कोई भी मंजिल नामुमकिन नहीं है : कपिलदेव प्रसाद

विभिन्न विवरणों और आन्तरिक सन्दर्भों से पता चलता है कि नालन्दा में बौद्ध काल से ही बावन बूटी की परम्परा रही है। प्राचीन बौद्ध साहित्य में भी नालन्दा में निर्मित होने वाले बावन बूटी का वर्णन मिलता है। राजगीर में बौद्ध विहारों की बड़ी संख्या थी, जिसमें बौद्ध भिक्षु और बौद्ध भिक्षुणियाँ निवास करती थीं। उनके पहनावे के लिए सदियों पूर्व नालन्दा के बुनकरों ने बुनकरी में एक नयी कला शैली का इजाद किया। उन्होंने करघे पर बौद्ध धर्म से जुड़े 52 बूटियों (चिन्हों) वाले कपड़ों की बुनाई शुरू की। 52 बूटियाँ होने के कारण उसे बावन बूटी कला के नाम से पुकारा जाने लगा। जानकारों का मानना है कि मध्य काल में भी नालन्दा बावन बूटी कपड़ों का प्रमुख केन्द्र अवश्य रहा होगा। यह स्थिति मुगल काल और ब्रिटिश शासन काल में भी बनी रही थी। नालन्दा के बडे़-बूढ़े बताते हैं कि आजादी के बाद के शुरूआती दशक तक बावन बूटी कपड़े का जबर्दस्त क्रेज था। बहरहाल लगभग लुप्त हो चुकी इस कला को जिन संघर्षों से कपिलदेव प्रसाद ने पुनर्जीवित किया, वह विशेष उल्लेखनीय है। कपिलदेव प्रसाद के संघर्षों को रेखांकित कर रहे हैं बिहार म्यूजियम के अपर निदेशक एवं वरिष्ठ कला लेखक अशोक कुमार सिन्हा

Ashok Kumar Sinha

करीब 6 दशक पहले की बात है। बिहार के नालन्दा जिले में पिता-पुत्र के बीच बातचीत हो रही थी। आठ वर्षीय पुत्र अपने बुनकर पिता से परिवार में परम्परा से चली आ रही बावन बूटी कला का इतिहास जानना चाह रहा था। पिता का कहना था कि उनके परिवार में यह कला सदियों से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है। जब तक आधुनिक कपड़ा मिलों का आविष्कार नहीं हुआ था, हथकरघे से बुने गए कपड़े पर अलग-अलग रंग के धागों से बनाई जाने वाली बावन बूटी कला का जबर्दस्त ‘क्रेज‘ था। क्षेत्र के बुनकरों को सामाजिक प्रतिष्ठा हासिल थी। इतना ही नहीं बावन बूटी कपड़ों की एडवांस बुकिंग तक होती थी। पिता बता रहे थे कि उनके पिता शनिचर ताँती का भी बावन बूटी कला में बड़ा नाम था और उनके द्वारा निर्मित परदे डॉ. राजेन्द्र प्रसाद के कार्यकाल में राष्ट्रपति भवन में भी लगाये गए थे। उसी क्रम में उन्होंने अंग्रेजी शासन काल के दौरान की एक रोचक घटना से भी अपने बेटे को अवगत कराया। जिले का एक बड़ा अंग्रेज अफसर शनिचर ताँती का बहुत बड़ा मुरीद था। एक बार उसने शनिचर ताँती को सम्मानित करने का निर्णय लिया। सम्मान के तौर पर सोने का मेडल या दस रुपया-दोनों में से किसी एक का चुनाव शनिचर ताँती का करना था। उन दिनों दस रुपये की रकम बहुत बड़ी होती थी। इसलिए शनिचर ताँती ने सोने के मेडल के बदले दस रुपया लेना स्वीकार किया था। पिता-पुत्र के बीच उनके इस निर्णय पर मत-मतान्तर शुरू हो गया। पिता उनके निर्णय को सही  ठहरा रहे थे, जबकि पुत्र का कहना था कि अगर उसके जीवन में कभी ऐसा अवसर मिलेगा तो वह पैसे के बजाए मेडल लेना ही पसंद करेगा। यह वह दौर था, जब बावन बूटी कला के कद्रदानों की संख्या दिनों-दिन कम  होती जा रही थी और पहली कतार में बैठे कुछेक कला समीक्षक ‘‘बावन बूटी कला की मौत“ की ढ़ोलबजाई भी करने लगे थे। इसलिए पिता अपने पुत्र की बचकाना सोच पर मन ही मन मुस्करा रहे थे। लेकिन 05 अप्रैल, 2023 को वह अवसर भी आया, जब बावन बूटी कला को मूल रूप में जीवित और संरक्षित रखने के लिए उस बच्चे को तालियों की गड़गड़ाहट के बीच राष्ट्रपति भवन में कला के क्षेत्र के सर्वश्रेष्ठ सम्मान ’पद्मश्री‘ से  सम्मानित किया जा रहा था। वह बच्चा और कोई नहीं, बल्कि नालन्दा जिले के बसवन विगहा गाँव का कपिलदेव प्रसाद था।

