बिहार के मिथिलांचल की कला परंपरा यानी मिथिला कला या मधुबनी कला आज दुनिया भर में जानी जा रही है । किन्तु इस लोक शैली को देश दुनिया तक पहुंचाने का श्रेय जिन कलाकारों को जाता है, उनमें से एक नाम उपेंद्र महारथी का है । इतना ही नहीं कला प्रेमियों को उनकी बहुआयामी प्रतिभा से रूबरू होने का अवसर उनके निधन के लगभग तीन दशक बाद मिल पाया । जिसका श्रेय उनकी पुत्री श्रीमती महाश्वेता महारथी की पहल और राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय, नई दिल्ली के वर्तमान डायरेक्टर जनरल अद्वैत गडनायक एवं उनकी टीम की मेहनत को जाता है। किन्तु इन सबके बावजूद बिहार के वर्तमान कला जगत तक उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को पहुँचाने का अपेक्षित प्रयास नहीं हो पाया। बहरहाल उनके व्यक्तित्व और कृतित्व का विश्लेषण करता एक विस्तृत आलेख कला लेखक अशोक कुमार सिन्हा की कलम से…
Ashok Kumar Sinha
कुछ समय पहले तक बिहार से बाहर के ज्यादातर लोग उपेन्द्र महारथी को नहीं जानते थे। कला नायकों के नाम पर पत्र और पत्रिकाएँ राजा रवि वर्मा से शुरू होकर सैयद हैदर रजा या फिर मकबूल फिदा हुसैन पर आकर ठहर जाती थीं। बिहार में भी उपेन्द्र महारथी के व्यक्तित्व और कृृतित्व की चर्चा कुछ विशेष अवसरों पर ही होती थी। उपेन्द्र महारथी की बहुआयामी प्रतिभा का पूर्ण परिचय संसार को प्राप्त नहीं हो पाया था। लेकिन वर्ष 2017 में उपेन्द्र महारथी की पुत्री श्रीमती महाश्वेता महारथी के सक्रिय सहयोग से राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय, नई दिल्ली द्वारा ’’उपेन्द्र महारथी’’ शीर्षक से एक पुस्तक का प्रकाशन हुआ। इसके दो वर्षों के बाद वर्ष 2019 के सितम्बर माह में राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय में उपेन्द्र महारथी की लगभग 1000 कृृतियों को प्रदर्शित किया गया, जिनमें उनके द्वारा निर्मित रेखांकन, व्यक्ति चित्र, तैलचित्र, पुस्तकों के आवरण चित्र, वाश पेंटिंग से लेकर वेणु शिल्प, आर्किटेक्चरल डिजाइन और लिखित पुस्तकों को शामिल किया गया। भारत में किसी कलाकार के जीवन भर की कृृतियों को उनकी मृृत्यु के लगभग चार दशक बाद, इस भगीरथ परिश्रम, लगन और खोज के साथ इकठ्ठा कर प्रदर्शित नहीं किया गया था। कला-संसार में अपने ढंग का यह बिल्कुल नया अनुष्ठान था। इसका फलाफल यह निकला कि कला के जो महानायक इतिहास के एक कोने में पड़े थे, अचानक पूरे देश मे उनका यश और सम्मान बढ़ गया। पत्र-पत्रिकाओं, साइवर और सोशल मीडिया में उनके व्यक्तित्व और कृृतित्व की चर्चा होने लगी। कला समालोचक भी इतनी बड़ी संख्या में उनकी कृतियों को देखकर चकित और हतप्रभ हो गए और उन्हें सहसा यह विश्वास करना कठिन हो गया कि किसी कलाकार का रचना-संसार इस कदर समृद्ध और बहुआयामी भी हो सकता है।
