सुमहेन्द्र: भारतीय परंपरा का एक आधुनिक कलाकार

कला-गुरु डाॅ० महेन्द्र कुमार शर्मा  (1944-2012)

के  77 वें जन्मोत्सव  (2 नवम्बर) पर विशेष :

♦ अखिलेश निगम

भारतीय आधुनिक कला के नाम पर जो आपा-धापी मची है, उसने कला के मापदंड में परिवर्तन किया है, इसे स्वीकारना ही होगा। ‘आधुनिक-कला’ संज्ञक आज की कला (अधिकतर) को समाज ने मान्यता दी है अथवा एक सीमित दायरे के कुछ व्यक्तियों को ही ‘समाज’ मानकर उनकी मान्यता को ही लक्ष्य की इतिश्री समझा जा रहा है, यह प्रश्न भी इसके साथ ही विचारणीय है। यह एक लम्बी बहस का मुद्दा है इसलिए फिर कभी, खैर…

ऐसे वातावरण के मध्य जब लीक से हटकर हमें कुछ ‘नया’ देखने को मिलता है तब एक सुखद अनुभूति होती है। ऐसी ही अनुभूति राजस्थानी चित्रकार सुमहेन्द्र की कला कृतियों को देखकर मिलती है।

स्वयं का एक रेखांकन

‘सुमहेन्द्र’ नाम से बहुचर्चित राजस्थान के प्रतिनिधि चित्रकार महेन्द्र कुमार शर्मा (जन्मः 1943) भारत के उन चंद कलाकारों में हैं जिन्होंने देश की परम्परागत कला-शैलियों को जीवन्त बनाये रखा। जयपुर में रसे-बसे सुमहेन्द्र पर आंचलिकता का प्रभाव प्रचुर मात्रा में पड़ा, यही कारण है कि राजस्थान की प्रख्यात किशनगढ़ शैली में उनके चित्रांकन अधिक मिलते हैं। फलतः उनकी कृतियों के नायक-नायिका भी किशनगढ़ शैली के प्रवर्तक नागरीदास तथा उनकी प्रेयसी बणींठणीं ही रही हैं।

आइने के सामने’ : ‘बणींठणी’ का श्रृंगार (आधुनिक नारी)

सुमहेन्द्र ने परम्परागत विशेषता एवं प्रभाव को समाप्त किये बगैर अपनी कृतियों में आधुनिक प्रभाव उत्पन्न कर एक नवीनता एवं मौलिकता का सृजन किया। उन्होंने उन परम्परागत नायक- नायिकाओं को आज के जन-जीवन में प्रतीक स्वरूप उतारा। उनका नायक आज का सामान्य नागरिक है, जो संघर्षों से जूझता, समझौतावादी बन कर हर संभव-असंभव करने को तत्पर है, और वह सामंतवाद जो आज भी किसी न किसी रूप में यहां विद्यामान है। उनकी कृतियों में उजागर यह कुरूप यथार्थ आज के समाज पर चुटीले तंज कसते हैं। आज का मानव कहां, कैसे टूट रहा है… सुमहेन्द्र ने उस नस को पकड़ लिया था।

उनकी ‘लाशें’ शीर्षक चित्र में सीमान्त गाँव बाड़मेर-जैसलमेर की मार्मिक सत्य घटना का चित्रण मिलता है; जिसमें, वृद्ध पिता का युवा बेटा ‘आधुनिक सभ्यता’ का प्रतीक, जब अपने गांव पहुंचता है तभी सीमा का एक सिपाही उसकी बहन के साथ बलात्कार कर बैठता है, जिससे लड़की के हाथ का प्याज और रोटी छूट कर जमीन पर गिर पड़े हैं, और पास ही खून से सनी संगीन (बंदूक) पड़ी है. भाई, बहन की चीत्कार सुनकर भी, विवश अनसुनी कर देता है ! बाप-बेटे के सर झुके हैं… जीवन तो है पर मृत्यु-समान।

आधुनिकता के मोह में जकड़ी आज की फैशन परस्त नारी का चित्रण `आधुनिक नारी` चित्र श्रंखला में किया गया है। प्रतीकस्वरुपा यह नारी और कोई नहीं ‘बणींठणीं’ ही हैं। परंपरा का आधुनिक रूपांतरण। वहीं पीला मुरझाया यौवन लिए आज का दिग्भ्रांत युवक भी ‘युवा’ चित्र में दर्शाया गया है। इस चित्र में नायक के नयनों से एक निरीहता टपकती मिलती है। समसामयिक और व्यंग्यात्मक शैली के इन चित्रों में नेता, रात में छत, फ्लोर मिल, प्रशिक्षण आदि कृतियां भी उल्लेखनीय बन पड़ीं हैं।

मालविकाग्निमित्रम पर आधारित एक चित्र

एक ओर जहां कलाकार ने जीवन के नग्न सत्यों को रुपापित किया है वहीं दूसरी ओर नारी की विरह-भावना ने भी कलाकार-हृदय को स्पर्श किया है। उनकी ‘लोनली नाइट’ श्रंखला इसका स्पष्ट परिचायक है। जिसमें विरहणीं नायिकायें विभिन्न मुद्राओं एवं आसनों में विरह-व्याकुल हैं। प्रकृति भी उनकी व्याकुलता की सहचरी बन बैठी है…पिघलता चांद है। इस श्रृंखला के चित्रों को देखकर हटात् यह पंक्तियां मुख से निकल पड़ती हैं –

विरहणी की
विरह-सी व्याकुल
निशा ने –
रात भर
शबनमी मोतियों की
बरसात की
और, चांद
गलता रहा,
…गलता रहा
आँचल फैलाए
धरती
भोर तक
पोछती रही
निशा – नयन !