कपिलदेव प्रसाद का जन्म एक निम्नवर्गीय बुनकर परिवार में 05 अगस्त, 1955 को हुआ था। इनके पिता हरि ताँती और माता का नाम फुलेश्वरी देवी था। परिवार की आर्थिक स्थिति खस्ताहाल रहने के कारण कपिलदेव प्रसाद का बचपन कठिन परिस्थितियों में गुजरा। छोटी-छोटी जरुरतों के लिए भी उन्हें तकलीफ झेलनी पड़ती थी। इसलिए कपिलदेव प्रसाद की प्रवृति शुरू से ही संघर्षशील और जुझारू बनती चली गयी। तीसरी कक्षा तक की उनकी शिक्षा गाँव की पाठशाला में हुई। उससे आगे की पढ़ाई की सुविधा गाँव में नहीं थी। अतः चौथी कक्षा में उनका नामांकन बिहार गर्वनमेंट अर्द्ध सामयिक बुनाई विद्यालय, बिहारशरीफ में करा दिया गया। उस समय तक बिहारशरीफ एवं उसके आसपास के क्षेत्रों में बड़ी संख्या में बुनकरी का काम होता था। इसी वजह से बिहार सरकार ने इस इलाके में  इस विद्यालय की स्थापना की थी। विद्यालय में सातवीं तक की निःशुल्क पढ़ाई होती थी, जहाँ बच्चे नियमित पढ़ाई करते हुए बुनकरी, का ज्ञान भी अर्जित करते थे। दिन के कुल 8 घंटे में 4 घंटे तक पाठयक्रम की शिक्षा और शेष 4 घंटे में बुनकरी का प्रशिक्षण दिया जाता था।

सातवीं की पढ़ाई पूरी करने के बाद कपिलदेव प्रसाद की इच्छा आगे की पढ़ाई करने की थी। लेकिन आर्थिक स्थिति बेहद खराब हो चली थी। भरा-पूरा परिवार था। माता-पिता और पाँच बहनों के बीच ये अकेला भाई थे। जैसे-तैसे परिवार चल रहा था। परिणाम यह हुआ कि इस आर्थिक तंगी के कारण वे हाई स्कूल में दाखिला नहीं ले सके। घर में करघा था। पिता बुनकरी का काम करते थे। इसलिए कपिलदेव प्रसाद ने दस वर्ष की किशोरावस्था में ही पिता के काम में हाथ बंटाने का निर्णय लिया। इरादा था कि ज्यादा भले ही न कमा सके, पर किसी पर बोझ तो न बनेंगे। बुनकरी कला का प्रारंभिक ज्ञान तो इन्हे बुनाई विद्यालय में हासिल हो चुका था, लेकिन बावन बूटी कला की बुनियादी चीजों का ज्ञान इन्होंने अपने पिता से ग्रहण किया। घर की आमदनी बढ़ाने के ख्याल से इनकीं पाँचों बहनें भी बावनबूटी से जुड़ गयीं। फिर भी बड़ी मुश्किल से उनका गुजारा हो पाता था। वर्षों तक यह संघर्ष चलता रहा। खाली जेब और खाली पेट कई रातें गुजारी। पर हारे-थकेे नहीं। खूब बुनकरी करते थे। बहुत कम समय में कपिलदेव प्रसाद ने बुनकरी में कुशलता प्राप्त कर ली। उस समय तक बावन बूटी कला में पौराणिक और बौद्ध कालीन प्रतीकों को कपड़ों पर उभारा जाता था। कपिलदेव ने परम्परा से अलग हटकर कुछ नया करने का प्रण लिया। कपिलदेव प्रसाद ने उन प्रतीकों को लेकर कई प्रयोग किये और उसे समृद्ध किया। ये बारीकी से नाप-तौल कर बूटी को कपडे पर बिनने लगे। इनका काम पूर्ववर्ती और समकालीन बुनकरों से थोड़ा भिन्न होता गया और उसमें नए रूप और आस्वाद आ गये। वह लोगों को पसंद आने लगा।

