अनीश अंकुर मूलतः संस्कृतिकर्मी हैं, किन्तु अपनी राजनैतिक व सामाजिक अभिव्यक्ति के लिए भी जाने-पहचाने जाते हैं। उनके नियमित लेखन में राजनीति से लेकर समाज, कला, नाटक और इतिहास के लिए भी भरपूर गुंजाइश रहती है । बिहार के मौजूदा कला लेखन की बात करें तो जो थोड़े से नाम इस विधा में देखने को मिलते हैं उनमें से एक महत्वपूर्ण नाम अनीश अंकुर जी का भी है। उनकी कोशिश रहती है बिहार से बाहर के कला जगत को बिहार की कला गतिविधियों से रूबरू कराना। इसी कड़ी में प्रस्तुत है अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर आयोजित कला प्रदर्शनी पर एक समीक्षात्मक रिपोर्ट …..
- अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर बिहार ललित अकादमी, पटना में महिला चित्रकारों की प्रदर्शनी का आयोजन।
अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर सात महिला चित्रकारों की चार दिवसीय प्रदर्शनी का आयोजन बिहार ललित कला अकादमी में किया गया। जहाँ बिहार तथा राज्य से बाहर के महिला कलाकारों का सृजनकर्म से रूबरू होने का मौका पटना के कलाप्रेमियों को मिला। विदित हो कि ललित कला अकादमी में एक लंबे अंतराल के पश्चात में कला गतिविधियों की शुरुआत हुई । 8 मार्च को बिहार म्युजियम के डायरेक्टर जेनरल अंजनी कुमार सिंह ने इस प्रदर्शनी का उदघाटन किया। आर्यभट्ट ज्ञान विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर जियोग्राफिकल स्टडीज की निदेशक पूर्णिमा शेखर सिंह भी इस अवसर पर उपस्थित थीं।
एक कला प्रेमी के रूप में इन महिला कलाकारों के काम से गुजरना एक सुखद अहसास से भर देता है । कोरोना जैसी अकथनीय सामाजिक त्रासदी से गुजरने के बाद ऐसा प्रतीत होता है कि व्यक्ति व समाज के संबंधों में एक ऐसा तनाव है जिसे सम्भवतः सबसे अच्छे तरीके से कला माध्यमों से ही अभिव्यक्त किया जा सकता है। इन महिला कलाकारों की अधिकांश कृतियां इसी उथल-पुथल भरे दौर या उसके बाद सृजित की गई थी। वैसे तो प्रकट रूप से ऐसा लगता है कि इन चित्रों का कोई सामाजिक सन्दर्भ नहीं है लेकिन कोरोना के बाद के समय ने ऐसी मनःस्थिति पैदा की है कि सभी पुराने व्यक्तिगत व सार्वजनिक रिश्तों पर पुनर्विचार का समय आ गया है। महिला चित्रकारों के सृजनकर्म से गुजरने पर पहला प्रभाव कुछ ऐसा ही है।
ये महिला कलाकार अपनी एक विशिष्ट शैली विकसित करती नजर आती हैं। सबने अलग-अलग मीडियम में काम किया, कोई पेन्टिग, कोई ग्राफिक्स, कोई वाटर कलर में तो किसी को एक्रीलिक में काम करना अच्छा लगता है। यहां तक कि वुड प्रिंट में भी कुछ काम प्रदर्शित था। प्रकृति, व्यक्ति व समाज के आपसी संबन्ध व अंर्तविरोध की नए सिरे से पड़ताल करती ये तस्वीरें देखने वाले को चाक्षुष रूप से समृद्ध करती हैं।
अनीता कुमारी ( MFA, जामिया मिलिया इस्लामिया, नई दिल्ली )
