मिथिला (मधुबनी) पेंटिंग के अग्रदूत: भास्कर कुलकर्णी

कला की दुनिया में मिथिला या मधुबनी चित्रकला शैली की अपनी एक विशिष्ट पहचान है, इस लोकचित्रकला को घर आंगन से निकालकर दुनिया भर में फ़ैलाने का श्रेय जिस एक व्यक्ति को दिया जाता है, वह हैं भास्कर कुलकर्णी . यूं तो भास्कर कुलकर्णी के खाते में वारली चित्रकला से लेकर देश के अन्य भागों की लोककला को पहचान दिलाने जैसी उपलब्धियां भी हैं. इतना ही नहीं उनकी बहुमुखी प्रतिभा ने उस दौर के कई समकालीन कलाकारों को भी प्रभावित किया. किन्तु इन सबके बावजूद बिहार के कला जगत में उनसे संबंधित विस्तृत जानकारी का नितांत अभाव है. उनकी मृत्यु के लगभग 37 साल बाद उनके बारे में जानकारी जुटाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य था. बहरहाल इस चुनौती को स्वीकार कर उनसे संबंधित इस विस्तृत लेख के लिए कला लेखक अशोक कुमार सिन्हा के हम आभारी हैं. प्रस्तुत है आलेख…
Ashok Kumar Sinha
उत्कृष्ट-कालजयी सृजन सामाजिक आंदोलनों से ही निकलता है- निकल सकता है और ऐसा कोई सामाजिक आंदोलन जब किसी एक व्यक्ति में मूर्त हो जाए-उसी का नाम भास्कर कुलकर्णी है। एक बेहतर समाज, कला निर्माण के संघर्ष की ऐसी गाथा से ही भास्कर कुलकर्णी का उदय हुआ, जिसमें समाज और सृजन एक दूसरे का अन्योन्याश्रित हो गया। कला के लिए, समाज के लिए कटोरा लेकर घूमने का बिम्ब- इसी रूप में भास्कर कुलकर्णी का बनता है। विपरीत परिस्थितियों में भी वे मिथिला (मधुबनी) एवं वारली चित्रकला का एक प्लेटफार्म बनाने के लिए आजीवन जूझते रहे। जो सिर्फ सपना नहीं था, साकार चेष्टा का प्रतिरूप था। उनकी इस चेष्टा ने मिथिला (मधुबनी) एवं वारली कला का स्वरूप ही बदल दिया। इन दोनों परम्परागत कलाओं में आधुनिकता का पुट देकर, उसे जीविकोपार्जन से जोड़कर, उनसे जुड़े कलाकारों की दुनिया ही बदल दी। फलस्वरूप दोनों ही जगहों पर उन्हें महात्मा का आदर मिला। वे संत की तरह पूजे गये। उन्हें देवता का मान मिला। मधुबनी के जितवारपुर में उनका स्मारक भी बना। यह मामूली बात नहीं है। सीधे-सादे लोगों के भीतर उतर जाना। उनका अंतर काढ़ लेना। इसी रूप मे वे लिजेंड (जीवित आख्यान) हैं। जीवित आख्यान है उनकी कला-व्याख्या। भास्कर कुलकर्णी को जाने बिना मिथिला (मधुबनी) पेंटिंग का इतिहास ही नहीं लिखा जा सकता है।
कला निर्माण की अपनी स्थापना है- भास्कर कुलकर्णी की, जिसको आज तक बदला नहीं जा सका है- कोई चुनौती नहीं मिली है। घड़ा गोल क्यों ? नारी शरीर की लोच से, गोलाई से उसका क्या सामंजस्य है ? यही कला की रचनात्मकता है। कुलकर्णी ने इसकी खोज की। कुलकर्णी कहते थे कि सामान्य घड़े के आकार में स्त्री-सौंदर्य के दर्शन होते हैं। आज चीजों की बनावट में जीवन और प्रकृति के साम्य की कोई चर्चा नहीं। भास्कर इसी चर्चा के जन्मदाता हैं। स्पेस ही कला का स्त्रोत है। कला का आदर्श और विकास ही समाज शास्त्र है। अमूल्य है- कुलकर्णी की सोच। कला के बारे में उनकी राय। सभी बातों, चीजों की तरह कला का भी एक केन्द्रीय बिन्दु होता है। उसका मूल स्त्रोत। इसी से किसी कला का अवकाश/स्पेस फलक परिभाषित होता है। उस बिन्दु से जो बाहर निकलता है, वही कला है। उस बिन्दु से रेखा कहाँ तक जायेगी, इसका ज्ञान होता है। वे जानते थे कि बिन्दु जब अपने स्थल से बाहर निकलेगी, तभी रेखा की स्पेस में निर्मिति होगी। इसे ही हम कला कहते हैं। यह भास्कर कुलकर्णी का अतुलनीय अवलोकन था।
इसी तरह भास्कर कुलकर्णी का भी एक केन्द्र बिन्दु था। अमुक-अमुक कलाकृतियों में केन्द्र-बिन्दु नहीं है। फिर उसका अर्थ क्या है ? इस महत्वपूर्ण प्रश्न की खोज में वे लगे रहे। उसके आयामों (क्पउमदेपवद) को। यही आयाम कला के केन्द्र बिन्दु है। यही प्रक्रिया है- भास्कर के कला-कर्म और उनके व्यक्तित्व की थाह लेने की। साथ ही उनकी कला-व्याख्या और कला-दृष्टि की।
Bhaskar Kulkarni

