अनीश अंकुर यूं तो पटना के कला एवं सांस्कृतिक जगत में अपनी विशेष पहचान रखते हैं। आलेखन डॉट इन के सुधि पाठक इस बात से भलीभांति अवगत हैं, और नियमित तौर पर बिहार की कला गतिविधियों पर उनकी समीक्षात्मक टिप्पणी पढ़ते रहते हैं। क्योंकि उनकी सदैव कोशिश रहती है बिहार से बाहर के कला जगत को बिहार की कला गतिविधियों से रूबरू कराते रहा जाए। लेकिन उनके व्यक्तित्व का एक पक्ष यह भी है कि जब वे बिहार से बाहर कहीं निकलते हैं, तब समय निकालकर वहां चल रही कला प्रदर्शनियों का अवलोकन भी अवश्य करते हैं। पिछले दिनों ललित कला अकादेमी की कला दीर्घा में सूजा की जन्मशती को ध्यान में रखते हुए धूमीमल आर्ट गैलरी द्वारा सूजा की कलाकृतियों की एक वृहत प्रदर्शनी आयोजित हुयी थी। संयोग से उनदिनों अनीश दिल्ली आये थे, अब वहां से वापसी के बाद सूजा की इस प्रदर्शनी से संबंधित आलेख भेजा था। उस विस्तृत आलेख में चर्चा थी उक्त प्रदर्शनी की, उसकी अगली कड़ी के तौर पर प्रस्तुत है यह दूसरा लेख….
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जन्मशताब्दी वर्ष पर राष्ट्रीय ललित कला अकादमी में पुनरावलोकन प्रदर्शनी
इस पुनरावलोकन प्रदर्शनी से गुजरते हुए सबसे पहली परेशानी उपस्थित होती है चित्रों का उसके कालक्रमानुसार न होना। यह होने से, किसी भी प्रेक्षक को , सूजा की सृजनात्मक यात्रा को समझने में कुछ ज्यादा सहूलियत होती। अपने शुुरूआती वर्षों में सूजा किस किस्म के चित्र बनाते थे और कैसे-कैसे उनका विकास होता चला गया। यह सब जानने -समझने में मदद मिलती। बहरहाल सूजा का काम देखना अपने-आप में एक विलक्षण अनुभव है। उनके चित्रों का प्रभाव मनोमस्तिष्क पर देर तक बना रहता है।
कहा जाता है कि सूजा के चित्रों की फिजिकल क्वालिटी पिकासो से मिलती जुलती है। मनजीत बाबा ने कहीं पर कहा भी है ‘‘ उनकी कला का सारा शोरगुल पिकासो जैसे कलाकारों से प्रेरित था।’’ पिकासो की आधुनिकता और क्यूबिज्म का उनपर गहरा प्रभाव था। सूजा पर पिकासो द्वारा किये गए प्राचीन और अफ्रीकी कला का प्रभाव सभी मानते हैं। पिकासो का यही प्रभाव सूजा को भारत की प्राचीन छवियों व मुद्राओं की ओर ले गया। उनके अंदर भी पिकासों की मानिंद जज्बा और लगन था।
ऑयल एवं एक्रीलिक में बनाए गए सूजा के अधिकांश चित्रों में रंग कैनवास की सतह पर उभरे नजर आते हैं। जाहिर है सूजा रंगों को ट्यूब से सीधे कैनवास पर डालकर सहजता से काम कर सकते थे। सूजा की रंगपट्टिका (पैलेट) थोड़ी चौड़ी हुआ करती थी। रंगों की उनकी समझ में त्रुटि मुश्किल से मिलती है। उनके कूची के आघात (स्ट्रोक्स) जबर्दस्त है। उन्हेें एंगुलर ब्रश के उपयोग के लिए जाना जाता है जिस कारण उनके चित्रों में एक किस्म की उत्तेजना सी छायी रहती है।