अनीता कुमारी के चित्र स्त्री, उसकी उर्वरता को सामने लाती है। घड़ा, उससे निःसृत होते अंकुर इस भाव को प्रखरता से सामने लाने की कोशिश करते हैं।’ नीम का पेड़ ‘, ‘योगिनी ‘, आदि उनकी कृतियां न सिर्फ स्त्री के अंदर की रचनात्मक उर्जा को संबोधित करती प्रतीत होती हैं। अनीता ने अपनी मनःस्थिति को प्रकट करने के लिए रंगों का चुनाव सावधानी से किया है। ‘योगिनी’ चित्र में बाघ के छाल पर योग मुद्रा में बैठी स्त्री को लाल पृष्ठभूमि में हल्के पीले, सफेद व हल्के काले रंग से इसे बखूबी चित्रित किया है। अनीता के चित्रों में एक रंग की पृष्ठभूमि और उसपर मछली, गर्भ, घड़ा , फूल के लिए विभिन्न रंगों का उपयोग आंखों को सुकून प्रदान करता है तथा देखने वाले के अंदर आशा का संचार करता है।
उर्वरता के लिए गर्भ और उसकी छाया की पारम्परिक बिंब के माध्यम से आगे आने वाले वक्त में उम्मीद के भाव को प्रकट करती है। हरे रंग की पृष्ठभूमि वाले हल्के काले रंग के घड़े, हल्की पीली मछली के पेट में लाल रंग की पंखों वाली लड़की द्वारा वाद्य यंत्र बजाना एक खास मनोभाव को प्रकट करता है। अनीता के चित्रों की विशेषता रंगों का सॉफ्ट होना भी है। तुरही बजाती स्त्री छवि से स्त्रियों की बढ़ती भूमिका सामने आती है। वहीँ ‘नीम का पेड़’ शीर्षक चित्र की प्रेरणा, जैसा कि वे खुद बताती हैं, उन्हें राही मासूम रजा के इसी नाम से लिखे चर्चित उपन्यास से मिली है।
संगीता सिन्हा ( MFA, IKS-VV)
संगीता सिन्हा ने हाल के बनाये अपने चित्रों में पर्यावरण और उसके विभिन्न आयामों को केंद्र में रखा है। वाटर कलर में प्रकृति पर बनाये अपने चित्रों की श्रृंखला को संगीता सिन्हा ने ” फैंटेसी, माइंड विद नेचर्स’ का नाम दिया है। कोरोना संकट प्रकृति से विध्वंसक छेड़छाड़ का नतीजा है लिहाजा उसे बचाने की जद्दोजहद संगीता के काम मे दिखाई देती है। बादल, पेड़, चिड़िया, बर्फ आदि के सहारे संगीता उस प्रकृति को पुनर्सृजित करती हैं। अधिकांश चित्रों को संगीता ने दो या तीन रंगों की सहारे चित्रित करने का प्रयास किया है। ब्लू, पीला, हरा आदि का इस्तेमाल कर कई रंगों की आभा को प्रकट करने की सृजनात्मक कोशिश इन चित्रों में नजर आती है । प्रकृति संबंधी अधिकांश चित्र वाटर कलर में बनाये गए हैं। वाटर कलर में प्रकृति की पारदर्शिता को प्रकट करने के लिए संगीता सिन्हा ने दक्षता से काम किया है।
इसके अतिरिक्त ग्रामीण जीवन के चित्र भी उकेरे गए हैं। इनमें चटख रंगों का उपयोग ग्रामीण वातारण के लिए किया गया है। हरे पेड़, मिट्टी के घर, फुस की छत, महिला, बच्चे, मुर्गी जो गांव के प्रचलित बिंब हैं उसके माध्यम से ग्राम्य संसार को उकेरा गया है। उसके अलावा संगीता सिन्हा ने एक दो चित्र ग्राफिक में वुड प्रिंट कर भी बनाया है। स्त्री आकृति वाली वुड प्रिंट जिसका शीर्षक ‘वीमन होप’ है अलग से ध्यान आकर्षित करते हैं। पीले व हल्के काले रंग के प्रभाव वाला यह इस वुड प्रिंट के साथ-साथ एक एक गांव के घर में बच्चे को गोद मे लिए स्त्री, लटकता मटका वाला चित्र स्त्री की आंखों के ढ़ंग के कारण विशिष्ट हो गया है। तस्वीर को जिस भी कोण से देखा जाए स्त्री उसी दिशा में देखती नजर आती यही। संगीता सिन्हा ने प्रवीणता के साथ इसे उकेरा है।
