फ्रांसिस न्यूटन सूजा – विरूपण, नग्नता और गहनता का चित्रकार

अनीश अंकुर यूं तो पटना के कला एवं सांस्कृतिक जगत में अपनी विशेष पहचान रखते हैं। आलेखन डॉट इन के सुधि पाठक इस बात से भलीभांति अवगत हैं, और नियमित तौर पर बिहार की कला गतिविधियों पर उनकी समीक्षात्मक टिप्पणी पढ़ते रहते हैं । क्योंकि उनकी सदैव कोशिश रहती है बिहार से बाहर के कला जगत को बिहार की कला गतिविधियों से रूबरू कराते रहा जाए। लेकिन उनके व्यक्तित्व का एक पक्ष यह भी है कि जब वे बिहार से बाहर कहीं निकलते हैं, तब समय निकालकर वहां चल रही कला प्रदर्शनियों का अवलोकन भी अवश्य करते हैं। पिछले दिनों ललित कला अकादेमी की कला दीर्घा में सूजा की जन्मशती को ध्यान में रखते हुए धूमीमल आर्ट गैलरी द्वारा सूजा की कलाकृतियों की एक वृहत प्रदर्शनी आयोजित हुयी थी। संयोग से उनदिनों अनीश दिल्ली आये थे, अब वहां से वापसी के बाद सूजा की इस प्रदर्शनी से संबंधित यह आलेख भेजा है। विस्तृत आलेख का पहला हिस्सा यहाँ प्रस्तुत है आप पाठकों के लिए ….

अनीश अंकुर
  • धूमीमल आर्ट गैलरी द्वारा सूजा की जन्म शताब्दी वर्ष के मौके पर पुनरावलोकन प्रदर्शनी

धूमीमल आर्ट गैलरी द्वारा राष्ट्रीय ललित कला अकादेमी, नई दिल्ली में फ्रांसिस न्यूटन सूजा के चित्रों की पुनरावलोकन प्रदर्शनी 5 से 15 फरवरी तक आयोजित की गई। भारत में बीसवीं सदी के प्रमुख कलाकार माने जाने वाले सूजा की जन्म शताब्दी वर्ष (1924-2024 ) के अवसर पर आयोजित इस प्रदर्शनी में सूजा के दुर्लभ चित्रों को देखने का मौका कलाप्रमियों को मिल सका। इस प्रदर्शनी का नाम सूजा के व्यक्तित्व के अनुरूप ही “रेमिन्सिंग सूजा: ऐन आईकाॅनाॅक्लास्टिक विजन” सूजा की याद: एक मूर्तिभंजक नजरिया’ है।

इन चित्रों में सूजा के रेखांकनों के अलावा विभिन्न माध्यमों और अनुशासनों- कार्डबोर्ड पर पेपर और पेन, पेपर पर स्याही, पेपर पर मार्कर पेन, कैनवास पर तैलचित्र, एक्रीलिक,पेपर पर केमिकल अल्टरेशन, में बनाई गयी उनकी कृतियां इस प्रदर्शनी का हिस्सा है। इस प्रदर्शनी को यशोधरा डालमिया ने क्यूरेट किया है।

धूमीमल गैलरी की गिनती भारत के सबसे पुरानी आर्ट गैलरियों में की जाती है। इस गैलरी की स्थापना 1936 में ही हो गयी थी। धूमीमल आर्ट गैलरी को ही यह श्रेय जाता है कि उसने 1960 में सूजा की प्रदर्शनी भारत में लगायी थी। दूसरी प्रदर्शनी 1976 में लगी। 1976 की प्रदर्शनी में मात्र एक चित्र ही बिक सका था। वह भी लैंडस्केप। उनके कामोद्यीपक चित्रों को कलाप्रमियों ने तब पसंद नहीं किया था। फिर 2010 में भी यशोधरा डालमियां द्वारा ही सूजा पर केंद्रित प्रदर्शनी को क्यूरेट किया गया था।

फ्रांसिस न्यूटन सूजा को भारत में प्रोग्रेसिव आर्ट ग्रुप ( पी.ए.जी) के संस्थापक सदस्य के रूप में जाना जाता है। इस ग्रुप से जुड़े अन्य प्रमुख लोगों में थे – सैयद हैदर रजा, एम.एफ.हुसैन, वी.एस.गायतोंडे, के.एच. आरा, एस.के. बाकरे, एच.ए गाडे आदि। इन सबका नाम बीसवीं सदी के कला परिदृश्य में प्रमुखता से लिया जाता है। यह पूरा समूह भारत में धर्म, जाति और क्षेत्र के बंधनों का अतिक्रमण करते हुए बना था। सूजा इस पूरे समूह के नेता माने जाते रहे हैं जिन्होंने पी.ए.जी का शुरूआती घोषणापत्र लिखा था। सूजा और उनका ग्रुप द्वितीय विश्वयुद्ध और उसके बाद के भयंकर उथल-पुथल को चित्रित करना चाहता था।