अब कपिलदेव प्रसाद युवावस्था में पहुँच चुके थे और उनमें सोचने-समझने की शक्ति विकसित हो गई थी। उस समय तक बावन बूटी कला में काम करने वाले बुनकरों मे ज्यादा संख्या अंसारी (मुस्लिम) और ताँती (हिन्दू) की थी। कपिलदेव प्रसाद ने महसूस किया कि सहयोग समितियों के माध्यम से अंसारी समुदाय के बुनकर अच्छी आमदनी अर्जित कर रहे हैं, जबकि ताँती जाति के बुनकर नाकामी की चादर ओढ़े समय के अंधेरे में गुम होते चले जा रहे हैं। अंसारी समुदाय के बुनकरों की देखा-देखी कपिलदेव प्रसाद ने 25 वर्ष की उम्र में ही अपने गाँव बसवन बिगहा के बुनकरों को संगठित कर ‘प्राथमिक बुनकर सहयोग समिति‘ का गठन किया कर लिया। समिति का काम चल निकला। बुनकरों को सरकारी योजनाओं की जानकारी मिलने लगी। बिहार स्टेट हैण्डलूम कारपोरेशन और बिहार राज्य निर्यात निगम के माध्यम से इस समिति को सरकारी आर्डर भी मिलने लगे।

वर्ष 1982 मे श्री कपिलदेव प्रसाद बिहारशरीफ क्षेत्रीय हस्तशिल्प बुनकर सहकारी संघ लिमिटेड के निदेशक मंडल में चुने गए। श्री प्रसाद के प्रयास से उनके गाँव बसवन बिगहा में निर्यात निगम के माध्यम से कॉमन वर्क शेड का निर्माण हुआ। उस कर्मशाला में हथकरघे भी लगाये गए। स्थानीय बुनकर उसमें काम करने लगे। कपिलदेव इतना पर ही नही रूके। कपिलदेव प्रसाद की पहल पर राष्ट्रीय हथकरघा विकास कार्यक्रम के तहत बिहारशरीफ में प्रखंड स्तरीय कलस्टर का निर्माण हुआ। क्षेत्र के 200 से ज्यादा बुनकरों को इसका लाभ मिला। बाद के वर्षों में कपिलदेव प्रसाद बिहार राज्य हथकरघा बुनकर सहकारी संघ के निदेशक मंडल के लिए भी चुने गए।

कपिलदेव प्रसाद के व्यक्तित्व को ठीक से जानने-समझने के लिए बावन बूटी कला के इतिहास और वर्तमान को भी जानना-समझना आवश्यक है। भारतवर्ष वस्त्र परम्परा के लिए सम्पूर्ण विश्व में ख्यातिमान रहा है। हालाकि वस्त्रों और परिधानों के बहुत पुराने नमूने उपलब्ध नहीं है क्योंकि भारत जैसे नम और गर्म वातावरण में कपड़े जैसी क्षतिमान वस्तु को बहुत अधिक दिनों तक सुरक्षित नहीं रखा जा सकता। लेकिन मोहनजोदडों की खुदाई में सूतों की प्राप्ति से यह स्पष्ट हो गया है कि सिन्धु घाटी की सभ्यता में वस्त्र परम्परा का शुभारम्भ हो गया था। देश के अलग-अलग राज्यों में भिन्न-भिन्न प्रकार के वस्त्रों और परिधानों की परम्परा थी और उनमें नालन्दा में निर्मित होने वाले बावन बूटी कपड़ों का महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था।