संगीता जिस ग्राम्य जीवन को सामने लाती हैं वह एक शांत, स्थिर या कहें ठहरी छवि वाली होती है जबकि वाटर कलर वाले प्रकृति संबंधी चित्रों में एक गति, एक मूवमेंट का अहसास होता है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति अपनी भंगिमाओं से कुछ प्रकट करना चाह रही हो जिसे सुनने की दरकार है।
नम्रता पंडित ( MFA, प्राचीन कला केंद्र, चंडीगढ़ )
महिला कलाकारों की इस प्रदर्शनी में नम्रता पंडित का काम कुछ अलग ढ़ंग का है। ‘सुजनी शहर’ श्रृंखला का कुछ काम देखने वाले को एकबारगी अपनी ओर बांध लेता है। सुई, धागे की सहायता से पेंटिंग पर उकेरी गई उभरी हुई आकृति उसे भिन्न कलेवर के साथ तेवर प्रदान करती है। हिंदी प्रदेश में सुजनी ग्रामीण जीवन का एक स्थायी उपस्थिति रही है। नवजात शिशु को पुराने सुजनी पर रखने की परिपाटी को नम्रता ने अपने रचनाकर्म में एक नया अर्थ प्रदान करने की कोशिश की है। नम्रता के सृजन में रंगों का चयन भाव के अनुरूप किया गया है। हल्के व सॉफ्ट रंगों के माध्यम उनकी प्राथमिकता में हैं। ठीक इसी प्रकार ‘टाइमपास’ श्रृंखला की एक दो तस्वीर में फुर्सत के क्षण को अभिव्यक्त करने के लिए छोटे ठोंगे में रखे चीनिया बादाम के बिम्ब का सफल उपयोग किया है।
कैनसन पेपर पर वाटर कलर में किये काम चित्र ‘सुजनी शहर’ व ‘ टाइमपास’ से बिल्कुल अलग किस्म के हैं। बिना शीर्षक वाले इन तस्वीरों में मन के अंदर के गुप्त भावों को, अनजाने संवेगों को सामने लाते प्रतीत होते हैं। नम्रता पंडित के काम में भी रूरल लैंडस्केप से जुड़ी चीजें व भाव उनके सृजन की दुनिया का हस्सा हैं। पर साथ ही कई जगहों पर उसका अतिक्रमण कर इन नया अर्थ, अलग आयाम पकड़ने की जद्दोजहद भी नजर आती है।
सत्या सार्थ ( सात वर्षीय सीनियर डिप्लोमा, रवींद्र भारती विश्विद्यालय, कोलकाता )
सत्या सार्थ की पहचान उनके चटख रँगों के इस्तेमाल से हो जाती है। उनके हालिया कामों में एक्रीलिक में मुखौटे, मेमोरी और अंबेडकर के संविधान पकड़ी तस्वीर इस प्रदर्शनी में विशिष्ट है। ‘मुखौटे’ शीर्षक चित्र में स्त्री के चेहरे के साथ मुखौटा, तितली, छाता और पेड़ बीस तस्वीर को एक पारिवारिक सन्दर्भ प्रदान करता है। एक घरेलू महिला भी किस प्रकार मुखौटे ओढ़े रहती है , एक चेहरे के अंदर कई-कई चेहरे रहा करते हैं। लालच, डर, व पांखड को प्रकट करती इन चेहरों को पहचाना जा सकता है। परिचित चेहरा भी पीठ पीछे अपरिचित व कई दफे शत्रुतापूर्ण व्यवहार करता है इसे इन पेंटिग में सामने लाने का प्रयास किया गया है। इन तस्वीर तो सत्या सार्थ ने ब्लू, हल्का कत्थई, काला , व क्रीम कलर व धूसर प्रभाव से निर्मित किया है। दो हिस्सों में बनाकर इस एक साथ इस प्रकार जोड़ा गया है कि पेड़ के दो तनों से जोड़कर आदिवासी इलाकों की बनी रस्सी की सहायता से तस्वीर का कम्पोजीशन देखने को विवश करता है।