सूजा सामाजिक रूप से सचेत और राजनीतिक रूप से जागरूक थे। उनके चित्रों में विषय का विस्तार दिखता है। एम.एफ.हुसैन उन्हें अपना गुरू मानते थे जबकि उम्र में वे उनसे बड़े थे। यदि हम उनके 1947 से 1950 के मध्य के चित्रों को देखें तो यहां की रंगीन छटा, उत्साह उनके चित्रों में दिखता है। वे रंगों के साथ प्रयोग करते दिखते हैं। बाद के दिनों में उनके रंग तो बदलते ही गए और स्त्री, उसकी देह, उसकी यौनिकता आदि प्रभावी होते चले गए हैं। भारत के खजुराहो के बने चित्रों का स्पष्ट प्रभाव उनके काम पर परिलक्षित होता है। खजुराहो में पत्थर पर बने यौनमुद्राओं वाले चित्रों को सूजा ने अपने कैनवास पर खुलकर उतारने की कोशिश की है। नग्न चित्र उनके संग्रह में बढ़ते चले गए। कई दफे उनके ये नग्न चित्र दर्शक से मुठभेड़ करते प्रतीत होते हैं।
भारत में रहने के दौरान यानी 1950 के पूर्व के यदि उनके चित्रों को देखें तो उनमें भारतीय जनजीवन की छवियां दिखती हैं। उस दौर के एक चित्र में एक गरीब औरत अपने बच्चे के माथे पर लोटे से पानी डाल रही है। इस चित्र में महिला की मुद्रा को बखूबी पकड़ा गया है। माथे पर पानी गिरने से बच्चा अपनी आंखें बंद किये हुए है महिला की गरदन, हाथ की भंगिमा, उसकी एक बंद आंख सब कुछ काफी जीवंत बन पड़ा है। इस चित्र में चटख रंगों के इस्तेमाल, धूसर पृष्ठभूमि आदि सब मिलकर एक ऐसे दिलचस्प लम्हे की रचना करती है जिसकी ओर बरबस हमारी दृष्टि चली जाती हैं। यह चित्र काफी प्रभावी बन पड़ा है।
ठीक ऐसे ही 1948 में पेपर पर गोशे से दो आदिवासी व ग्रामीण पृष्ठभूमि की महिलाओं की छवि है। इस चित्र में श्रम का सौंदर्य सूजा ने चित्रित किया है। महिलाओं के रंगीन वस्त्र और जिस प्राकृतिक वातावरण में वे रह रही हैं उसके माहौल को सूजा ने पकड़ने की केाशिश की है। चित्र देखने में मनभावन लगता है। इस चित्र में सूजा द्वारा रंगों के दक्ष प्रयोग को महसूसा जा सकता है। सूजा के चित्रों की विशेषता है किनारों में काली रेखाओं का प्रयोग। सूजा के बाद में नग्न स्त्रियों के चित्रण से ये चित्र एकदम अलग से हैं।
1950 में पेपर पर मिक्सड मीडिया बना एक आदिवासी स्त्री की एकल और नग्न चित्र है। चित्र को काले रंग से चित्रित किया गया है। एक खुरदुरे टेक्सचर का अहसास होता है इसमें। स्त्री मानो बाहर की दुनिया की बहुरंगी दुनिया को देखती प्रतीत होती है। उसके अंदर के उत्साह से लबरेज मनःस्थिति को शरीर पर बिखरे रंगीन बिंदियों के माध्यम से दर्शाया गया है।
हेड श्रृंखला (चेहरों का विरूपण) :
मनुष्य का चेहरा, मुखाकृति उनके कामों की एक खास पहचान रही है। ‘हेड’ हमेशा से चित्रकारों व मूर्तिकारों के लिए आकर्षण का विषय रहा है। सूजा द्वारा निर्मित अधिकांश मुखाकृतियां विरूपित नजर आती हैं। कुछ-कुछ हिम्मतशाह के हेड श्रृंखला के चित्रों से मिलते हुए। पिचके गाल, टूटे-फूटे, टेंढ़े-मेढ़े चेहरे, उभरी या कहें निकली हुई आंखें उनके विरूपित्रत चेहरों की विशेषता है। कई दफे आंखें एक दूसरी पर चढ़ी हुई। मेढ़क की आंखों की तरह। चेहरे में आंख की जगह मानो ललाट के पास हो। ललाट मानो चेहरे से अनुपस्थित हो। सूजा के चित्रों की आंखें चित्र का केंद्र रहा करती हैं। उनके मुखाकृतियों को देखने का प्रभाव मन पर लंबे समय तब बना रहता है। सूजा गहरे रंगों का उपयोग करते हैं, रंगों की कई परतें, स्तर एक दूसरे पर चढ़ी हुई दिखती हैं।
