यह वह काल था जब बिहार के कलाकार भारतीय समकालीन कला परिदृश्य में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने में जुट गये थे। ललित कला अकादेमी की स्थापना नई दिल्ली में वर्ष 1952 में ही हो चुकी थी और अकादमी द्वारा अपनी राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी का आयोजन वर्ष 1955 से प्रारंभ हो चुका था। बावजूद इसके इस प्रदर्शनी में पटना के कलाकारों की कृतियां देखने को नहीं मिल पाती थी। देखा जाये तो बीरेश्वर भट्टाचार्यजी बिहार के ऐसे कलाकार थे जिन्होंने इस दिशा में एक नई ज्योति जलाई, और बिहार के कलाकारों को राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी की महत्ता बताई। यह अलग बात है कि रजत कुमार घोष बिहार के पहले ऐसे कलाकार बने जिन्हें वर्ष 1985 की प्रदर्शनी में राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ। हालांकि अगले वर्ष (1986) ही बीरेश्वर भट्टाचार्यजी को भी यह सम्मान मिला। और फिर यह क्रम चलता ही गया। आज समकालीन भारतीय कला परिदृश्य में बिहार का अपना स्थान है जिसका श्रेय बीरेश्वर भट्टाचार्यजी को जाता है।
– अखिलेश निगम
प्रस्तुत आलेख नई दिल्ली से प्रकाशित ‘दिशा-भारती’, प्रगतिशील हिन्दी साप्ताहिक, के अक्टूबर 07, 1973 के अंक में प्रकाशित हुआ था। बताते चलें कि बिहार के तीन कलाकारों ( बीरेश्वर भट्टाचार्जी, श्याम शर्मा और रंजीत सिन्हा) की एक समूह प्रदर्शनी फरवरी 26 से मार्च 3, 1973 तक के लिए राज्य ललित कला अकादमी, लखनऊ के लाल बारादरी स्थित कल वीथिका में हुआ था। उक्त प्रदर्शनी की समीक्षा आदरणीय अखिलेश निगम जी की कलम से ज्यों का त्यों प्रस्तुत है। वैसे मेरी समझ से यह आलेख बिहार के कला इतिहास का एक अति महत्वपूर्ण दस्तावेज है। अतः इसे उपलब्ध कराने के लिए निगम जी को कोटिशः आभार। यहाँ यह भी बताना आवश्यक लगता है कि हमारी पीढ़ी के बिहारी कलाकारों के लिए यह पहला अवसर होगा, जब आदरणीय रंजीत सिन्हा जी की कृतियों की समीक्षा हमारे सामने होगा या है। क्योंकि इससे पहले तक हमने तो बस सिर्फ रंजीत सिन्हा जी का नाम ही सुना था।
– मॉडरेटर
पटना के तीन प्रयोगवादी चित्रकार सर्वश्री बीरेश्वर भट्टाचार्य जी, श्याम शर्मा तथा रणजीत सिन्हा स्वयं में एक संयोग हैं। वाणिज्य कला में डिप्लोमा प्राप्त कर तीनों ही कला महाविद्यालय पटना में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं और इसी संयोग के परिणाम स्वरूप `ट्रायंगल` कला संस्था की स्थापना पटना में हुई। यह संस्था कला के क्षेत्र में कुछ कर गुजरने का संकल्प लिए निरंतर प्रयत्नशील है। प्रदर्शनियों आदि के आयोजन के अतिरिक्त यह संस्था अपना एक साप्ताहिक मिनी-पत्र भी `ट्रायंगल वायस` के नाम से प्रकाशित कर कला के प्रचार एवं प्रसार में अपना योगदान दें रही हैं।
