मधुबनी पेंटिंग की आदर्श !

वैसे तो दुनिया भर में आज २५ दिसम्बर को क्रिसमस मनाया जा रहा है। लेकिन मिथिला चित्रकला के इतिहास के लिए यह दिन विशेष महत्व रखता है, क्योंकि आज आदरणीया बौआ देवी जी का जन्मदिन भी है। जिन्होंने अपनी कला प्रतिभा से न केवल देश-विदेश तक इस कला को पहुँचाने में महत्वपूर्ण भागीदारी निभाई, पद्मश्री जैसे सम्मान से विभूषित होकर अपने समाज को गौरवान्वित भी किया। उनके इस जन्मदिन पर उनके दीर्घ जीवन की कामना के साथ कला लेखक अशोक कुमार सिन्हा का आलेख…

Ashok Kumar Sinha

बिहार के मधुबनी (मिथिला) पेंटिंग की चर्चा आज राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर है। यह पेंटिंग एक बड़ा व्यवसाय बन चुकी है। इससे जुड़े कलाकार अच्छा पैसा भी कमा रहे हैं। मधुबनी पेंटिंग को यदि उसकी वर्तमान सम्पन्नता की दृष्टि से देखें तो यह उल्लेखनीय सफलता है और सफलता से बड़ा कोई यश नहीं। लेकिन उसका एक नकारात्मक पक्ष भी है। मधुबनी पेंटिंग के कलात्मक प्रभाव को लेकर प्रश्न उठ रहे हैं। मधुबनी पेंटिंग की अपनी शैली और अपनी परम्परायँ रही है। लेकिन मधुबनी पेंटिंग के कलाकार आज जो कुछ चित्रित कर रहे है, वह कितना पारम्परिक और प्रासंगिक है? कला समालोचक मधुबनी पेंटिंग में अंधानुकरण करने की प्रवृति को लेकर भी चिंतित हैं। सचमुच, मधुबनी पेंटिंग में आज वैसे कलाकारों की संख्या घटती जा रही है, जो बाजार के हर तरह के दबावों के बावजूद अपनी कला के प्रति निश्छल, समर्पित एवं निष्ठावान हो। यहीं पर बौआ देवी जैसी कलाकारों का महत्व स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है।

भोली-भाली सूरत और ग्रामीण वेशभूषा वाली बौआ देवी से जो भी व्यक्ति मिला है, वह उनके आचरण, कुशलता और व्यक्तित्व की परिपूर्णता से निश्चय ही प्रभावित हुआ है। उनका यही गुण उनकी कृतियों में भी परिलक्षित होते हैं। 78 वर्ष की उम्र में भी वे कल्पना के साथ सृजन करती है, न कि अनुकरण। उनकी प्रत्येक कृति विषय को मुखरित कर देती है और मानवीय एवं प्रेरणास्पद होती है। सहसा विश्वास नहीं होता कि यह महिला 70 के दशक में पेरिस से हो आई है, फ्रांस के चर्चित कला समीक्षक इव्स बिको की पुस्तक ’’द वूमन पेंटर्स आफ मिथिला’’ की पात्र हैं। 11 बार इनकी जापान यात्रा कर चुकी हैं, जर्मनी, लंदन और मारीशस से हो आई हैं – और इतना सबकुछ महज अपनी कला साधना के बुते। इतना ही नहीं पेरिस, बार्सिलोना, स्पेन की कला प्रदर्शनियों में भी हिस्सा लिया है। पुरस्कारों की बात करें तो 1986 में राष्ट्रीय पुरस्कार और 2017 में पद्मश्री जैसा सम्मान भी मिल चुका है। यह सब सिर्फ इस बिना पर कि इनकी रचना शैली मधुबनी पेंटिंग के अन्य कलाकारों से भिन्न है। बौआ देवी सूर्यग्रहण, अर्द्धनारीश्वर के साथ-साथ अमेरिका पर 9/11 के विस्फोटक हमलों को कैनवास पर उतार रही हैं। मानवी दुनिया को विनाश की नाग-कन्याओं से कैसे बचाया जाए, निर्माण और विनाश के कालप्रसूत जीवन-चक्र को कैसे आगे की गति पुनरोत्पादन से जोड़ा जाए- चित्रित कर रही हैं। यह सब ’कोहबर’ से निकली मधुबनी पेंटिंग का व्यापक संक्रांति से मुक्ति का बड़ा फलक है। 78 वर्ष की उम्र में भी सक्रिय हैं बौआ देवी। वे मधुबनी पेंटिंग के अंतिम पंचम स्वर की धात्री देवी-शक्ति हैं। भरनी शैली में बनाए इनकी ज्यामितीय आकृतियों में ढले रंगों में मानव का अंतिम संगीत फूट पड़ा है। इन्होंने सिद्ध कर दिया है कि कला की अंतिम परिणति मानवता के संगीत में ही होती है।