सूजा ने ‘हेड’ में जो कई चित्र बनाए हैं ताकि आधुनिक मनुष्य के चेहरे के अंदर छुपे असली चेहरे को पहचाना जा सके। सूजा ने विरूपण का उपयोग इसी मकसद से किया है ताकि समकालीन मनुष्य के सार्वजनिक चेहरे के पीछे के क्रूर मंसूबों को सामने लाया जा सके। हर चेहरा मानो कह रहा हो ‘आई एम नॉट व्हाट आई एम ‘( शेक्सपीयर के नाटक ‘ओथेलो’ के पात्र इयागो का डायलॉग), “मैं जो दिखता हूं, वह हूं नहीं’।
अपनी विरूपित चित्रों के संबंध में सूजा ने कहा है कि ‘‘ रेनेंसा काल के चित्रकारों ने पुरूषों और महिलाओं को चित्रित किया जिसमें वे देवदूतों की तरह दिखते थे। मैं देवदूतों को पेंट करता हूॅं ताकि उन्हें दिखाया जा सके कि पुरूष और महिलायें कैसी नजर आती हैं। ’’
सूजा के चित्रों पर उनके व्यक्तित्व की स्पष्ट छाप दिखती है। सूजा के संबंध में कई लोग यह कहा करते हैं कि वे अपने आप में बहुत अधिक केंद्रित और संलग्न रहा करते हैं। कई बार तो अपनी व्यक्तिगत समस्याओं तक को अपने चित्रों के माध्यम से सुलझाने का प्रयास करते प्रतीत होते हैं।
सूजा द्वारा बनाई गई मनुष्य की शक्लो-सुरत और मुखाकृति के संबंध में बारे में कहा जाता है कि इस पर भी पिकासो का प्रभाव रहा है। खुद सूजा के शब्दों में कहें ” मैंने एक नए तरह का चेहरा बनाया है। जैसा कि आप जानते हैं, पिकासो ने मुखाकृति को फिर से बनाया और वे शानदार थे। लेकिन मैंने पूरी तरह से नए तरीके से, पिकासो से आगे का आकृति विज्ञान खींचा है। मैं अभी भी एक आलंकारिक चित्रकार हूँ। इन साथियों ने पिकासो का अनुसरण करना छोड़ दिया और अमूर्त हो गए या उन्होंने कूड़ेदानों पर पेंटिंग करना शुरू कर दिया। ”
सूजा के रेखांकन :
सूजा के प्रारंभिक रेखांकनों को देखने से उनकी जीवंतता का अहसास देखने वाले को हो जाता है। सूजा के प्रारंभिक रेखांकन जैसे 1947 का उनका सेल्फ पोट्रेट है। पेपर और इंक से बने इस सेल्फ पोट्रेट में सूजा मूंछों में दिखते हैं। सूजा ने अपनी दो अलग-अलग मुद्रा को रेखांकित किया है। इस स्केच में हाथ रखे सूजा एक एंगल से दिखते हैं। इससे गति का अहसास होता है। ऐसे ही 1962 में पेपर पर कोंट चारकोल से बना ‘क्लेर पेप्लो’ को देखा जा सकता है। इसमें एक नवयुवती का रेखांकन किया गया है। यहां भी छवि हल्की तिरछी मुद्रा में नजर आती है। कई रेखांकन पेपर या हैंडमेड पेपर पर मार्कर पेन से भी बनाए गए हैं।
ठीक ऐसे ही 1977 का हैंडमेड पेपर पर बना एक अधेड़ अरबी व्यक्ति के हाथ पर बैठी चिड़िया वाला रेखांकन प्रभावी बन पड़ा है। अरबी व्यक्ति अपनी चिड़िया को प्रेम भरी निगाहों से देखता हुआ दिखता है। व्यक्ति की आंखों से चिड़िया के प्रति उसके लगाव को महसूसा जा सकता है। इसी वर्ष का बना पेपर पर प्रिंट में शीर्षकीन स्केच में रेगिस्तान में उंट के साथ तीन लोग है। लंबी यात्रा कर सुस्ता रहे राहगीरों के चित्रण में उनके थकावट की भावना को, चित्र देखते हुए, महसूसा जा सकता है।