इस ग्रुप ने जिसने भारत के कला इतिहास में बंगाल स्कूल के भावुकता प्रधान पुनरूत्थानवादी चित्रों के समक्ष गंभीर चुनौती प्रस्तुत कर दिया था। तब मुंबई भारत में दो बड़े वैचारिक आन्दोलनों – प्रगतिशील लेखक संघ और भारतीय जन नाट्य संघ ( इप्टा )- का भी केंद्र बना हुआ था। फिल्मों के स्तर पर भी कुछ-कुछ ऐसा ही माहौल था। तब के इन युवा चित्रकारों ने जैसा कि क्यूरेटर यशोधरा डालमिया कहती हैं ‘‘उत्तर-औपनिवेशिक दौर में इन चित्रकारों ने अनुकरण करने वाली ठहरे हुए सुंदर दृश्यों, जिसने कला को स्थिर व गतिहीन बना दिया था, के बदले बेहद जीवंत और कल्पना शक्ति से भर दिया था।” सूजा के नेतृत्व वाला ‘प्रोग्रेसिव आर्ट ग्रुप’ कला में आधुनिकता का पक्षधर था। इसका नारा भी था ‘‘ यदि कला आधुनिक नहीं है तो फिर वह कला ही नहीं है। ’’

1964 में सूजा को यूरोप के चार सबसे बेहतरीन चित्रकारों में शुमार किया गया। भारतीय कलाकारों में वह एकमात्र ऐसे हैं जिनके लिए लंदन के टाटे माॅडर्न में एक कमरा उनके कृतियों के लिए समर्पित है। सूजा को साठ के दशक में एक्रीलिक पेंट इस्तेमाल करने वाले सबसे पहले के लोगों में माना जाता है।

सूजा के जीनकाल में उनके कुछ ही काम भारत में बिक सके। उसकी एक प्रमुख वजह यह रही कि उनके कामों में न तो सजावटी लैंडस्केप और न ही भारतीय मिथकों पर आधारित आध्यात्मिक व्याख्याएं दिखती हैं। ज्यादातर भारतीय खरीददारों को ऐसी चीजें ही पसंद आती थीं। उनके ज्यादातर चित्र ईसाईयत से लेकर सेक्स तक का मजाक उड़ाती रही है। उनके चित्रों पर नग्न होने का आरोप लगा। भारत में यह कहा जाता रहा है कि सूजा के नग्न चित्रों को घर के ड्राइंग रूम में लगाना संभव नहीं है। घर में बच्चों के बीच सूजा के चित्र टांगना अच्छा नहीं है। सूजा ने एक बार कहा भी था “मैंने दोमुंहें पाखंडियों के खिलाफ गोली या चाकू के बदले रंगों का उपयोग किया है।”

इतने बड़े कलाकार के लिए यह दुर्भाग्य की भी बात है उसका व्यवस्थित अध्ययन नहीं हुआ है। एक तो उनके चित्र दुनिया भर के विभिन्न संग्राहकों के घर हैं दूसरी मुश्किल यह है कि कई शादियों से पैदा हुुए उनके बच्चों के पास भी काफी काम है जो आपस में बिखरे हुए हैं । उनके सम्पूर्ण कार्यों का एक जगह इकट्ठा नहीं हो पाना भी उनपर केंद्रित गंभीर अध्ययन में एक बाधा की तरह है। वैसे कई प्रमुख कला समीक्षकों ने उनके काम पर लिखा है जो उनके कला व्यक्तित्व को समझने में हमारी सहायता कर सकते हैं। सूजा की कला में ईसाई परंपरा और कामोद्यीपक चित्र प्रमुख रहे हैं। ईसा को सूली पर चढ़ाने से संबंधित चित्र या ‘लास्ट सपर’, मदर एंड चाइल्ड आदि काफी चर्चित कृतियां हैं।

प्रारंभिक जीवन :