  • ‘‘जब मै 15-16 वर्ष की थी, तभी सीता देवी, महासुन्दरी देवी, जगदम्बा देवी और यमुना देवी के साथ दिल्ली स्थित प्रगति मैदान गई थी और एक माह तक वहाँ रहकर अपनी कला का प्रदर्शन किया था। उसके एवज में हमे प्रतिदिन 20 रूपया मानदेय के रूप में मिलता था, जो उस समय के हिसाब से बहुत ज्यादा था। इसकी भनक चोरों को भी लग गई थी और एक रात वे चोरी की नीयत से हमारे कमरे में प्रवेश कर गए थे। लेकिन हो-हल्ला हो जाने के कारण उन्हें भागना पड़ा था। तब मैं बहुत डर गई थी और फिर कई रात ठीक से नींद नहीं आई थी।‘‘

मधुबनी से 6-7 मील की दूरी पर अवस्थित जितवारपुर गांव आज मधुबनी पेंटिंग का गढ़ बन चुका है। वैसे तो भौगोलिक इकाई के आधार पर दरभंगा, मधुबनी, नेपाल की तराई के गांवों में यह पेंटिंग पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्त्रियों के हाथों से सजती रही है, पर जितवारपुर में अमूमन कमोवेश हर घर में लोग यह पेंटिंग आज बना रहें हैं। इस तरह मिथिला के सामंती समाज में यह स्त्रियों की आजादी और सामाजिक न्याय के सशक्तिकरण, समरसता का नया रास्ता खुल गया है। इसी क्षेत्र से मधुबनी पेंटिंग की पाँच दिग्गज प्रतिभाएँ निकलीं- बिना किसी नेटवर्क के – गंगा देवी, सीता देवी, जगदंबा देवी, महासुन्दरी देवी और गोदावरी दत्त-जिन्हें ’पदमश्री’ से नवाजा गया है। उसका पंचम स्वर हैं – बौआ देवी। गंगा देवी, गोदावरी दत्त और महासुन्दरी जहाँ कचनी (रेखा) शैली में पटु हैं, वहीं सीता देवी एवं जगदम्बा देवी भरनी शैली (रेखाओं में रंग भरने) में। भरनी शैली के कलाकार पहले कलाकृति की रूपरेखा बनाते हैं और फिर जरूरतमंद क्षेत्रों को फ्लैट रंगो से भर देते हैं। वे अत्यधिक अलंकरण पसंद नहीं करते। बौआ देवी उस भरनी शैली का शिखर हैं। लाल, पीले, गुलाबी, बैंगनी और नीले आदि रंगों की इनकी रंग योजना इतनी मनोहर होती है कि चित्र अपनी आकर्षक प्रस्तुति के कारण बहुत ही प्रभावशाली दिखते हैं। बौआ देवी ने चटख रंगों के प्रयोग की अपनी तकनीक निकाली है। रंगों की घनी मोटी परतों से चित्रों को नया आकर्षण दिया है और चित्रों की समर्थ आधुनिक भाषा विकसित की है।

बौआ देवी का जन्म गुलाम भारत में मधुबनी के सिमरी (राजनगर) गाँव में 25 दिसम्बर, 1942 को हुआ था। पिता सूर्य नारायण झा खेती-बाड़ी करते थे और संस्कृत के मर्मज्ञ थें। मिथिला पेंटिंग के प्रति बौआ देवी का प्रेम और पागलपन इस कदर था कि पांचवी कक्षा में ही पढ़ाई छोड़़कर इसी में रम गई। 12 साल की उम्र में शादी के बाद ये जितवारपुर आई। परम्परा से चित्रित मधुबनी पेंटिंग दादी और माँ से होकर इनके खून में चला आया था। उस समय तक शादी एवं पर्व-त्यौहारों के अवसर पर मधुबनी पेंटिंग घर की दीवार पर उकेरी जाती थी। 1962-63 के अकाल के समय अखिल भारतीय हस्तकला बोर्ड की तरफ से डिजाइनर श्री भास्कर कुलकर्णी को इस भित्ति चित्र को व्यवसायिक आयाम देने हेतु भेजा गया था। भास्कर कुलकर्णी जितवारपुर आए और इन्होंने महिलाओं को कागज पर चित्रों को उकेरने के लिए प्रेरित किया। इसे आमदनी का स्त्रोत बनाया। इसी क्रम में बौआ देवी ने भित्ति चित्रों को कागज पर बनाना शुरू कर दिया। आज इसी रूप में यह लोककला बौआ देवी के माध्यम से कागज और कपडे़ पर तो हैं ही- स्टेशनों, संग्रहालयों की दीवारों पर वृहदाकार रूप में भी आकर्षण का केन्द्र है। सौन्दर्य का एक अजूबा कैनवास बनकर। दुनिया के हृदय और मानस का प्रतीकात्मक विस्तार बनकर।