ऐसे ही एक और तस्वीरे ‘ मेमोरी’ नाम से है। किसी शहर के खुले पार्क में खाली बेंच, सफेद फूल, पौधे और हल्के अंधेरे का इम्प्रेशन ध्यान से देखने वाले को मेमोरी लेन में ले जा सकता है। यह स्मृति भी एक स्त्री की स्मृति है, उसकी मीठी याद है जिसके प्रति उसके अंदर गहरा लगाव प्रदर्शित होता है। सत्या सार्थ ने इस तस्वीर में ब्लू, कत्थई, काले रंगों का का उपयोग इस प्रकार किया है कि दर्शक को पुरानी स्मृति कुरेदती मालूम होती है।
ऐसे ही अंबेडकर , बुद्ध, स्त्री व महिला अधिकार को अभिव्यक्त करती उनकी पेंटिंग चित्रकार की सामाजिक सजगता को प्रकट करती है। सत्या चटक व आंखों को थोड़ा चुभने वाले रंग का धड़ल्ले से इस्तेमाल नाजुक भावों को भी अभिव्यक्त करने के लिए करती हैं। यह नाजुक संतुलन साधना चुनौतीपूर्ण है।
अर्चना कुमार ( विभिन्न कला प्रदर्शनियों में भागीदारी)
अर्चना कुमार वैसे तो कहीं से पेशेवर रूप से प्रशिक्षित नहीं हैं लेकिन उनके काम में एक पेशेवर अंदाज़ दिखता है। प्रकृति, फूल, चिड़िया के माध्यम से ये अपनी भावनाओं को पेंटिंग में प्रकट करती हैं। इस प्रदर्शनी में अर्चना कुमार ने बुद्ध ,सीढियां चढ़कर ज्ञान का प्रकाश हासिल करने की परिघटना को अपनी तस्वीर में सामने लाती हैं। बुद्ध वैसे भी चित्रकारों के प्रिय विषय रहे हैं। अर्चना कुमार के यहां बुद्ध अज्ञानता से मुक्ति , अंधरे से रौशनी के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं।
दुर्गा पूजा के मौके ओर काली और भैंसे की छवि को अर्चना कुमार ने सृजनशील तरीके से सामने लाने का प्रयास किया है। भैंसे के माथे, फैले सींग और बीचोबीच खड़ी दुर्गा की दसों हाथ, लड़ने के हथियार, को चित्रित किया है। पृष्ठभूमि को हल्के पीले या क्रीम कलर से काली का काला रंग उभर कर आता है। यहां उन्होंने दक्ष हाथों से कम्पेजीशन बनाये रखा है। यह चित्र देखने को प्रेरित करता है। ऐसे ही पहाड़, झरना स्त्री द्वारा घड़े से उड़ेलने का दृश्य अपनी रंग परियोजना की वजह से कई किस्म को भावों को प्रकट करता है। नीले रंग की पृष्ठभूमि में हल्के लाल कपड़े में स्त्री का कत्थई घड़े से उड़ेलने का दृश्य प्रभावी बन पड़ा है। गेंहू की बाली और पगड़ी पहने किसान का साइकिल से चले आना और दूर से दरवाजे पर देखती एक स्त्री की छवि हालिया पंजाब को केंद्र में रखकर चले किसान आन्दोलन से प्रेरित प्रतीत होती है। यह चित्र प्रदर्शनी में शामिल शेष चित्रों से अपने सरोकारों के कारण अलग है और प्रासंगिक भी।
हेमा विश्वकर्मा ( MVA , डॉ शंकुतला मिश्रा नेशनल रिहैबिलिटेशन सेंटर यूनिवर्सिटी, लखनऊ )