Pic Courtsey: National Gallery of Modern Art, N. delhi
रूसी आलोचक चेर्नीशेवस्की कहा करते थे कि किसी कलाकार की कृृतियों को जानने-समझने के लिए उस कलाकार के जीवन को जानना जरूरी होता है। इसलिए उपेन्द्र महारथी की कला को जानने के लिए इनके जीवन-वृृत्त पर एक नजर आवश्यक है। उपेन्द्र महारथी का जन्म उड़ीसा के पुरी जिले के नरेन्द्रपुर गाँव में मई, 1908 में हुआ था। बचपन में गाँव की गलियाँ, छोटे-बड़े मकान, तालाब, खेत-खलिहान रंग-बिरंगे लिवास, मेला, हाट तथा अनेकों पर्व-त्यौहारों के परिवेश ने उन्हें पूरी तरह कलात्मक बना दिया। पानी, धरती, आकाश एवं समुद्र की गहराईयों को जानने-समझने की ललक होने के कारण उनका मन कला रंग में रंगने लगा। उनकी माॅं अन्नपूर्णा देवी उड़ीसा की परम्परागत लोककला ’’सौंरा चित्रकला’’ में प्रवीण थीं। प्रकृृति और माॅं के सान्निध्य में वे बचपन में ही सौंरा चित्रांकन के साथ-साथ अन्य पारंपरिक कलाओं को समझने लगे थे। वडर्सवर्थ के शब्दों में, ’’वस्तुओं के अन्तर को वे चीन्हने लगे थे।’’ उनके हाथ में पेंसिल आते ही ऐसी रेखायें उभरने लगती, जो मूलतः सौंदर्यपरक अनुभव को अपने में बाॅंधे रहती।
Pic Courtsey: National Gallery of Modern Art, N. delhi
कलात्मक मन एवं कला के प्रति उत्सुकता के कारण कला की विधिवत शिक्षा के लिए उन्होंने 1925 में कलकत्ता के स्कूल आॅफ आर्ट्स में दाखिला लिया। आर्ट स्कूल के तत्कालीन प्राचार्य पर्सी ब्राउन के मार्गदर्शन में उनकी भविष्य की कला साधना का मार्ग सुनिश्चित हुआ। भारतीय समकालीन कला के लिए यह संक्रमण काल था। कला में भारतीयता की बातें होने लगी थी। उस समय बंगाल स्कूल में ईबी हैवेल, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, अवनीद्रनाथ ठाकुर, नंदलाल बोस जैसे कलाकारों के सतत प्रयास से आधुनिक भारतीय कला के स्वदेशीकरण या पाश्चात्य प्रभाव से विमुक्तिकरण के लिए चलाया गया आंदोलन चरम पर था। यहाँ के कलाकार अपने विचारों को लेकर देश के विभिन्न क्षेत्रों में भ्रमण करने लगे थे, जिनका मुख्य उदेश्य था कि भारत की परम्परागत कला शैलियों को फिर से नव जीवन प्रदान किया जाय। उपेन्द्र महारथी भी इस आन्दोलन से जुड़ गए। उनकी कला में भारतीय लोककला परम्पराओं की छवि आने लगी। उड़ीसा की कला से वे प्रभावित थे ही, बंगाल के आर्ट स्कूल में पढ़ने के क्रम में उन्हें बंगाल शैली की कला को लेकर सकारात्मक सोच मिली, जिसके कारण बाद में रचना के क्रम में उन्होंने इसी शैली को व्यापक रूप दिया। अपनी चित्रकला के लिए इन्होंने जातक कथाओं और बुद्ध के जीवन को अपना विषय बनाया। शुरूआती दौर में इन्होंने कागज पर रंगों का ज्यादा प्रयोग किया, किन्तु बाद में लकड़ी की तख्ती, शीशा और कैनवास इत्यादि पर भी तैल रंगों से प्रभावशाली कृतियों की रचना करने लगे।
