कैनवास का इस्तेमाल किया गया है। चित्र जितनी गहराई से ब्योरों में, तफसील से जाती है इस कारण वह देखने वाले से समय की मांग करता है। इनके चित्र हड़बड़ी व जल्दबाजी में नहीं बल्कि स्थिर से शांति पूर्वक देखने की मांग करता है। तभी तस्वीर के बुद्ध के मौन को समझा जा सकता है। हर चित्र कुछ कहने की कोशिश करता है। बुद्ध के ध्यान की विभिन्न मुद्राओं को बेहद धैर्य के साथ कैनवास पर उतारा गया है। बुद्ध की प्रचलित छवि में अपने चित्रों को कैद करने के बजाए संजय कुमार ने उससे बाहर आने की कोशिश बुद्ध को पेंट करते वक़्त किया है। लम्बी व घुमावदार गर्दन वाले बुद्ध ऐसी ही पेंटिंगों में से एक है।

पुनरावलोकन प्रदर्शनी में इंस्टॉलेशन दर्शकों का अलग से ध्यान खींचते हैँ। ख़ासकर बुद्ध का विशाल भिक्षा पात्र और उसमें रखे गए अत्याधुनिक बंदूकें व राइफलें सबके आकर्षण का केंद्र रहे। अहिंसा व हिंसा के एक दूसरे की विपरीत भावनाओं के प्रतीक इन दोनों का एक साथ उपस्थिति उस विडंबना को सामने लाती है जो हमारे युग की पहचान सी है। संजय की कृतियों में हमेशा द्वंद्वात्मकता को देखा जा सकता है। दो विपरीत तत्वों को एक फ्रेम में रखा जाता है।

संजय के चित्रों के कम्पोजीशन, रंग परियोजना सहित अन्य अवयवों के ढाँचागत संतुलन दिखाई पड़ता है। संजय कथा कहने के साथ-साथ जिन छवियों को सामने लाना चाहते हैँ, उनके मध्य एक अंदरूनी तारतम्यता कायम करते हैं जिसे हासिल करना कलात्मक अनुशासन की मांग करता है।

संजय कुमार ने अपने चार दशकों के लम्बे रचनात्मक जीवन में अपनी जो रचनात्मक भाषा विकसित की है उसमें उनके कलात्मक अनुभव के साथ साथ अपनी एक वैचारिक समझ भी है। जाहिर है उनकी यह चित्र भाषा दर्शकों से गंभीरता व ठहराव दोनों की मांग करता है।

 

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