1985 का बना स्त्री के पृष्ठभाग को बहुत कम रेखाओं से चित्रित किया है। ठीक इसी प्रकार 1987 के ड्राइंग में एक ईसाई परिवार का प्रतीत होता है। स्केच में पुरूष, स्त्री, बेटा और बेटी के रेखांकन के कंपोजिशन से परिार के अंदर का हाइरारकी नजर आने लगता है। 1961 के बने एक स्केच में गिरिजाघर को चित्रित किया गया है जो उजाड़ अहसास कराता है। सूजा के भारत छोड़ने के पहले के रेखांकन और चित्र देखें तो उसके विषय, रंगों का उपयोग तथा बरताव इंग्लैंड जाने के बाद हल्का बदल सा जाता है।
किसी लड़की की कोई मुद्रा, पहलू, मुस्कुराहट या किसी दृश्य को रेखांकित करने में दक्षता नजर आती है। प्रदर्शनी में शामिल चित्र सजीव मानो बोल पड़ने वाला हो प्रतीत होता है। सूजा बहुत कम रेखाओं के सहारे अधिकतम प्रभाव पैदा कर देते हैं। उनकी वक्राकार रेखाओं में एक गति रहा करती है। यानी किसी दृश्य को चित्रित करते समय वे उसके ठहरे हुए ढ़ंग में नहीं अपितु गति में , प्रकिया में देख रहे हों। उन्हें निरंतर बदलती दुनिया के परिप्रेक्ष्य में पकड़ने की कोशिश कर रहे हों। एक आवेग उनके रेखांकनों में महसूस किया जा सकता है। एक अंतरंगता झलकती है, स्वतःस्फूर्तता का अहसास होता है। सूजा ने बड़ी संख्या में रेखांकन किये। सुप्रसिद्ध रंगकर्मी व कलासंग्राहक इब्राहिम अल्का जी के अनुमान के अनुसार सूजा के रेखांकनों की संख्या लगभग बारह हजार के करीब होगी।
सूजा के चित्रों में औरतें :
सूजा के चित्रों में स्त्री छवियों की देहभाषा पर गौर करें तो वे अपनी देह को लेकर कहीं से भी बंधी सी नजर नहीं आती बल्कि खुली, सहज और स्वाभाविक सी नजर आती है।अपनी नग्नता, यौनिकता को लेकर किसी किस्म का संकोच नजर नहीं आता। इस प्रकार से कहें तो अपने समय की बोल्ड महिलाओं की छवि उनके चित्रों में नजर आती हैं।
सूजा ने खजुराहो के यौन चित्रों से सिर्फ शैली ही उधार ली, वहीं विषय का निर्धारण स्वयं किया। सूजा के रंगों का उपयोग हमारी इन्द्रियों को मोहाविष्ट कर डालने की क्षमता रखती हैं।
सूजा के चित्रों में आई महिलाओं की छवि ने चित्रकला की दुनिया को आधुनिक बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। सूजा ने महिलाओं की नग्न व अर्द्धनग्न तस्वीरें बड़ी संख्या में बनायी हैं। सूजा ने औरतों के नाजुकपन या सौंदर्य को कभी भी अपने चित्रों में नहीं आने दिया। सूजा के चित्र समाज पर विद्रूप व्यंग्य के समान नजर आते हैं। सूजा के चित्रों में स्त्री के जननांग हमेशा बड़े दिखते हैं। नग्न व अर्द्धनग्न अवस्था में कुटिल मुस्कान बिखेरटी उनके चित्रों में स्त्री की छवि से इस संबंध में उनके दृष्टिकोण को भी समझा जा सकता है। सूजा की स्त्रियां सेंसुअस और कामोत्तेजक नजर आती हैं। सूजा ने भारीभरकम देह, बड़े स्तनों तथा विचित्र चेहरों वाली महिलाओं को चित्रित किया। सूजा पर खजुराहो तथा अन्य ऐसे एतिहासिक स्थलों के चित्रों का प्रभाव स्पष्ट है।