Pic Courtsey: National Gallery of Modern Art, N. delhi
उन दिनों देश की स्वतंत्रता के लिए आंदोलन चल रहा था। 1931 में चित्रकला में प्रथम श्रेणी से पास करने के बाद कला को जीविकोपार्जन का साधन बनाने के बजाय आजादी के आंदोलन के साथ उनका जुड़ाव हुआ। वे एक सजग कार्यकर्ता के रूप में क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेने लगे। प्रशासन की नजर से अपने आपको बचाने के लिए एक जगह रहकर काम करने के बजाय धूम-धूमकर लोगों की चेतना जागृृत करने लगे। इस उदेश्य से इन्होंने देश के कई क्षेत्रों का भ्रमण किया। उसी क्रम में 1932 में उनका बिहार आना हुआ। बिहार की धरती उन्हें पसंद आयी और उन्होंने अपना कार्य क्षेत्र बिहार को ही बनाने का निर्णय कर लिया। डेढ़-दो वर्षों तक घूमने-फिरने के पश्चात 1933 में लहेरियासराय (दरभंगा) स्थित ’’पुस्तक भंडार’’ में उन्होंने चित्रकार के रूप मेें कार्य करना शुरू किया। यहाँ रहते हुए उन्होेंने सैकड़ो पुस्तकों के लिए आवरण चित्र बनाये। इस दौरान रेखा चित्र निर्माण में अपनी अपूर्व प्रतिभा का परिचय इन्होंने दिया। तब यह पुस्तक-भंडार साहित्यकारों और कलाकारों का अखाड़ा था। आचार्य रामलोचन शरण, शिवपूजन सहाय, रामवृृक्ष बेनीपुरी, रामधारी सिंह दिनकर, प्रो कलक्टर सिंह केसरी और आरसी प्रसाद सिंह जैसे धुरन्धर साहित्यकार पुस्तक-भंडार को उर्जित करते थे। इनके सम्पर्क में आने से इनमें बिहार की लोककला एवं साहित्यिक परम्परा के संबंध में सोचने-समझने की दृृष्टि विकसित हुई। इसी दौरान (1938) इन्होंने कागज पर वाॅश पेंटिंग में ’अर्द्धनारीश्वर’ चित्र का निर्माण किया, जिसमें शिवत्व और देवी के मातृृत्व का शान्त, स्निग्ध वातावरण दर्शाया गया। इस चित्र के प्रकाशन से तत्कालीन कला-जगत में एक हलचल मच गई।
Pic Courtsey: National Gallery of Modern Art, N. delhi
दरभंगा में रहते हुए उन्होंने निकट के गाँवों का भ्रमण किया। जब कभी उन्हें मौका मिलता, आसपास के इलाकों में निकल पड़ते थे। उसी दौरान उनकी नजर मिथिलांचल में लोककला और लोकशिल्प की समृृद्ध परम्परा की ओर गई। गाँव में घरों की दीवारों पर अंकित आकृृतियाँ हो या औरतों द्वारा सृृजित कोहबर या बिछावन के रूप में सिलाई की गई सुजनी- सबने महारथी को चकित कर दिया। वे मुग्ध हो गये। तत्समय अपनी कृृतियों में उन्हें जगह देना शुरू किया। खासकर पौराणिक देवी-देवताओं से जुड़े हुए चित्रों एवं आकृृतियों को। तत्पश्चात अपनी इस रूचि को समृृद्ध करने के उदेश्य से उन्होंने राँची, दुमका, हुगली, मुर्शिदाबाद और बाकुॅंरा के ग्रामीण क्षेत्रों का भ्रमण कर वहाँ की लोककला का सूक्ष्मता के साथ अध्ययन किया, जिसके चलते उनकी कलाकृृतियों में उनसे जुड़े तत्व स्वतः प्रस्तुत होने लगे। देशी झाॅंकियाँ और वे मधुर स्वप्न, जो उनके भीतर बचपन से संचित होते गये थे, उनके आत्मा के सच्चे प्रतीक बनकर रंग और रेखाओं में बिखर गये।