70 के दशक में भास्कर कुलकर्णी ने बौआ देवी से 14 रू0 में कागज पर बनी तीन पेंटिंग को खरीदा था, जिसमें शंकर, काली, दुर्गा को उकेरा गया था। बौआ देवी ने इसके बाद अन्य धार्मिक मिथकों, लोक-प्रतीकों को समाहित किया। अंत में उतर आई ’नाग नागिन’ की पेंटिंग पर, जो इनके व्यक्तित्व और कलाधर्मिता से जुड़ गयी है। इसी को प्राथमिकता देकर इन्होंने इसे विश्वविम्ब में बदल दिया है। नाग-नागिन की कहानी बचपन में इन्होंने दादी से सुनी थी। नाग देवता इनके परिवार के कुल देवता भी थे। इनका नाम है ’कालिका- बिषहारा’। बासुकी नाग की कहानी को बौआ आज भी चित्रित करती हैं। बासुकी नाग इनकी कला में अवतरित हो गए हैं। इनकों शीर्ष पर पहुँचा दिया है बौआ देवी ने। बौआ देवी के मस्तिष्क में इसी तरह का लोक विश्वास-लोक प्रचलित वेद-कायम है। लौकिक ज्ञान और विश्वास ही आज तक कला के उद्गम रहे है। वैसे भी सावन माह में नाग पंचमी से शुरू होकर 15 दिनों तक ’मधुश्रावणी’ के रूप में आज भी नवविवाहिताएँ उस त्यौहार को मनाती है जिसमें लोक कथा का पाठ और विषहारा की पूजा होती है। यह पाठ-पूजा मिथिलांचल की जीवन शैली में पेवस्त है। यही पेवस्तता बौआ देवी की शिल्पकला साधना में दुनिया का विस्मय है।

बौआ देवी ने नाग को विश्व मंच पर प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया है। ये स्वयं आतंक से, व्यावसायिकता से, भौतिकता से मुक्ति के लिए विश्व की नाग-कन्या बन गई हैं, जिसका एक छोर विनाश के खात्मे का है तो दूसरा छोर नव सृजन का। इस तरह एक लोक गाथा बन गई हैं। नाग कन्या एक जलपरी का शरीर है जिसका उर्ध्व-ऊपरी भाग सुन्दर स्त्री का है-निचला भाग सर्पिणी का। सांकेतिक रूप से यही पुनरोत्पादन और विनाश को दिखाता है। यह बिम्ब सीधे विश्व मानस में उतर जानेवाला है। एक तरफ इसकी पौराणिक साम्यता देवी मनसा के साथ है तो इसकी संरचना में अपने गांव के सर्प से उपजी प्रेरणा है। यही इनकी रूचि का परिचायक है। इन्होंने वैयक्तिक और पौराणिक संदर्भो से विषय को उठाकर, उसे अपनी कला में मिलाकर अपने सम्पूर्ण जीवन को एक कला-दर्शन में बदल दिया है। उसके कई आयाम हैं, जो अनुसंधान का विषय है।

अतीत के पन्नों को पलटते हुए बौआ देवी कहती हैं-‘‘जब मै 15-16 वर्ष की थी, तभी सीता देवी, महासुन्दरी देवी, जगदम्बा देवी और यमुना देवी के साथ दिल्ली स्थित प्रगति मैदान गई थी और एक माह तक वहाँ रहकर अपनी कला का प्रदर्शन किया था। उसके एवज में हमे प्रतिदिन 20 रूपया मानदेय के रूप में मिलता था, जो उस समय के हिसाब से बहुत ज्यादा था। इसकी भनक चोरों को भी लग गई थी और एक रात वे चोरी की नीयत से हमारे कमरे में प्रवेश कर गए थे। लेकिन हो-हल्ला हो जाने के कारण उन्हें भागना पड़ा था। तब मैं बहुत डर गई थी और फिर कई रात ठीक से नींद नहीं आई थी।‘‘