फ्रांसिस न्यूटन सूजा का जन्म 1924 में पुर्तगाली काॅलोनी गोवा के एक रोमन कैथोलिक परिवार में हुआ था। मात्र पांच वर्ष की अवस्था में उनकी मां उन्हें लेकर मुंबई आ गई थी क्योंकि उनके पिता व बड़ी बहन का असमय इंतकाल हो गया था। उनकी मां लिली मैरी एंट्यूनेस मुंबई में पोशाक सिलने का काम करती थी। उनकी मां ने दूसरा विवाह कर लिया था। सूजा के जन्म के वक्त ही, जब वे मात्र तीन महीने के थे, उनके पिता की मृत्यु हो गयी थी। सूजा के अंदर इस बात की हमेशा एक ग्रंथि बनी रही कि उनके जन्म के साथ ही उनके पिता की मौत हुई फलतः वे ही उनकी मौत के लिए जिम्मेवार हैं। उनके जटिल व्यक्तित्व में बचपन की इस मनोग्रंथि की भी भूमिका रही है। चित्रकार लान्सेलेटो रिबेरो उनकी मां के दूसरे पति से पैदा भाई थे।

उनकी मां सिलाई मशीन पर स्त्रियों की पोशाक सिलने का काम करती थी। आसपास की संपन्न घरों की महिलायें उनसे अपने कपड़ों की फीटिंग करवाने आया करती थीं। सूजा के अनुसार बचपन में इन महिलाओं को उनकी देह की माप के अनुसार कपड़ा सिलवाने आते देख उन्हें स्त्री शरीर रचना का इतना अच्छा ज्ञान हो सका था। बाद के दिनों में स्त्रियों की देह उनके चित्रों में बहुतायत में पायी जाने लगीं।

बड़े होने पर पढ़ाई के लिए सूजा मुंबई के सेंट जेवियर्स काॅलेज में गए लेकिन 1939 में उन्हें काॅलेज से निष्कासित कर दिया गया। दरअसल स्कूल की प्रयोगशाला में इनपर अश्लील चित्र बनाने का आरोप लगा जबकि सूजा का कहना था अश्लील चित्र पहले से बना था वे उसमें बस सुधार करने की केाशिश कर रहे थे। उनके अंदर के चित्रकार की यह पहली खोज थी। आगे उन्होंने तय किया कि वे चित्रकार ही बनेंगे। सूजा जब चित्र की दुनिया में अपना भविष्य तलाश करने की कोशिश कर रहे थे उस वक्त गोवा में सूजा के हमउम्र लड़के किसी हाटल में कुक, दर्जी, बैंड लीडर या कैथोलिक स्कूल में पादरी या शिक्षक बनने के बारे में सोचा करते थे। एक बार जब बचपन में सूजा को चेचक हो गया था तब उनकी मां ने ईश्वर से प्रार्थना की थी कि यदि उनका बच्चा जीवित बच जाए तो उसे वह चर्च को सौंप देगी। परन्तु सूजा का भवितव्य कुछ और था। सूजा ने पादरी के बदले चित्रकार बनना तय किया। सूजा का चऱित्र बचपन से ही एक जटिल किस्म का रहा है। उन्होंने अपनी मां के विषय में एक विचित्र बात कही है ‘‘मैंने अपनी मां के गर्भ में ही म्युरल चित्र बनाना शुरू कर दिया था। ’’

इसके बाद उनका नामांकन मुंबई के प्रसिद्ध जे.जे स्कूल ऑफ आर्ट में हुआ। लेकिन यहां से भी इन्हें उनकी राष्ट्रवादी गतिविधियों के कारण निकाल दिया गया था। उन्होंने ब्रिटिश साम्राज्य का झंडा यूनियन जैक को उतार फेंका था और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में हिस्सा लिया था। निकाले जाने की एक वजह बकौल सूजा ‘‘वे अपने स्कूल के बेकार और दिखावा करने वाले अंग्रेज निदेशक को हटाना चाहते थे।”

जिस दिन सूजा जे.जे स्कूल ऑफ आर्ट से निकाले गए घर लौटकर अपनी माँ को सब कुछ बताया।और आवेश की उसी स्थिति में उन्होंने घर में मां द्वारा खरीदे गए प्लाइवुड पर हल्के चाकू से ब्लू रंग में एक नग्न लड़की का चित्र बनाया जिसकी पृष्ठभूमि में ठहरा हुआ लैंडस्केप था। यह चित्र उत्तेजना की अवस्था में सूजा ने मात्र दो घंटे में बना डाला था। इस चित्र का नाम रखा गया ‘द ब्लू लेडी ’। इस चित्र को दिसंबर1945 में हुए उनके पहले एकल प्रदर्शनी में प्रदर्शित किया गया। उनके सैंकड़ों बने चित्रों में से पचास चित्रों को इस प्रदर्शनी के लिए चुना गया था। ये सारे चित्र काॅलेज से उनकी बर्खास्तगी के बाद बनाए गए थे। पहली पेंटिंग को पुर्तगाली लड़की मारिया ने खरीदा। आगे चलकर इसी लड़की से सूजा का विवाह हुआ।