Pic Courtsey: National Gallery of Modern Art, N. delhi
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद बिहार सरकार के आग्रह पर वे पटना आकर उद्योग विभाग में डिजाइन विशेषज्ञ के रूप में कार्य करने लगे। इस दौरान राज्य में लुप्त हो रही लोककला और लोकशिल्प परम्परा को एक स्वतंत्र पहचान दिलाने के उदेश्य से अनेकों सुझाव सरकार के सामने रखा, जिसे आधार बनाकर कार्य शुरू हुआ। परिणाम स्वरूप बिहार की लोककला को देशव्यापाी पहचान मिली। उनकी इस रूचि एवं सक्रियता को देखते हुए भारत सरकार ने 1954 में जापान में होने वाले अंतर्राष्ट्रीय हस्तशिल्प सम्मेलन में भाग लेने का अवसर प्रदान किया। सम्मेलन में भाग लेने के क्रम में जापान की हस्तशिल्प कलाओं को देखकर काफी प्रभावित हुए। वेणु शिल्प के संबंध में बारीकी से जानकारी प्राप्त करने के लिए वे दुबारा भी जापान गये। 1955 में शिल्प अनुसंधान केन्द्र, पटना बिहार में निदेशक के रूप में उन्होंने कार्य करना शुरू किया। यहाँ अपनी प्रशासनिक कुशलता का परिचय देते हुए बिहार के शिल्प परम्पराओं के उत्थान के लिए सतत प्रयत्न किया और कई विलुप्त हो रही लोक कलाओं को सामने लाया। मधुबनी या मिथिला चित्रकला को राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय पहचान दिलाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। आज मधुबनी पेंटिंग राष्ट्रीय एवं अंतराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में है। इसे लेकर ढे़र सारे प्रयोग, सृृजन, शोध आदि हो रहे हैं। लेकिन अगर हम इसके इतिहास को देखें तो घर-आँगन तथा दीवारों तक सिमटी इस कला को बेहतर पहचान दिलाने तथा उसके कलात्मक तत्वों पर बातचीत करने की शुरूआत महारथी जी ने की थी।
“हम आज जो कुछ भी हैं, वह उपेन्द्र महारथी की वजह से”
-कहते हुए मधुबनी पेंटिंग में राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त शिवन पासवान और उनकी धर्मपत्नी शांति देवी के आँखों के रेती तरल हो जाती है। वे कहते हैं कि वर्ष 1964-65 के अकाल के दौरान तक हमलोग बड़े ही फटेहाल स्थिति में थे। हमारी पारिवारिक स्थिति भयावह थी। मिथिला चित्रकला में कायस्थ और ब्राह्यण कलाकारों का वर्चस्व था। हमलोग उनकी देखा-देखी पेंटिंग तो बनाया करते थे। लेकिन वर्ण-व्यवस्था के कारण ज्यादातर लोग हमारी पेंटिंग खरीदने से हिचकते थे। तभी हमारी मुलाकात उपेन्द्र महारथी से हुई। उन्होंने हमारा उत्साह बढ़ाया और उनके मार्गदर्शन में पटना आकर हम चित्रों की रचना करने लगे। पटना हमारा अस्थायी ठिकाना हो गया। हमलोग जो भी पेंटिंग बनाते थे, उपेन्द्र महारथी के सहयोग से उसकी सरकारी खरीद हो जाती थी। धीरे-धीरे हमारी तकलीफें दूर होने लगी और हमारी पारिवारिक गाड़ी खिसकने लगी।”