महिला कलाकारों की प्रदर्शनी में हेमा विश्वकर्मा के चित्र भी शामिल किए गए हैं। हेमा विश्वकर्मा ने अपने आसपास के दैनिन्दन जीवन की प्रचलित छवियों के साथ रचनात्मक संवाद कायम करने की प कोशिश की है। आजकल घर के अंदर के एक क्षण को पकड़ने के लिए रंगों व रेखाओं के साथ खेलने की कोशिश नजर आती है और इसमें वे सफल भी दिखती हैं। व्यतीत किये गए एक खास क्षण के माध्यम से है अपनी सृजनात्मकता की तलाश करती हैं। छत को लेकर दो चित्र हैं। एक में छत पर चिड़िया का आना, उसे दाना खिलाने वाला चित्र पर्यावरण के साथ रागात्मक संबन्ध को अभिव्यक्त करता है।
हेमा पर के.जी सुब्रह्मण्यम का प्रभाव स्पष्ट रूप से परिलक्षित है । यह प्रभाव उनके स्ट्रोक्स के साथ-साथ रंगों के चयन पर भी देखा जा सकता है। एक ठहरे हुए लम्हे के लिए हेमा शांत रंग को तरजीह देती प्रतीत होती हैं। इनके काम में ‘क्यूबिजम’ का प्रभाव भी देखने में आता है। साथ ही एक्रीलिक शीट पर रिवर्स तकनीक का उपयोग वे करती हैं।
मीनाक्षी सदलगे ( कर्नाटक)
बिहार की महिला चित्रकारों की इस प्रदर्शनी में दक्षिण के राज्य मीनाक्षी सदालगे के चित्र भी शामिल थे। उनके दो चित्र वाटर कलर में हैं जबकि में चारकोल का उपयोग किया गया है। चारकोल से दो छोटी लड़कियों की छवि भावप्रवण व जीवंतता से कैनवास पर उतारा गया है। मानो दोनों लड़कियां कुछ कहना चाहती हों। मीनाक्षी ने बैल पर कपड़े लादे महिला की घर-घर घूम बेचती छवि को पकड़ने की कोशिश की गई है। चित्रकार ने इसे इन प्रकार चित्रित किया है मानो कैमरे से तस्वीर खींची गई हो। घर की दीवारों से ग्रामीण पृष्ठभूमि की अभिव्यक्ति होती है। मीनाक्षी सदगले ने बारीकी से काम किया है। कई दफे ऐसा अहसास होता है मानो यह तस्वीर नहीं अपितु सचमुच की तस्वीर है। धूप में बैल की बनती छाया उसपर लदे रंगीन कपड़े तीव्र रंगों के माध्यम से अभिव्यक्त किये गए हैं। रंगों की तीव्रता से कपड़ों के नएपन का अहसास होता है। नए कपड़े पर पड़ती धूप मानो आंखों को रेफ़लक्ट करती प्रतीत होती है।
तीन दिनों तक चलने वाली महिला कलाकारों की इस चित्र प्रदर्शनी ने पटना के कला संसार मे कोरोना काल के पश्चात आये ठहराव को तोड़ा है। आठ मार्च कला गतिविधियों के प्रांरभ के लिए इससे अच्छा दिन नहीं हो सकता था। विभिन्न पृष्ठभूमियों से आये महिला कलाकारों ने अपने व्यक्तित्व की छाप छोड़ने की कोशिश अपने द्वारा निर्मित कामों में करने की कोशिश की है। महिलाओं का संसार विविधता से भरा है, उनके सरोकार व शैली अलग-अलग दिखाई देते हैं। यह प्रदर्शनी इस बात को सामने लाता है कि महिला कलाकार खुद को अभिव्यक्त करने के लिए भिन्न-भिन्न फॉर्म की तलाश कर रहे हैं। तकनीकी समृद्धि तो इनके कामों में दिखती है लेकिन समाज में पहले आए चली आ रही छवियों व बिंबों ये सभी अधिक सहज महसूस करती हैं। प्रदत्त परिस्थितियों व कला अनुभवों से परे जाना, वर्तमान का अतिक्रमण करने की कोशिश इनमें थोड़ी कम नजर आती है। यह प्रदर्शनी इन महिला कलाकारों की शक्ति के साथ-साथ उनकी सीमाओं व सम्भावनाओं को भी सामने लाती हैं।
अनीश अंकुर
205, घरौंदा अपार्टमेंट, पश्चिम लोहानीपुर, कदमकुआं, पटना-800003