‘ब्लू लेडी’ को बड़ौदा म्युजियम के डाॅ हर्मन गोएट्ज ने खरीदा था। उन्होंने सूजा को बताया कि भले ही चित्र के कुछ ब्योरे असंतोषजनक हैं पर कुल-मिलाकर चित्र बेहद आकर्षक बन पड़ा है। डाॅ हर्मन गोएट्ज बड़ौदा म्युजियम पिक्चर गैलरी के क्यूरेटर भी थे। उन्होंने बड़ौदा के स्टेट म्युजियम के बुलटिन में इसकी समीक्षा लिखी जिसका शीर्षक था ‘‘विद्रोही कलाकार: फ्रांसिस न्यूटन’’। बाद में इस आलेख को मुल्कराज आनंद द्वारा संपादित ‘मार्ग’ पत्रिका में पुर्नप्रकाशित किया गया। डाॅ गोएट्ज ने ‘ ब्लू लेडी’ को खरीदने के साथ ही एक निजी पत्र भी सूजा को भेजा जिसमें उन्होंने लिखा ‘‘तुम्हारा इंक्लाबी जज्बा तुम्हारे लिए भविष्य में मुसीबतें भी लेकर आएगा। पर तुम लड़ते रहो। भविष्य उन्हीं का हुआ करता है जो अपनी आत्माभिव्यक्ति और अपने विचारों के लिए संघर्ष करते हैं।’’

जे.जे स्कूल ऑफ आर्ट से निकाले जाने के बाद फ्रांसिस न्यूटन सूजा कम्युनिस्ट पार्टी (सी.पी.आई) में शामिल हो गए। सूजा ने खुद को फासीवादी शक्तियों के खिलाफ कैंप से जोड़ा। जिस वर्ष देश आजाद हुआ सूजा ने, यानी 1947 में, बाॅम्बे प्रोग्रसिव आर्टिस्ट ग्रुप की स्थापना की। प्रोग्रसिव आर्टिस्ट ग्रुप की स्थापना भारतीय चित्रकला में एक टर्निंग प्वाइंट की तरह है जिसने रंगों व छवियों की दुनिया को हमेशा के लिए बदल डाला। प्रारंभ में सूजा के चित्र ‘सर्वहारा’ तत्व लिये हुए रहते हैं। सूजा बंबई के श्रमिकों के रहने के इलाकों में प्रोग्रेसिव आर्ट ग्रुप की प्रदर्शनी लगाया करते थे। कम्युनिस्ट पार्टी के तत्कालीन अखबार ‘पीपुल्स एज’ ने सूजा के बारे में टिप्पणी की थी कि ‘‘वे एक देशभक्त और क्रांतिकारी हैं।’’ 1949 में इंग्लैंड चले जाने तक कम्युनिस्ट पार्टी से उनकी यह संबद्धता बनी रही।

1948 में लंदन के बर्लिंग्टन हाउस में आयोजित भारतीय कला प्रदर्शनी में सूजा के चित्रों को शामिल किया गया। गोवा में उन के चित्रों में नग्नता और अश्लीलता होने संबंधी कई शिकायतें पुलिस में आने लगी थीं। इसके साथ-साथ सूजा मुंबई की कला दुनिया से थोड़े उबने लगे थे। उन्हें लगने लगा था कि बाॅम्बे अब लंदन के एक उपनगर (सबर्ब) की तरह काम कर रहा है।टोन और एजेंडा लंदन में तय होता है और बाॅम्बे उसका सिर्फ अंधानुकरण करता है। ऐसे में चलकर खुद देखना चाहिए कि लंदन की दुनिया कैसी है। फलतः 1949 में सूजा इंग्लैंड में प्रवासी के रूप में रहने लगे। अगले चार-पांच साल सूजा के लिए बेहद मुश्किलों भरे रहे। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद लंदन खस्ताहाल अवस्था में था। सूजा की पत्नी मारिया को जीविका के चलाने के लिए काम करना पड़ा वहीं सूजा ने पत्रकारिता का पेशा अपनाया।

इंस्टीट्यूट ऑफ कंटेंपरेरी आर्ट ने 1954 में उनके चित्रों को प्रदर्शित किया था। उनकी सफलता का श्रेय बहुत हद तक ‘इन्काउंटर’ पत्रिका में प्रकाशित उनके आत्मकथात्मक आलेख ‘निर्वाणा ऑफ ए मैग्गोट’ (एक कीड़े का निर्वाण) को माना जाता है।