विभिन्न विवरणों और आन्तरिक संर्दभों से यह पता चलता है कि नालन्दा में बौद्ध काल से ही बावन बूटी की परम्परा रही है। प्राचीन बौद्ध साहित्य में भी नालन्दा में निर्मित होने वाले बावन बूटी का वर्णन मिलता है। राजगीर (नालन्दा) महात्मा बुद्ध की तपोभूमि रही है। वे बार-बार राजगीर आते थे और यहाँ उन्होंने वर्षों तपस्या की थी। स्वाभाविक रूप से राजगीर में बौद्ध विहारों की बड़ी संख्या थी, जिसमें बौद्ध भिक्षु और बौद्ध भिक्षुणियाँ निवास करती थीं। उनके पहनावे के लिए सदियों पूर्व नालन्दा के बुनकरों ने बुनकरी में एक नयी कला शैली का इजाद किया। उन्होंने करघे पर बौद्ध धर्म से जुड़े 52 बूटियों (चिन्हों) वाले कपड़ों की बुनाई शुरू की। 52 बूटियाँ होने के कारण उसे बावन बूटी कला के नाम से पुकारा जाने लगा। बौद्ध धर्मवलंबियों को वह पसंद आने लगा। जानकार बताते हैं कि गौतम बुद्ध के समय में भी हथकरघे पर कपड़े की बुनाई होती थी। बौद्ध भिक्षुणियां प्रायः तीन तरह का वस्त्र धारण करती थी- वासस (साड़ी), स्तन पट्ट तथा उत्तरीय (दुपट्टा)। जबकि पुरूष दो तरह के वस्त्र धारण करते थे-तहमद (लुंगी अथवा धोती) तथा उपवसन (चादर अथवा शॉल)। इन्हें चीवर कहा जाता था। चीवर कपास से बनता था तथा पीला या गेरुएं रंग का होता था। जातक काल में बावन बूटी कला को पर्याप्त ख्याति मिल चुकी थी। जानकारों का मानना है कि मध्य काल में भी नालन्दा बावन बूटी कपड़ों का प्रमुख केन्द्र अवश्य  रहा होगा। यह स्थिति मुगल काल और ब्रिटिश शासन काल में भी बनी रही थी। नालन्दा के बडे़-बूढ़े बताते हैं कि आजादी के बाद के शुरूआती दशक तक बावन बूटी कपड़े का जबर्दस्त क्रेज था। शादी-ब्याह के मौके पर दुल्हन के लिए बावन बूटी साड़ी पहनना अनिवार्य होता था। नालन्दा के ग्रामीण क्षेत्रों में यह कहानी सुनने को मिलती हैं कि वर पक्ष अगर किसी कारणवश दुल्हन के लिए बावन बूटी साड़ी लेकर नहीं पहुँचता था, तो बारात लौटा दी जाती थी। कपिलदेव प्रसाद ने यह कहानी बचपन में अपने दादी के मुंह से सुनी थी।