इन ऐतिहासिक स्थलों की विलासी व ऐंद्रिक स्त्रियों की गरिमा वाली छवि सूजा के बदल कर बेशर्म व लम्पट रूप अख्यिार कर लेती है। सूजा के रंग संसार में महिलाओं की उपस्थिति केंद्रीय रही है। महिला देह रचना के प्रति सूजा की दिलचस्पी तब से है जब वे छिद्र से अपनी मां को स्नान करते वक्त देखा करते थे।
1989 में बनाए गए लाल रंग से पुती स्त्री का चेहरा छोटा है पर उसके जननांग अपेक्षाकृत बड़े और स्तन नाटकीय रूप रूप से काफी बड़े दिखते हैं। यह अस्वाभाविक सा नजर आता है। लाल रंग से बनी यह तस्वीर देखने वाले को मानो आमंत्रित करती सी प्रतीत होती है। अपने देह को प्रदर्शित करते हुए महिलाओं में किसी किस्म का संकोच नजर नहीं आता बल्कि वे काफी खुली और बिंदास नजर आती है। भारतीय समाज प्राचीन काल से औरतों की सुंदरता और आकर्षक छवि को देखने का आदि रहा है। इसके विपरीत सूजा ने खूबसूरती, संकोच व मर्यादा की अवधारणा को तोड़-मरोड़ कर विरूपित कर दिया। सूजा ने गोरी, अनुपात में सही, नजाकत से भरे कोमलांगी महिलाओं की छवि को, जो प्राचीन काल से उन्नीसवीं सदी तक चित्रित की जाती रही हैं, बदलकर रख दिया। इन परिस्थितियों में बदलाव आया है अमृता शेरगिल की ग्रामीण पृष्ठभूमि की उदास स्त्रियों का चित्र बनाकर। अमृता शेरगिल पहली महिला थी जिसने महिलाओं के जीवन को संजीदगी से समझने की कोशिश की।
एक बार अंजली इला मेनन ने सूजा से पूछा कि आपके नग्न चित्रों में स्त्री के वक्ष इतने बड़े क्यों चित्रित हैं? सूजा का जवाब था ‘‘यदि आपने स्त्रियों को जाना होता तो आपको लगता इसमें कोई अति नहीं हैं।’’
यशोधरा डालमियां के अनुसार-
‘‘सूजा की रचनात्मकता का स्रोत यह है कि समाज की ध्वंसात्मक पहलुओं को दबाना नहीं चाहिए बल्कि उसे सामने लाकर उसका मुकाबला करना चाहिए।’’
सूजा ने पारपंरिक खांचे के अंदर के बजाए महिलाओं के आत्म प्रचार और कामोद्यीपक आकांक्षाओं को अपने चित्रों में प्रकट किया। सूजा के चित्रों की स्त्रियां कतई भी सुंदर , कोमल और अच्छे फिगर वाली नहीं अपितु नाटकीय हैं और पुरूषों को अपनी मोहक नजर से प्रलोभन देती नजर आती है। भारतीय मूर्तिकला में पायी जाने वाली स्त्रियों की पारंपारिक छवि पर सूजा ने सबसे बड़ा आघात किया। आकार में बड़े स्तन और अनुपात से बड़े नितम्ब बार-बार उनके चित्रों में आते हैं। सूजा ने सुंदरता की भावना को कुरूपता में परिवर्तित कर डाला। स्त्रियों की ऐसी छवि खींचने के लिए उनकी खूब खिंचाई भी की गयी थी।