पद्मश्री गोदावरी दत्त के साथ लेखक।
अतीत के पन्नों को पलटते हुए पद्मश्री गोदावरी दत्त कहती है, “1964-65 के अकाल के दौरान उपेन्द्र महारथी डिजाइनर भास्कर कुलकर्णी को लेकर मेरे घर आए थे। यह वह दौर था, जब मिथिलांचल के महिलाओं को पर-पुरूष से बात करने की अनुमति नहीं थी। इसलिए, सामाजिक मर्यादा और लोकलाज के भय से मैं उनसे नहीं मिली। वे दो बार मेरे दरवाजे से लौट गए। फिर जेठ के बहुत समझाने पर मैं उनसे मिली। उस समय तक सिर्फ शादी-ब्याह या पूर्व-त्यौहार पर ही घर की दीवारोें पर मधुबनी पेंटिंग उकेरी जाती थी। उन्होंने उसेे मिट््टी की दीवारों से कागज पर उतारने के लिए प्रेरित किया। उनकी प्रेरणा से मेरे साथ-साथ जगदम्बा देवी, सीता देवी, गंगा देवी, कर्पूरी देवी और बौआ देवी भी कागज पर पेंटिंग बनाने लगी। फिर तो मधुबनी पेंटिंग ने अपनी मौलिकता और अनोखेपन से समूची दुनिया को अचंभित कर दिया। उन्होंने मधुबनी पेंटिंग की सरकारी खरीद शुरू की। तब ’ए’ ग्रेड की पेंटिंग के लिए 17 रूपया, ’बी’ ग्रेड के लिए 10 रूपया और ’सी’ ग्रेड के लिए 7 रूपये मिलते थे।”
Pic Courtsey: National Gallery of Modern Art, N. delhi
मधुबनी पेंटिंग की तरह टिकुली पेंटिंग के उत्थान में भी उपेन्द्र महारथी का अन्यतम योगदान रहा है। भारतीय संस्कृृति में सुहागन स्त्रियाँ सदियों से सौन्दर्य के प्रतीक के रूप में टिकुली उर्फ बिन्दी का इस्तेमाल करती आ रही है। तब काँच पर पेंटिंग कर टिकुली बनायी जाती थी। वर्ष 1900 तक आते-आते भारत में प्लास्टिक की टिकुली बनाने वाले कारखाने खुलने लगे और सस्ते दामों के चलते प्लास्टिक की टिकुली पूरे भारत में छा गयी। धीरे-धीरे टिकुली कला के परम्परागत कारीगर दूसरे काम-धंधों में लग गये। उपेन्द्र महारथी 1954 में जापान की यात्रा पर गये थे। वहाँ इन्होंने लकड़ी के टुकड़ों पर इनामेल पेंट के माध्यम से पेंटिंग होती देखी। उन्होंने उसका गहराई से अध्ययन किया और भारत में लौटकर पटना सिटी में कभी टिकुली पेंटिंग करने वाले कलाकारांे को जापानी पद्धति का इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित किया। महारथी जी की प्रेरणा से कारीगरों ने काँच की जगह लकड़ी और सोने के वर्क के स्थान पर सोने की चमक वाले इनामेल पेंट का उपयोग करना शुरू किया। उनकी पहल पर उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसंधान केन्द्र में टिकुली कला का प्रशिक्षण शुरू हुआ। धीरे-धीरे टिकुली कला के प्रशिक्षित कलाकारों की संख्या बढ़ने लगी और लगभग लुप्त हो चुकी टिकुली का व्यवसायिक उपयोग एक बार फिर से शुरू हो गया। टिकुली कला के इस नये स्वरूप को बाजार ने हाथों-हाथ लिया और यह कला फलने-फूलने लगी। आज सिर्फ पटना और इसके आसपास के क्षेत्रों में पाँच से सात हजार शिल्पकार टिकुली पेंटिंग को अपना व्यवसाय बनाकर जीवन-यापन कर रहे हैं। मधुबनी पेंटिंग और टिकुली पेंटिंग के साथ-साथ, गुडि़या शिल्प, वेणु शिल्प और बावन बूटी शिल्प को उपेन्द्र महारथी ने एक रचनात्मक स्वरूप प्रदान किया और उनके विपणन का मार्ग प्रशस्त किया।