आजकल वे बेटे-बेटियों के साथ ज्यादातर दिल्ली में रहती हैं लेकिन जितवारपुर गाँव इनसे छुटा नहीं है। उन्हें इस बात का कष्ट होता है कि आज के कलाकार व्यापारी ज्यादा हो गए हैं। बौआ देवी में कला क्षमता का उद्वेग इस कोटि का नहीं है। उनकी इस कला की व्यथा फूटती रहती है। इन्हें अफसोस है कि मधुबनी पेंटिंग का कोई म्यूजियम देश में नहीं है। यह इनका बडा सपना है। विदेश इन्हें नहीं भाता। स्वदेश ही सब कुछ है। जितवारपुर सब कुछ है, लोक से कला की संवेदना मिलती है। वे समय निकालकर जितवारपुर आती है। उनकी दूसरी व्यथा है कि मधुबनी पेंटिंग में ’’मास प्रोडक्शन’’ बढ़ा है साथ ही उसमें दलाल वर्ग घुस गया है। कलाकारों को उनकी कला का उचित मेहनताना नहीं मिलता। पुरस्कारों के लिए भी जोड़-तोड़ होता है। उनकी यह व्यथा अपनी जगह पर है। लेकिन जब पद्मश्री पुरस्कार बौआ देवी को मिलता है तो पुरस्कार की गरिमा बढ़ जाती है।

बौआ देवी को जितना प्रेम मधुबनी पेंटिंग से है, उतना ही गायन से भी। उनके श्रुति-मधुर स्वर में एक सम्मोहिनी शक्ति है, जो सुनने वालों पर जादू-सा असर करती है। मिथिलांचल के लोकगीतों में कैसी मिठास है, वे कितने सरस हैं, रसीले है, उनमें हद्य को तंरगित करने और उमंगित करने की कितनी शक्ति है, यह बौआ देवी के कंठ से सुनकर ही सही कल्पना की जा सकती है। उच्चारण की स्पष्टता, स्वर की स्निगध गंभीरता, गले की लोच में सोज तो है ही, इसके सिवा भी और कुछ है, जिसे व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है।

वर्ष 2019 के 25 जनवरी का दिन मेरे मन-मस्तिष्क में सदा के लिए बस गया है। दरअसल, 24-25 जनवरी को पटना के बिहार म्यूजियम में उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान द्वारा अंन्तर्राष्ट्रीय सेमिनार का आयोजन किया गया था। समापन के दिन आदरणीय अंजनी कुमार सिंह के सरकारी आवास पर रात्रि-भोज का आयोजन था। संयोगवश उसी दिन गोदावरी दत्त को ‘‘पद्मश्री‘‘ सम्मान दिये जाने की धोषणा हुई थी। भोज में जापान के टोकियो हासेगावा, शिवन पासवान और गोदावरी दत्त सहित मधुबनी पेंटिंग की शीर्षस्थ हस्तियाँ पद्मश्री बौआ देवी, कर्पूरी देवी और शांति देवी भी शामिल थीं। बड़ा ही खुशी का माहौल था। सोने-सुगन्ध का योग और मणि-कंचन का संयोग था। भोज के दौरान हासेगावा के अनुरोध पर बौआ देवी ने जब अपने खास ढंग से मिथिला के लोकगीतों का गायन शुरू किया तो वहाँ सन्नाटा छा गया, हासेगावा सुनकर मस्ती में झूमने लगे। शांति देवी, कर्पूरी देवी और गोदावरी दत्त भी खुद को रोक नहीं पायी और वे भी बौआ देवी के स्वर में स्वर मिलाकर गाने लगीं। उनके गीतों में मिट्टी की खुशबू और लोक परम्पराओं का जादू ऐसा चढ़ा कि भोज में उपस्थित लोगों के मन-प्राण भावनाओं के प्रवाह में डूबने-उतराने लगे। करीब आधे घंटे तक उनका गायन जारी रहा। इस दौरान उनमें से कोई थका नहीं बल्कि सुनाने का उनका जोश और स्वर-माधुर्य, उतरोत्तर बढ़ता गया था। मेरे जैसा सहदय भावुक तो सुनकर बेसुध-सा हो गया था।