कपिलदेव प्रसाद कहते हैं कि बावन बूटी कला हमारी कई पीढ़ियों के परिश्रम का फल है। इसमें तसर और सूती के कपड़ों को करघे से तैयार किया जाता है और मोटिव (बूटी) भी करघे पर ही बुने जाते हैं। बूटियों को उभारने के लिए एक अतिरिक्त शटल का प्रयोग किया जाता है। यह करघे के खड़े तानो से तैयार किया जाता है। पहले बावन बूटी के माध्यम से 6 गज की साड़ी या परदे पर बौद्ध धर्म की कलाकृतियों को उकेरा जाता था। लेकिन बाद में टेबल क्लॉथ, साड़ी, चादर, शॉल, स्कार्फ, दुपट्टा एवं परदा इत्यादि पर भी एक जैसे डिजायन को 52 बार बूटियों (मोटिव) के रूप में बनाया जाने लगा। यह बूटी बहुत ही महीन होती है और अलग-अलग रंग के धागों की मदद से उसे तसर या सूती कपड़े पर टांका जाता है। उन बूटियों में बौद्ध धर्म के प्रतीक चिन्हों की बहुत महीन कारीगरी की जाती है। कमल के फूल, पीपल के पत्ते, बोधि वृक्ष, त्रिशूल, सुनहरी मछली, पारसोल, बैल, शंख, धर्म का पहिया और स्तूप जैसे बौद्ध धर्म के प्रतीकों का बूटी के रूप में निर्माण होता है। प्रत्येक बूटियाँ दस से बारह इंच की दूरी पर बनाई जाती है। लेकिन ज्यादातर कारीगर उन बूटियों के बीच की दूरी को अपने हिसाब से घटा  या बढ़ा देते हैं। चूकिः बावन बूटी के कपड़ों में बौद्ध धर्म की झलक दिखती है। इसलिए यह कपड़ा बौद्ध धर्मविलंबियों का पसंदीदा है। लेकिन मुलायमियत, झीनेपन और उस पर बूटियों की महीन कारीगरी के कारण यह कला अन्य धर्मावलंबियों के बीच भी जनप्रिय है।

कुछ बुनकरों के मुताबिक ‘बावन‘ शब्द की जड़ें भारतीय पुराण और परम्परा से जुड़ी है। भगवान विष्णु का बामन अवतार हुआ था। उनका आकार 52 ऊँगलियों के बराबर था। लेकिन, उन्होंने प्रहलाद के पौत्र राजा बलि का घमंड तोड़ने के लिए तीन डगों में ही पूरा भूलोक (ब्रह्माण्ड) को नाप दिया था। उनके इसी रूप की कथा को बावन बूटी के बुनकर साड़ी चादर या परदा पर करते हैं। समय के साथ बावन बूटी कला में आधुनिकता का प्रवेश होता गया है और उसमें नए-नए डिजायन आते रहें हैं।

जैक्वार्ड और डॉबी लूम के आविष्कार के बाद वस्त्रों की दुनिया में नयी क्रांति आ गई है क्योंकि इसमें डिजायन का काम ज्यादा सहज और आसान हो गया है। साथ ही समय की भी बचत होती है। लेकिन बावनबूटी के कलाकार परम्परागत करघे पर ही काम करना पसंद करते है। कपिलदेव प्रसाद का कहना है कि जैक्वार्ड और डॉबी लूम में अक्सर धागा टूट जाता है, जिसे काटना पड़ता है। उससे कपड़ा खराब होने का डर बना रहता है। इसलिए नालन्दा के बुनकर हथकरघे पर ही काम करना पसंद करते हैं। परंपरागत करघे पर बुने गए कपड़े मुलायम होते हैं और अपनी कारीगरी और सौन्दर्य के कारण लोगों का मन मोह लेते हैं। बसवन बिगहा गाँव बावन बूटी शिल्प का प्रमुख निर्माण केन्द्र है।

आज से तीन-चार दशक पहले तक नालन्दा जिले में हथकरघों की संख्या लगभग चार हजार के करीब थी, जो अब घटकर सिर्फ 200 के करीब रह गई है। इसी तरह बुनकरों की संख्या भी सैकड़ों में सिमट गई है। कारण एक नहीं, अनेक हैं। मशीन युग के प्रादुर्भाव से कपड़ों की पुरातन परम्परायें तेजी से ओझल हो रही है, उसका प्रभाव बावन बूटी पर भी पड़ा है। बुनकरी का इल्म सिखाने वाला सरकारी बुनकर स्कूल भी 1990 में बंद हो गया। कपिलदेव प्रसाद कहते हैं कि बावन बूटी कपड़ों की मांग बौद्ध धर्मावलंबी देशों में ज्यादा है। पहले हमलोग माल तैयार करते थे और वह बिहार स्टेट हैण्डलूम कारपोरेशन एवं बिहार स्टेट एक्सपोर्ट कारपोरेशन के माध्यम से विदेशों में निर्यात होता था। लेकिन दोनों निगमों के बंद हो जाने से बावन बूटी का निर्यात कम हो गया है। कपिलदेव प्रसाद के मुताबिक जबतक नालन्दा में बड़े पैमाने पर बावनबूटी का काम होता था, उसका धागा स्थानीय स्तर पर बिहारशरीफ में ही उपलब्ध हो जाता था। लेकिन अब उसे गया के मानपुर या फिर भागलपुर से मंगाना पड़ता है।