Upendra Maharathi
उपेन्द्र महारथी ऐसे कलाकार थे, जिन्हें अपनी परम्परा और जन संवेदना से गहरा लगाव था। इसलिए उनकी कलाकृृतियों में काफी विविधता है, जिन्हें हम विषय-वस्तु एवं शैली के आधार पर कई भागों में विभक्त कर सकते हैं। शुरूआती दौर में उन्होंने ढेर सारे व्यक्ति-चित्रों का सृृजन किया है। उसमें हम सिर्फ एक चित्र या तस्वीर सा महसूस नहीं करते, बल्कि उस व्यक्ति की आंतरिक एवं सामाजिक सरोकारों यानी पूरे परिवेश से साक्षात्कार कर सकते हैं। उन्होंने पेंसिल से रेखांकन के साथ ही तैल रंगों से भी प्रोट्रेटो का सृृजन किया है। जयप्रकाश नारायण, गाँधी, बुद्ध, भिखारी ठाकुर बिरसा, आंइस्टाइन, रवीन्द्रनाथ टैगौर, राजा राधिका रमण के साथ-साथ ढेर सारे राजनेताओं और कलाकारों का इन्होंने रेखांकन किया है। उनकी पोर्ट्रेट कलाकृतियों में काफी जीवंतता महसूस होती है। रंगों का मिश्रण हो, या छाया-प्रकाश-सबसे एक खास रिदम है।
Pic Courtsey: NGMA, N. delhi
उपेन्द्र महारथी महात्मा बुद्ध और गाँधी से प्रभावित थे। इसलिए बुद्ध और गाँधी के भिन्न-भिन्न मनः स्थिति के अनगिनत चित्र इन्होंने बनाये हैं। वे कहते थे कि मैं, गाँधी में ’बुद्ध’ का दर्शन पा लेता हूँ। इनके बहुचर्चित चित्र ’’बुद्ध और गाँधी’’ में यह भावना स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है। वेणुवन से विदा लेते बुद्ध, भगवान बुद्ध को खीर अर्पित करती सुजाता, सारनाथ में भगवान बुद्ध का धर्म-चक्र प्रवर्तन और भगवान बुद्ध का वैशाली से प्रस्थान जैसे चित्रों में अलौकिक सौंदर्य झलकता है। यशोधरा का विलाप और बुद्ध के महापरिनिर्वाण पर प्रकृृति का रूदन जैसी इनकी कलाकृृतियाँ इनके विलक्षण रचना संसार से हमारा साक्षात्कार कराती है। इन छोटी-बड़ी कलाकृतियों के अलावा उन्होंने बुद्ध के जीवन पर रिलिफ स्टाइल में कई पैनलों के लिए रेखांकन भी किया है। बुद्ध से संबंधित उनके अधिकांश चित्रों में आकृृतियोें की अर्धमुंदी हुई आँख, भद्र माॅडल आकृतियाँ, गीतात्मक रेखायें और भरी हुई रंग-पटिटकाएं दृृष्टिगोचर होती है। उसी तरह गाँधी के चित्रों में भी इनकी सूक्ष्म सौन्दर्य दृृष्टि झलकती है। ध्यानमग्न गाँधी, रक्तिम सूर्यास्त और तीन महापुरूषों की अंतिम परिणति जैसे इनके चित्र बड़े ही प्रभावशाली बन पड़े हैं। प्रो. आनंद कृष्ण ने लिखा है कि गाँधी के कई चित्रों में महारथी जी ने पारम्परिक आकृतियों एवं रंगों का खुलकर प्रयोग किया है। गाँधी के चित्रों के मुखमण्डल पर अलौकितता झलकती है, जो ’मूर्तिवाद’ का प्रतीक नहीं है, अपितु बुद्ध और गाँधी के संदेशों में छिपे हुए समान शाश्वत मूल्यों में उनकी आस्था का प्रतीक है।