पटना से चलकर इस संस्था ने उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ की ललित कला वीथिका, लाल बारादरी भवन में एक प्रदर्शनी का आयोजन (फरवरी 26 से मार्च 3,1973 तक), किया। जिसमें उपरोक्त तीनों चित्रकारों की तैल एवं ग्राफिक कलाकृतियों का प्रदर्शन किया गया। प्रदर्शनी का उद्घाटन `स्वतंत्र भारत` के सम्पादक श्री अशोक जी द्वारा सम्पंन हुआ।
बीरेश्वर भट्टाचार्य
श्री बीरेश्वर भट्टाचार्य जी (जन्म: 1935) का प्रतिनिधित्व तैल-चित्रों से रहा। आप छात्रवृत्ति प्राप्त कर 1969 में इस्तनबुल (तुर्की) की ललित कला अकादमी में चित्रकला पर शेधकार्य कर चुके है। भारत के कई प्रमुख नगरों के अतिरिक्त आपकी कलाकृतियों की प्रदर्शनियां तुर्की के इस्तनबुल तथा ओंकारा नगरों में हो चुकी हैं, जहां के संग्राहलयों में आपकी कृतियां संग्रहित भी हैं।
अपनी इस संयुक्त प्रदर्शनी में श्री भट्टाचार्य जी ने 16 कलाकृतियां प्रदर्शित की हैं। उन्होंने ज्यामितीय आकारों में अपने प्रतीकों को ढाल कर अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति की है। मुख्य रूप से चित्रों में बीज, योनि तथा लिंग के प्रतीकों की स्पष्ट झलक थी। इसके अतिरिक्त केवल सरल एवं वक्र रेखाओं द्वारा भी चित्रकार ने अपने मनोभावों की अभिव्यक्ति की है।
श्री भट्टाचार्य जी ने इन प्रतीकों को स्वीकार करते हुए स्पष्ट किया- “मैं बीज को उत्पत्ति का सिद्धांत मानता हूं और इसी संदर्भ में मैंने अपने प्रतीकों को लिया है।“ परंतु उनके `शिव की कल्पना` शीर्षक श्रृंखला के छः चित्रों की ओर इंगित करते हुए जब मैंने उनसे- “बीज को उत्पत्ति का सिद्धांत मानकर लिंग और योनि के प्रतीकों द्वारा आपने `शिव की कल्पना` किस प्रकार की है?” जानना चाहा, तब कुछ क्षणों तक मौन, चिंतन की मुद्रा में आंख बंद कर उन्होंने कुछ विचार किया (मानों शिव की कल्पना में लीन हो गये हों) और फिर बोले- “देखिए न पटना की ओर शिव की आराधना अधिक होती है, यही कारण है कि वातावरण से प्रभावित मैं लिंग को नहीं बिसार सका, फिर यही तो जीवन का सत्य है। मैं किसी एक धारा या शैली के साथ बंधना नहीं चाहता।“ क्या यह स्पष्टीकरण अपने में पूर्ण है!
मैं समझता हूं कि नहीं। आजकल फिल्मों में नई लहर के नाम पर नग्नता व सेक्स के खुले प्रदर्शन की जो बाढ़-सी आई हुई है उससे आज का कलाकार भी प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सका है। कुछ नया करने की चाह…, इधर कुछ प्रदर्शनियों में जों प्रयोगवादी चित्र देखने में आये उनमें `यौन` भावना का प्रभाव कहीं न कहीं अवश्य ही प्रतिबिम्बित होता मिला है। यदि श्री भट्टाचार्य जी भी इससे प्रभावित हुए तो उनका क्या दोष ? यह तो एक लहर है…।
विषय-चयन तो कलाकार की अनुभूतियों एवं वातावरण पर निर्भर करता है, परंतु उससे हटकर जहां तक चित्रों के रसास्वादन की बात है, श्री भट्टाचार्य जी के कुछ चित्र रंगों की कोमलता, पारदर्शिकता तथा संयोजन में अत्यंत सशक्त मिलते है। संयोजन-1, श्वेन कमल का उदय, प्रतिबिम्ब तथा शिव की कल्पना-1 उनकी इसी श्रेणी की कलाकृतियां थीं।
श्याम शर्मा