Kapildeo Prasad

लेकिन तमाम कठिनाइयों के बावजूद भी कपिलदेव प्रसाद ने हिम्मत नहीं हारी। जीवनभर संघर्ष करते रहे, दुखों को झेलते रहे। फिर भी हताश नहीं हुए। निरन्तर नूतन प्रयोग कर लुप्त होती बावन बूटी कला को जीवित और संरक्षित करने में लगे रहे। कहते हैं कि नेक इरादे से की गई कोशिश को फरिश्तों का भी साथ मिलता है। कपिलदेव प्रसाद के साथ भी यही हुआ। उन्हें सुप्रसिद्ध डिजायनर राजीव सेठी का संस्था ‘ एसियन हेरिटेज फाउंडेशन ‘ और श्रीमती महाश्वेता महारथी का साथ मिला। कपिलदेव प्रसाद की धर्मपत्नी लाखो देवी और पुत्र सूर्यदेव प्रसाद भी उनके मिशन को पूरा करने में लगे रहे। इसलिए सरकारी सहायता न मिलने के बावजूद भी अगर बावन बूटी कला आज जीवित है तो उसका श्रेय कपिलदेव प्रसाद को है। कपिलदेव प्रसाद ने यह साबित कर दिया है कि मेहनत पर यकीन करने वाले के लिए कोई भी मंजिल नामुमकिन नहीं है। बस निरंतर आगे बढ़ते रहने का धैर्य और हौसला बनाये रखने की आवश्यकता है।

बावन बूटी कला के उत्थान और प्रचार-प्रसार के प्रति अभूतपूर्व समर्पण की वजह से कपिलदेव प्रसाद को अबतक विभिन्न सम्मानों-पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। पुरस्कार और सम्मान तो जैसे स्वयं चलकर इनके पास पहुँचते रहे हैं। उनमें सन् 93-94 में वस्त्र मंत्रालय, भारत सरकार की बुनकर सहकारी समिति का राष्ट्रीय पुरस्कार, 2001-02 में हथकरघा एवं रेशम निदेशालय, बिहार सरकार द्वारा बुनकर पुरस्कार, 2004-05 में तक्षशिला एजुकेशनल सोसायटी, दिल्ली द्वारा अक्षत नमन पत्र भारत सरकार के वस्त्र मंत्रालय द्वारा राष्ट्रीय योग्यता प्रमाण-पत्र और रेमंड कंपनी, मुम्बई द्वारा प्रदत्त सम्मान प्रमुख है। 05 अप्रैल, 2023 को इन्हें कला के क्षेत्र में भारत सरकार के श्रेष्ठ सम्मान ‘पदमश्री‘ से भी अलंकृत किया जा चुका है। मौजूदा दौर में जब लोककला के हर पक्ष पर आधुनिकता हावी हो रही है, बावन बूटी जैसी पारंपरिक लोककला के जीवंत रंग को सहेजना आवश्यक है। ऐसे में कपिलदेव प्रसाद को पदमश्री सम्मान से नवाजा जाना सुखद है। जाहिर है कि पदमश्री सम्मान के बाद लुप्त हो रही बावन बूटी की चर्चा अब वैश्विक स्तर पर होने लगी है। बावन बूटी के कलाकृतियों की डिमांड फिर से बढ़ने लगी है। कहीं न कहीं, यह बावन बूटी जैसी समृद्ध पारंपरिक कला के जीवंत रंग को दुनिया भर में पहुँचाने वाली बात है।

 

-अशोक कुमार सिन्हा

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