Pic Courtsey: NGMA, N. delhi
भगवान शिव का चरित्र काफी अलबेला रहा है। उनके मस्तमौला चरित्र पर केन्द्रित एक चित्र-श्रृृखंला भी उपेन्द्र महारथी ने सृृजित की है। उसमें शिव एक तरफ तांडव करते हुए नृत्य मुद्रा में है तो दूसरी तरफ विष का प्याला पीते हुए। टेम्परा माध्यम में सृृजित उन कलाकृृतियों में अपार करूणा, शांति समभाव और अभिभूत कर देने वाला ’शिवत्व’ है। धार्मिक एवं पौराणिक कथा-कहानियों पर आधारित चित्रों के साथ-साथ लोक जीवन एवं आम लोगों के सपनों, इच्छाओं-कुंठाओं और संवेदनाओं को भी इन्होंने चित्र रूप में प्रस्तुत किया है। उनके एक चित्र में भंवर में फंसा व्यक्ति जीवन-जंजाल एवं मोह-माया की लहरों में जकड़ा-सा महसूस होता है, जिससे निकलने के लिए वह सतत प्रयत्नशील है।
Pic Courtsey: NGMA, N. delhi
आदिवासी जनजीवन को उन्होंने बहुत ही करीब से देखा है। उनकी एक कलाकृृति है। ’’छोटानागपुर’’। यह श्रृखंलाबद्ध दो अलग-अलग कलाकृृति है। अद्भुत कलाकृृतियाँ है दोनों। इनमें आदिवासी जन-जीवन के सुबह से रात्रि तक के क्रियाकलाप को दर्शाया गया है। शहरी कृृत्रिमता से दूर उनका सीधा-सादा जीवन और उनकी कर्मठता के साथ-साथ प्राकृृतिक दृृश्यों के चित्रण में रंगों का चयन भी इन्होंने काफी खूबसूरती के साथ किया है। छोटी-छोटी पहाडि़याँ, नदी-नालों के बीच गाँव का दृृश्य अद्भुत है। आदिवासी महिलाओं की त्रासदी, हताशा, और दर्द को केन्द्र में रखकर सृजित की गई इनकी कलाकृृतियाँ हमारे मन को झकझोरती है, संवेदित करती है। आदिवासी लड़कियों के चित्रण में उनका उमंग एवं आंतरिक हलचल दृृष्टिगत होता है।
उपेन्द्र महारथी ने बांस के जड़ को लेकर भी कई शिल्पों का सृजन किया है। बांस के जड़ को सिर के आकार में रखकर मानवाकृृति के रूप में प्रस्तुत किया है, जो इनकी शिल्प संयोजन की दृृष्टि का रेखांकित करता है। दूसरी तरफ टेक्सटाइल डिजाइन जैसी विधा में भी इन्होंने नवीनतम प्रयोगों को बढ़ावा दिया है। बिहार की वस्त्र शिल्प परम्परा में बावनबूटी का प्रमुख स्थान है। इसका केन्द्र नालन्दा जिले का बसवन विगहा गाँव है। यहाँ निर्मित होने वाले वस्त्रों पर बौद्ध धर्म से जुड़े प्रतीकों यथा महाबोधि मंदिर, नालन्दा विश्वविद्यालय, स्तूप इत्यादि को मोटिव के रूप में इस्तेमाल कर उपेन्द महारथी ने बावन बूटी शिल्प को राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विलुप्त हो चुकी इस कला के लिए नए-नए डिजाइन सृृजित कर उन्होंने इसे एक नया आयाम दिया।
Pic Courtsey: NGMA, N. delhi