1984 में पीले रंग से बनी नग्न स्त्री के चित्र का शीर्षक है ‘प्रकृति- योनी- द होल्डर ऑफ मैनकाइंड’। बोर्ड पर एक्रीलिक से बने इस चित्र में पीले रंग का उपयोग किया गया है। चेहरा छोटा, उसके अनुपात में स्तर विशाल सा बना है और यानि स्पष्ट दिखाई देती है। चित्र में सूजा ने स्त्री योनि को मनुष्य जाति के निरंतर पुनरूत्पादन के रूप में देखने की कोशिश की है। बड़ा स्तन और योनि देखकर प्रेक्षक को झटका सा लग सकता है। अब तक स्त्री को उर्वरता के प्रतीक के रूप में देखने की प्रचलित और पारपंरिक छवि से अलग असर पैदा करती है। यह चित्र भारत में यौन मसलों पर रहे पुराने संकोच को विरूद्ध विद्रोह करती प्रतीत होती है। चित्रकार मानो यह दर्शाने की कोशिश कर रहा है कि यौन को दबाना भारत की अपनी संस्कृति के भी खिलाफ जाती है। जो मसले भारतय समाज में टैबू बन चुके हैं उनपर खुलकर सूजा ने चित्र बनाए। औरतों की परिधि की दुनिया का मानो विस्तार करना चाहते हों।
1957 में बने चित्र ‘अमेजन’ को बोर्ड पर ऑयल से बनाया गया है। इस चित्र में स्त्री शरीर को भूरे व पीले रंग से खुरदुरा टेक्सचर प्रदान किया है। मोटी लाइनों का उपयोग कर औरत का चेहरा कुछ विचित्र और विचलित करने वाला भी है। स्त्री की कोमलता यहां गायब हो गयी है। इस चित्र में भी वक्ष और योनि अपेक्षाकृत बड़े बनाए गए हैं और बनाने का शैली पहले की तरह का ही है। सूजा के चित्रों में रंगों की कई परतें रहा करती है जो देखने वाले से ध्यान की मांग करती है। महिलाओं के चित्र बनाने के लिए सूजा ने तीन तरीकों का उपयोग किया पेपर पर इंक, कैनवास पर रंग और तीसरा केमिकल अल्टरकेशन।
इन चित्रों के कारण सूजा को अपने प्रारंभिक दिनों में काफी नकार और निषेध का सामना करना पड़ता रहा है। भारतीय समाज में उस समय उनके चित्रों को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं था। लेकिन इन चित्रों में सूजा द्वारा उपयोग में लाए गए रंगों का संयोजन, उनका लय, कंपोजिशन यह सब देखने लायक बनता है। नग्न स्त्री सूजा के चित्रों में बार-बार आते हैं, दुहराव की तरह। उनकी स्त्रियों की शारीरिक बनावट मजबूत सी हुआ करती है जिससे उनके सेंसुअसनस और अधिक बढ़ता है। बड़े जनानांगों को हाइलाइट करने के लिए काले रंग के किनारों का अमूमन उपयोग दिखता है।
भारतीय स्त्री द्वारा अपने बड़े वक्ष और योनि का प्रदर्शन कोई नई बात नहीं है। ‘लज्जा गौरी’ की घुटनों को मोड़ कर बैठे चित्रों में देखा जा सकता है। सूजा ने ‘लज्जा गौरी ’ पोस्चर को हल्का बदल कर उसे बनाया है। प्राचीन भारत की देवी ‘लज्जा गौरी’ को यौन देवी के रूप में पूजा जाता है। अपनी दोनों टांगें फैलाए अपनी योनि को प्रदर्शित करती प्रचलित मुद्रा से सभी वाकिफ हैं। सूजा अपनी नग्न चित्रों के लिए प्राचीन भारत के इन प्रचलित मुद्राओं का हवाला देते आए हैं। भारत में मंदिरों पर बने इरोटिक सीन्स से अपनी वैधता हासिल करते आए हैं। मंदिरों और भित्तिचित्रों पर अंकित इन छवियों में यौनसंबंध स्थापित करने को लगभग आमंत्रित करती इन मुद्राओं से सूजा प्रेरणा ग्रहण करते प्रतीत होते हैं। सूजा के चित्रों की महिलायें लोभ, लालच से भरी विरिूपित स्त्रियां दिखती हैं। संभव है यह उनके जीवन के अभाव, खालीपन, कई शादियों के टूटने और उससे उपजी मनौवैज्ञानिक उलझन और बेचैनी का परिणाम हो। पर निस्संदेह सूजा के स्त्रियां इन सबसे अलग हैं वैसी स्त्रियां न तो साहित्य में, सिनेमा में और न ही नाटक में नजर आती है वे पहली दफे सूजा के चित्रों में अंकित हुई हैं और उसका एक तार अतीत से भी जुड़ता है।