नारी की विरह-वेदना के साथ उसकी चारित्रिक विशेषताओं अर्थात् नायिका भेद यथा- पद्मनी, रागिनी, चित्रणी, हस्तनी नायिकाओं का चित्रण भी चित्रकार ने बड़ी सूक्ष्मता से किया है। रंग-विश्लेषण, रेखा-बल और लघु चित्रों की शास्त्रीयता का सुमहेन्द्र ने सशक्तता पूर्वक निर्वाह किया है परन्तु सम्प्रेषणीयता की दृष्टि से एक-आध स्थान पर वे चूक से गये हैं। लेकिन चित्रों का संयुक्त प्रभाव संतुष्टि प्रदान करने में समर्थ मिलता है। जिसमें आगे चलकर उन्होंने सुधार भी कर लिया था। नायिका प्रधान चित्रों के अलावा महाराणा प्रताप आदि राजस्थान के वीर सपूतों पर भी उन्होंने चित्रण किये हैं। सुमहेन्द्र की कलाकृतियां भविष्य के प्रति आस्थावान रही हैं, और कला की आपा-धापी से अलग भारतीय आधुनिक कला की प्रतीक भी।

सुमहेन्द्र के मूर्तिशिल्प

सुमहेन्द्र सिर्फ चित्रकार ही नहीं थे बल्कि वे प्रतिष्ठित मूर्तिकार, कला शिक्षाविद् तथा कला समीक्षक भी रहे, और राष्ट्रीय ललित कला अकादमी के लिए चित्र-संरक्षण और प्राचीन भारतीय भित्ति चित्रों की अनुकृतियों का महत्वपूर्ण काम भी उन्होंने किया। लोक सभा में निर्मित म्यूरल ‘अकबर-दरबार’ उनकी एक चर्चित रचना है। उनके अनेक चित्रों में वे स्वयं भी एक पात्र-रुप में नज़र आते हैं, जिनमें विभिन्न रुपों और विधाओं के उनके पोट्रेट्स भी हैं।

महाराणा प्रताप श्रंखला का एक चित्र

राजस्थान ललित कला अकादमी एवं अन्य महत्वपूर्ण पुरस्कारों के अतिरिक्त वर्ष 1972 में सुमहेन्द्र ‘राष्ट्रीय कला पुरस्कार’ से भी सम्मानित हुए थे। राजस्थान स्कूल आॅफ आर्ट्स के प्रधानाचार्य, राजस्थान ललित कला अकादमी के सचिव, जवाहर कला केन्द्र के निदेशक (दृश्य कला) जैसे कई महत्वपूर्ण पदों पर वे रहे। और राष्ट्रीय ललित कला अकादमी में एक ‘विशिष्ट कलाकार’ के रूप में उसकी महासभा के सदस्य भी।

कला-गुरु राम गोपाल विजयवर्गीय जी के साथ सुमहेन्द्र.

कलाविद् पद्मश्री राम गोपाल विजयवर्गीय जी उनके गुरू थे। गुरु-शिष्य परंपरा को वह मान देते थे परंतु इससे अलग राजस्थान स्कूल आॅफ आर्टस् से उन्होंने ललित कला व मूर्ति कला में डिप्लोमा और अजमेर से चित्रकला में एम.ए. परीक्षा स्वर्ण-पदक प्राप्त कर उत्तीर्ण की थी। बाद में ‘रागमाला चित्र परंपराओं’ पर उन्होंने पी.एच- डी. उपाधि भी हासिल की थी।

उनके कला-उन्नयन के प्रयासों में ‘कलावृत्त’, युवा सृजक मंच, की चर्चा करना भी महत्वपूर्ण कथ्य है। वर्ष 1970 में इस मंच की परिकल्पना उन्होंने मेरे साथ मिलकर की थी। संक्षेप में इतना कि इसका उद्देश्य युवा कलाकारों को एक मंच प्रदान करना था। अत: इसके माध्यम से कला प्रदर्शनी, कलाकार शिविर और संगोष्ठियां आदि के आयोजन किये जाते रहे। वहीं ‘कलावृत्त’ नाम से ही एक त्रैमासिक और वार्षिक कला पत्रिका (द्विभाषी) का प्रकाशन भी एक महत्वपूर्ण कार्य रहा। यहां यह लिखना अन्यथा न होगा कि सुमहेन्द्र के ज्येष्ठ पुत्र संदीप अपने पिता के इस कार्य को बड़ी लगनशीलता से निरंतर गति दे रहे हैं।

सुमहेन्द्र जैसे बहुआयामी व्यक्तित्व के कलाकार भारतीय कला क्षेत्र में बहुत कम ही मिलते हैं। यह मेरा सौभाग्य रहा कि हम घनिष्ठ मित्र रहे, और आजीवन पारिवारिक रूप में हम इसे निभाते रहे। कैंसर ने उन्हें हमसे जल्दी छीन लिया वर्ना अभी बहुत काम करने थे। ऐसे निष्ठावान मित्र, कलाकार को शत शत नमन।

संपर्क : 9580239360
ई-मेल : akhileshnigam44@gmail.com

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