महारथी जी की प्रतिभा बहुकोणीय थी। बहुकोणीय इस मायने में कि चित्र रचना और शिल्प निर्माण के साथ-साथ वे भवन, इमारत आदि की कल्पना भी सहज रूप से कर लेते थे। रेखांकन कला को जिस रूप में महारथी ने प्रस्तुत किया है, वह अद्भुत है। रेखाओं की अपनी भूमिका होती है। यूँ कहें कि कला की शुरूआत ही रेखाओं के माध्यम से हुई है। उपेन्द्र महारथी ने हजारों रेखाचित्र बनाये हैं। आम जन-जीवन से लेकर पौराणिक कथा-कहानियों को भी इन्होंने रेखाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया है। जल रंगों की वाश तकनीक के साथ-साथ तैल रंगों में भी वे समान दक्षता रखते थे। वे महान चित्रकार के साथ-साथ एक कुशल वास्तुशिल्पी भी थे। हालांकि चित्र रचना और भवन, इमारत आदि के रेखांकन मेें काफी भिन्नता होती है। एक का फलक सपाट होता है तो दूसरा जगह के अनुसार गोलाकार, आयताकार या वर्गाकार होता है, साथ ही उसका बाह््य आंतरिक बनावट भी होता है। लेकिन वास्तुकार के रूप में भी उन्हें महारथ हासिल थी। उन्होंने राजगीर के रत्नागिरि पर्वत पर स्थित ’विश्व शांति स्तूप’ तथा ’वेणु बिहार’ का डिजाइन किया था। आज भी देश-विदेश के हजारों पर्यटक प्रतिवर्ष राजगीर आते हैं और विश्व शांति स्तूप का अवलोकन करते समय मुग्ध हो जाते हैं। इसके अलावे पटना का आर्ट काॅलेज और उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान तथा वैशाली स्थित प्राकृृत शोध संस्थान एवं जैन अध्ययन संस्थान का डिजाइन भी महारथी जी ने ही किया था। उनकी वास्तुकला की बारीक समझ के कारण बिहार के ये संस्थान आज भी धरोहर के रूप में प्रतिष्ठा पा रहे हैं।
Pic Courtsey: NGMA, N. delhi
उपेन्द्र महारथी अपनी भावनाओं एवं जीवन अनुभवों को चित्र एवं जीवन अनुभवों को चित्र एवं शिल्प रूप में ढाला ही है, अपने अनुभवों को शब्दों में बांधकर उसे पुस्तक रूप में भी प्रस्तुत किया है। भगवान बुद्ध के दर्शनों एवं विचारों को लेकर उन्होंने ’बुद्ध धर्म का उत्थान’ नामक पुस्तक लिखा। बिहार की सांस्कृृतिक परम्पराओं से उन्हें गहरा लगाव था। तभी उन्होंने ’वैशाली के लिच्छवी’ नामक पुस्तक की रचना की। इसके अलावा ’चन्द्रगुप्त’ नामक पुस्तक में उन्होंने बिहार के गौरवशाली इतिहास को रेखांकित किया है। वर्ष 1954 में जापान की यात्रा से लौटने के बाद इन्होंने ’वेणुशिल्प’ नामक पुस्तक की रचना की, जिसके माध्यम से हम वेणुशिल्प से रू-ब-रू हो पाते हैं।
बिहार की परम्परागत सिक्की कला, पेपरमैशी शिल्प, वेणु शिल्प, ढोकरा शिल्प और लाह शिल्प को भी लोकप्रियता दिलाने में उपेन्द्र महारथी का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। लोक कला के क्षेत्र में अन्यतम योगदान के लिए भारत सरकार ने इन्हें 1969 में ’पदमश्री’ से सम्मानित किया। वर्ष 1976 में उन्हें बिहार विधान परिषद के सदस्य के रूप में मनोनीत किया गया, जहाँ उन्होंने अपने जीवन के सांस्कृृतिक एवं राजनीतिक अनुभवों का साझा कर सरकार को एक नई दृृष्टि दी। 11 फरवरी, 1981 को उनका निधन हो गया।