सूजा के चित्रों में रंगों का बरताव, कैनवास के सतह का उपयोग, स्पेस का प्रबंधन आदि सब कुछ में एक अद्भुत सामंजस्य देखने को मिलता है। ऐसा माना जाता है कि स्त्री-पुरूष की अंतरंग छवियां सूजा की अपनी मनोवैज्ञानिक समस्याओं को हल करने का सृजनात्मक प्रयास है।
सूजा और चर्च :
औरतों के साथ-साथ सूजा रोमन कैथोलिक चर्च के संसार से भी मोहित थे। चर्च का पूरा माहौल उन्हें आकर्षित किया करता था। सफेद चर्च की भव्य वास्तुकला, सेवा भावना के वैभव, पादरी द्वारा कढ़ाई किए गए वस्त्र उन्हें आकर्षित किया करते थे। चर्च में लकड़ी के रंगे हुये चमकदार सुनहरे संत, धूप और अगरबत्ती की गंध उन्हें बहुत भाते थे ।
इसके साथ साथ उसके रीति-रिवाज, उसका पाखंड, दोमुहांपन ये सब उनके चित्रों के विषय थे। ईसा मसीह का सलीब पर लटकी दुखद छवि उनके कैथोलिक बचपन से ही अविभाज्य हिस्सा रही थी। चर्च को लेकर बनी उनके लैंडस्केप में एक उदासी माहौल सा नजर आता है।
सूजा ईश्वर के भी मुखर आलोचक रहे। उनके अनुसार-
‘‘ मेरे विचार से ईश्वर में कोई सौंदर्य नहीं है क्योंकि वह धर्म के माध्यम से मानव के मन में घृणा तथा युद्ध जैसे पूर्वाग्रह पैदा करता है। मैं तो केवल प्रकृति के सौंदर्य की बात कर रहा हूॅं। और एक बार फिर आप इसके सौंदर्य को अनुभव कर लें तो आप अमर हो जायेंगे क्योंकि प्रकृति भी अमर हैं।’’
सूजा के चित्रों में चर्च, गिरजाघर, उसके आसपास का माहौल और सबसे बढ़कर ईसा मसीह प्रमुखता से उभर कर आते हैं।
उनके चित्र ‘क्राइस्ट’, ‘द लास्ट सपर’ को उदाहरण स्वरूप लिया जा सकता है। इस विषय पर सूजा का एक प्रमुख चित्र है ‘क्रुसिफिकेशन’। ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाने को घटना को इस चित्र में पकड़ने की कोशिश की गई है।
1975 के इस तैलचित्र में ईसा मसीह का चेहरा उनके द्वारा झेले गए तकलीफ को बयां करता है। सलीब के निकट उनके दो सहयोगी खड़े हैं। वे भी जीर्ण- शीर्ण अवस्था में नजर आते हैं। चित्र में इस भावना को कैनवास पर उतारने के लिए सूजा ने डार्क कलर्स का उपयोग किया है। देखने वाले के मन पर त्रासद अहसास होता है।
वैसे सूजा ने ईसा मसीह को लेकर कई चित्र बनाए हैं । ईसा मसीह के चित्र में उनकी डरावनी शहादत को गरिमा प्रदान करने के बजाए उसे थोड़ा आभाहीन कर देते हैं। सूजा त्रासद स्थितियों को भी अपने विशिष्ट ढंग से चित्रित करते हैं।
चर्च को लेकर बनी उनकी कृतियों में गहरा आकर्षण और वितृष्णा दोनों नजर आती है। यही चर्च संबंधी उनकी कृतियों को अनूठा बना देता है। सूजा के अधिकांश चित्रों चेहरे के अंदर क्रूरता, बर्बरता नजर आती है वह बाइबिल और ईसाई धर्म में बुराई की अवधारणा से कुछ हद तक प्रभावित नजर आती है।
केमिकल अल्टरकेशन :