आज भी बौआ देवी में कुछ नया करने का जोश है। आज की पीढ़ी को कुछ देने का जज्बा। विरासत की रक्षा। कला पीढ़ी-दर-पीढ़ी का अंग बन जाए-इनकी कोशिश है। किसी विषय को ऊँचाई पर पहुँचा देना। एक ग्रामीण संस्कारों वाली महिला इतना कुछ सोचे-समझे-करे, यह अप्रतिम है। इनकी सामान्यता ऐसी कि इन्हें देखकर कोई सोच नहीं सकता कि ये इतनी बड़़ी कलाकार हैं। इन्हें पद्मश्री मिलने की घोषणा हुई तो बहुतों ने इनके साथ सेल्फी ली। सेल्फी क्या होती है-तब ये नहीं जानती थीं। बिहार का नाम इन्होंने ऊँचा किया है- उसे विश्व स्तर पर पहुँचाया है। अब एक ही काम है इनका। कला को लोगों के मन से जोड़ना। किसी पुरस्कार का ख्याल नहीं रहा-वह स्वयं आया- देर सबेर आया। इसकी कभी चिन्ता नहीं की। पुरस्कार आया तो कला को आया, लोक मानस की विम्बता को आया। ये मानती हैं कि मधुबनी पेंटिंग का भविष्य बहुत उज्जवल है। यह आय का भी जरिया है। महिलाओं में इसके सीखने की चाह होनी चाहिए। कलाकार को अवसर मुहैया कराना चाहिए। कहती हैं कि पेंटिंग बनाती हूँ तो इससे आनंद का अनुभव करती हूँ। ईश्वर की यह कृपा है। लोगों को मेरी कला पसंद आ रही है तो यह मधुबनी पेंटिंग की शान और अवदान है। माध्यम होता है व्यक्ति। कोई लाभ शार्ट कट से नहीं मिलता। महत्वपूर्ण, दीर्घायु होने के लिए कला साधना मांगती है। एक आदर्श होना चाहिए कि हम बड़ों का सम्मान करें और छोटों को सहयोग दे। इसी से कला की जड़ें जमती है। परंपरा भी इसी से बचती है।

मां चंद्रकला देवी की छाया में ही इन्होंने पेंटिंग की शुरूआत की थी। इनके निर्माण में उनका योगदान अन्यतम है। शादी के बाद जब ये जितवारपुर आई तब इनकी कला को और विस्तार मिला। 2015 में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जब जर्मनी यात्रा पर गये तो बर्लिन के मेयर स्टीफन शोस्तक को बौआ देवी की पेंटिंग उपहार में दी। यही इनकी सार्थकता है। कलाकार को दूसरा कुछ भी नहीं चाहिए। उनकी पहली पेंटिंग डेढ़ रू में बिकी थी- आज लाखों में बिकती है- करोड़ों आँखों द्वारा सराही जाती है। यही बौआ देवी की उपलब्धि है। ईमानदारी और निष्ठा होनी चाहिए कला के प्रति। पैसे के पीछे भाग रही है दुनिया तो अपनी जड़ों को भूल रही है। इसे बचाना है। कलाकार का जीवन सबसे पवित्र और महिमामय है। बौआ देवी के व्यक्तित्व से हमें यही सीख मिलती है।

मधुबनी पेंटिंग बौआ देवी के प्राणों में बसती है। इनके अधिकांश चित्र प्राकृतिक और लौकिक हैं- कल्पना का आधार उसमें शामिल है। कालिया मर्दन करते कृष्ण, राम-सीता विवाह यथार्थ और कल्पना का मेल है तो नाग नागिन कला की स्मृति, कहानियों के मर्म का उद्घाटन । समय के साथ बदलाव की चित्रकारी है अमेरिका के वल्र्ड सेन्टर पर हमले का चित्र। आसमान में विशालकाय नाग-फैलाए हुए फन-वेदनामयी नजरें-दुख, अंधकार, रक्तपात। इस दुख-दर्द को बौआ जैसी कलाकार ही समझ सकती हैं। तभी तो बौआ देवी का गाँव जितवारपुर देश का एकमात्र ऐसा गाँव बन चुका है, जहाँ की तीन महिलाओं को पदमश्री मिल चुका है। अगर एक वाक्य में कहना हो तो हम कह सकते हैं मधुबनी पेंटिंग का यशभाग लिख रही हैं बौआ देवी।

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