श्री श्याम शर्मा लखनऊ के कला-प्रेमियों के लिए कोई नये नहीं हैं। लखनऊ कला महाविद्यालय द्वारा ही आपने कला-शिक्षा अर्जित की है। इसके पूर्व भी इनकी प्रदर्शनियां यहां आयोजित होती रही हैं। इधर वुड-कट माध्यम से ग्राफिक में जो नवीन प्रयोग उन्होने किए हैं, उसी श्रृंखला की कृतियों का प्रदर्शन इस प्रदर्शनी में किया गया है।
ग्राफिक्स में जबकि अन्य माध्यम भी हैं केवल वुड-कट माध्यम द्वारा ही आपने चित्रों को क्यों रूपायित किया है? मेरे इस प्रश्न के उत्तर में श्री शर्मा ने बताया- “वुड-कट माध्यम में ही मैं अधिक कार्य इसलिए करता हूं क्योंकि अपने चित्रों में जिस प्रकार के `टेक्चर` मैं उत्पन्न करना चाहता हूं उनमें काष्ठ के स्वाभाविक `टेक्चर` मुझे सहायक सिद्ध होते हैं और मैं अपने प्रयोगों को 65 प्रतिशत तक सफलता पूर्वक पूर्ण कर लेता हूं।“
और यह सच भी है, उन्होंने काष्ठ के स्वाभाविक टेक्चरों का प्रयोग अपनी कृतियों में इतना सुंदर किया है कि उनकी कृतियां एक अनूठा प्रभाव उत्पंन करती मिलीं। कहीं-कहीं लोक कला के प्रतीकों को अमूर्त रूप में लेकर लीक से हटकर भी कुछ अन्य प्रयोग उन्होंने किए हैं। `लाल और भूरा संयोजन`, `बढ़ोत्तरी` तथा `संरचना` उनके इसी श्रेणी के चित्र रहे। पहुंच के परे, संरचना-2, सुनहरा चक्र तथा अवधानित रूप कृतियां टेक्चर, पारदर्शिकता एवं संयोजन की दृष्टि से विशेष सराहनीय कृतियां रहीं। श्री शर्मा यदि इसी प्रकार अपने प्रयोंगों में साधनारत रहे तो अवश्य ही वह अपने ग्राफिक्स के कारण ख्याति अर्जित करेंगे।
रणजीत सिन्हा
श्री रणजीत सिन्हा `ट्रायंगल` के तीसरे कोण हैं। इन्होंने अपने 10 ग्राफिक चित्रों द्वारा ही, जिनमें एक वुड-कट तथा नौ लीनों कट माध्यम के हैं, प्रतिनिधित्व किया। पटना कला महाविद्यालय के अतिरिक्त आपने बड़ौदा के ललित कला विभाग में भी 1970-71 के मध्य अध्ययन किया है।
एक ओर जहां श्री शर्मा के ग्राफिक्स में काले रंग की प्रधानता व्याप्त थी, वहीं दूसरी ओर श्री सिन्हा ने रंगों की टोन्स् द्वारा ठण्डे रंगों का प्रयोग किया है। इनकी कलाकृतियों में जीव-विज्ञान सम्बंधी आकारों एवं प्रतीकों का प्रयोग स्पष्ट झलकता है। कुछ चित्रों में खिलौना व बच्चों का प्रतिबिम्ब भी मिलता है।
श्री सिन्हा अपनी अस्वस्थता के कारण इस प्रदर्शनी में स्वयं न आ सके थे। अतः उनका भी प्रतिनिधित्व करते हुए श्री श्याम शर्मा ने बताया कि श्री सिन्हा अक्सर ही अस्वस्थ रहते हैं, जिसके कारण वह डाक्टर, दवाओं, एक्स-रे आदि से अपने को घिरे पाते हैं। जिसके चलते बस यही उनकी कृतियों के विषय बन गये हैं। उन्होंने जिस प्रकार के रंगों का उपयोग किया है, वह उनके शांत स्वभाव के प्रतीक मालूम पड़ते हैं। एक-दो कृतियां उनका बालकों से लगाव भी दर्शाती हैं परंतु प्रस्तुतीकरण की दृष्टि से चित्रों में एकरसता होने के कारण वह कुछ अधिक प्रभावित नहीं कर सके हैं पर ऐसा नहीं कि उनकी कृतियों में सशक्तता न हो। सुंदर संयोजन के कारण संयोजन-3 तथा 5 कृतियां आकर्षक रहीं।