सूजा की पुनरावलोकन प्रदर्शनी में कई चित्र केमिकल अल्टरकेशन पद्धति से बनाए गए हैं। सूजा के कैरियर में केमिकल अल्टरकेशन उनके अमेरिका में बसने के बाद शुरू होता है। केमिकल अल्टरकेशन पेंटिंग्स में भी सूजा ने स्त्री-पुरूष के अंतरंगता वाले छपे हुए चित्रों को फाड़ या जलाकर उस पर स्केच कर सूजा ने कुछ नया रचने का प्रयास किया।
इस पद्धति में रंगीन ग्लाॅसी पत्रिकाओं की तस्वीरों को ब्लिच करते हुए उस पर व्यंग्यचित्र, रेखांकन या पेंटिग करने दी जाती है। चिकने पन्नों वाली पत्रिका की तस्वीरें, रेखांकन या पेंटिंग मिल कर एक अतियथार्थवादी (सररियल) अस्तित्वमान वास्तविकता को हिंसक रूप से बाधित किया जा रहा था। यहां भी सूजा विरूपन का पुराना तरीका अपनाते हैं। सूजा ने केमिकल अल्टरकेशन का तरीका 1971 में बंग्लादेश युद्ध के समय अपनाया। ‘टाइम’ पत्रिका में युद्ध में क्षतविक्षत शवों की तस्वीरों को ब्लिच कर उसे विघटित कर कुछ इस प्रकार निर्मित करता है मानो मतिभ्रम का अहसास होता हो।
इस पद्धति से बने चित्रों में भी स्त्री छवियां बहुतायत में हैं। सूजा का स्त्री छवियों से एक ऑबसेशन सा नजर आता है। लेकिन इन चित्रों को देखने के दौरान एक नया चाक्षुष अनुभव भी होता है। पेंटिंग देखने के अनुभव से कुछ भिन्न अनुभव।
महत्वपूर्ण कलायें काल के दबाव से बच जाती हैं और कई दफे भले अपने वक्त में न समझी जाती रही हों पर आने वाले समय के लोगों से संवाद करती नजर आती है। भारत के लोग भौंड़े माथे, विरूपित आकृतियां और आक्रामक रेखाओं को कुछ साल पूर्व तक भले न समझ पाते रहे हों पर आज उनकी कृतियों के प्रति लोगों का आकषण अधिक बढ़ा है। सूजा को हमेशा यह लगा करता था की उनकी कृतियां लोगों द्वारा नहीं समझी जा रही हैं। सूजा ने अजंता की महान उपलब्धियों के बारे में बाते करने के बजाए रचनात्मक आलोचना का सुझाव दिया ‘‘ ऐसे लोग बहुत हैं जो अतीत की महान विरासत के बारे में बकबक करते हैं। अजंता ! अजंता ! अजंता ! ये आधुनिक कला पर राष्टवादी और बचकानेपन के साथ हमला करते हैं। आधुनिक भारतीय कला और अधिक तेजी से विकास कर सकती हैै यदि उसे राष्ट्रीय स्तर पर आर्थिक सहायता मिले और जिसकी रचनात्मक आलोचना की जाए। अब तक ऐसी आलोचना सिर्फ विदेशियों द्वारा ही की जाती है। ’’
सवाल यह उठता है कि सूजा को कला की किस परंपरा से जोड़ा जाए या वे किस विरासत की खिदमत करते नजर आते हैं।
विश्वप्रसिद्ध मार्क्सवादी कला आलोचक जाॅन बर्जर ने सूजा के बारे में पिछली शताब्दी के पांचवें दशक में ही कहा था-
‘‘ मैं नहीं बता सकता कि सूजा के चित्र कितने पश्चिमी कला से और कितने भारत के पवित्र मंदिरों से अपनी उर्जा ग्रहण करते हैं। विश्लेषण बिखर जाता है और अंर्तबोध प्रभावी हो जाता है। यह स्पष्ट है वे बेहतरीन डिजायनर उत्तम नक्शानवीस हैं। परन्तु मैं उनके कामों का तुलनात्मक मूल्यांकन करने में खुद का असमर्थ पाता हूॅं क्योंकि वे कई परंपराओं के मध्य आवाजाही करते हैं पर किसी परंपरा की खिदमत नहीं करते।”