1960 का दशक सूजा के कैरियर के लिहाज से अच्छा माना जाता है। इंग्लैंड में उनकी धूम थी। बड़े-बड़े कला समीक्षक उनपर लिख रहे थे। 1964 में जब वे 40 साल के थे तब 16 साल की लड़की से उनकी मुलाकात हुई और अगले वर्ष उससे विवाह कर लिया। अखबारों ने लिखा ‘‘ चालीस के सूजा ने 16 साल की लड़की से विवाह किया।’’ इंग्लैंड में उनकी लोकप्रियता घटने लगी थी। 1968 में अपनी दूसरी पत्नी के साथ सूजा अमेरिका चले गए।

वैसे तो सूजा 1949 के बाद भारत से बाहर ही रहे पर वे कहा करते थे कि वे मुख्यतः भारतीय चित्रकार हैं जिन्हें यहां की रंगों से, उष्मा से, भोजन, लोगों और विचारों की गहराई से काफी लगाव था। सूजा ने कहीं पर कहा है कि चर्च में जाने के दौरान उनका छवियों और बिम्बों की दुनिया से परिचय हुआ था। कृष्ण खन्ना ने लंदन में 1954 में सूजा से यह पूछा कि क्या आप भारत लौटने का इरादा रखते हैं? सूजा का जवाब था ‘‘ बिल्कुल ! ताकि अपने अंदर की बैटरी को रिचार्ज कर सकें।’’ कृष्ण खन्ना ने यह भी कहा कि मैंने महसूस किया है कि उनके अंदर एक किस्म का ‘होम-सिकनेस’ था।

सूजा अपने मस्तमौला और विद्रोही और आक्रामक स्वभाव के लिए जाने जाते थे। सूजा चित्रकला में आधुनिक संवेदना को लाने वाली शख्सियत माने जाते हैं। कृष्ण खन्ना ने सूजा पर लिखे अपनी एक टिप्पणी में कहा है कि वे अस्थिर चित्त के व्यक्ति थे और अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में अपने कार्यों की आलेचना करने पर आक्रामक हो उठते थे। जगदीश स्वामीनाथन पर वे काफी खफा रहा करते थे। परन्तु एक शाम दोनों देर तक साथ बैठे तो दोनों एक दूसरे का पोट्रेट भी बनाते नजर आए। ऐसा था उनका स्वभाव ।

लेकिन दुनिया भर में मशहूर और लोकप्रिय सूजा के चित्रों की बिक्री भारत में लगभग नहीं हो पाती थी। वैसे भी भारत में कला के अच्छे पारखी और संग्राहक बहुत कम थे। ऐसे कुछ चुनिंदा लोगों में सुप्रसिद्ध नाट्य निर्देशक इब्राहाम अलका जी, प्रख्यात वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा और चित्रकार अकबर पद्मसी का नाम लिया जाता है।

सूजा की जब मौत हुई तो वे लगभग दिवालिया थे। न्यूयार्क का उनका अपार्टमेंट तस्वीरों से भरा रहता था। सूजा की कृतियों को संपन्न और अमीर भारतीयों ने उनकी मौत के आसपास या कहें उसके बाद ही उनके चित्रों को खरीदना शुरू किया।

2002 में सूजा की मौत के कई साल बाद सूजा के एक चित्र ‘बर्थ’ को 2008 में उद्योपति अनिल अंबानी की पत्नी टीना अंबानी ने अपने ‘ हारमनी आर्ट्स फाउंडेशन’ के लिए लगभग 11.3 करोड़ डाॅलर में खरीदा। 2015 में उस किरण नाडार म्युजियम ने उसे 27 करोड़ में खरीदकर सूजा को सबसे महंगे कलाकारों में शामिल करा दिया। ‘बर्थ’ 4X8 फीट में बनी सूजा की विश्वप्रसिद्ध कृति मानी जाती है। इस चित्र में प्रसव से पूर्व एक महिला का बेहद जीवंत चित्र बनाया गया है।

भारत के संबंध में सूजा न अपनीे किताब ‘ वर्ड्स एंड लाइन्स’ में थोड़े कड़वाहट के साथ लिखा है ‘‘ मेरे लिये यह बेहतर होता कि बचपन में जब मुझे चेचक हुआ था मैं मर जाता। मुझे एक कलाकार की उत्पीड़ित आत्मा को सहना नहीं पड़ता। एक ऐसे देश में जो अपने कलाकारों को नापसंद करता है, उन्हें कोसता है और अपनी विरासत से अनजान है।’’

(अगले अंक में ‘सूजा की कला’ )

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