भास्कर कुलकर्णी की जीवन-कथा का कुछ भी सिलसिलेवार, समयबद्ध पता नहीं- ठीक – उनकी दिनचर्या की तरह। किसी को उनके वास्तविक व्यक्तित्व, स्वरूप का पता तक नहीं चला। उनका पूरा जीवन कभी सामने आया ही नहीं। सिर्फ टुकड़ों-टुकड़ों में जानकारी उपलब्ध है। वे कला जगत में विजातीय बनकर जीते रहे। आउटसाइडर। कभी अग्रिम पंक्ति में नहीं रहे। इसलिए उनके जीवन के अंतिम दिन, जो मिथिलांचल में बीते, उन्हीं के माध्यम से निरूपण संभव है। भास्कर ने मुम्बई के जे.जे. स्कूल ऑफ आर्टस से कमर्शियल आर्ट में पढ़ाई की। अंतिम वर्ष में वे फाईन आर्ट में चले गए। जे.जे. से निकलने पर इन्होंने एक विज्ञापन कम्पनी में काम किया। इस दौरान ये नामी चित्रकारों दिलीप चित्रे, ए. रामचंद्रन, के.कु. गाँधी, मनोहर म्हात्रे, भास्कर हाण्डे इत्यादि के जीवन्त सम्पर्क के साथी रहे। बहसें करते, संवाद करते रहे इन लोगों के साथ। रात-रात भर। इनके यहाँ तीन-चार दिन ठहरते। उन्हें अपने डायरी के पन्ने सुनाते। फिर निकल जाते। डायरी ही जैसे उनका घर थी। फिर वे एयर इंडिया में चले गये। यहाँ उन्होंने एयर इंडिया को ’’महाराजा’’ का लुक दिया, जो दुनिया भर में एयर इंडिया की पहचान बना। एयर इंडिया में कुछ वर्षों की नौकरी के बाद मुम्बई के ’’बुनकर सेवा केन्द्र’’ में कार्यशील हो गये। फोटोग्राफर प्रभाकर पेंढ़ारकर का स्टूडियों ’बिम्ब’ इनका अड्डा था। ’बिम्ब’ में गर्मागर्म बहसों में शिरकत करने से इनकी रचनात्मकता को गति मिली। प्रसिद्ध नाटककार विजय तेंडुलकर से यहीं इनका गहरा परिचय हुआ। इन्हीं दिनों ये आदिवासी कला ’वारली पेंटिग्स’ की प्रक्रिया और उसके महत्व को समझने के लिए गंजाड़ का भ्रमण करने लगे। इन्हें वारली कला का अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज दिख गया।

इस कला की ऐतिहासिक और पारम्परिक जड़ों का इन्हें परिदर्शन हुआ। इन्होंने वारली कला को दुनिया भर में पहचान दिलाने का संकल्प लिया। फिर कागज पर, कपड़े पर वारली कलाकारों से चित्र बनवाने शुरू किये। वारली पेंटिंग को बड़ा बाजार मिलना शुरू हो गया। ’बुनकर सेवा केन्द्र’ की सूत्रधार और श्रीमती इंदिरा गाँधी की मित्र पुपुल जयकर का इन्हें साथ मिला। वर्ष 1964 में हैण्डीक्राफ्ट एवं हैण्डलूम एक्सपोर्ट कारपोरेशन, दिल्ली में डिजाइनर बन गये। पुपुल जयकर ने वहाँ इन्हें पूरी स्वतंत्रता दे रखी थी। काम के प्रति ईमानदारी इनका सबसे बड़ा गुण था। पेंटिंग उनकी प्रियतमा थी।
वर्ष 1964-65 में बिहार के मिथिलांचल में भीषण अकाल पड़ा था। फसलें झुलस गई थी और लोग दाने-दाने को मुँहताज हो गये थे। उस अकाल से निपटने के लिए हैण्डीक्राफ्ट बोर्ड की तरफ से भास्कर कुलकर्णी को मधुबनी भेजा गया। उन्हें यह निर्देश था कि मिथिलांचल की परम्परागत कला का विकास कर संबंधित कलाकारों को आर्थिक लाभ पहुँचाया जाए। उस समय तक मिथिलांचल के बाहर मिथिला (मधुबनी) पेंटिंग की कोई पहचान नहीं थी और न ही इसका व्यवसायीकरण हुआ था। यह पेंटिंग सिर्फ जमीन एवं दीवारों पर होती थी। ब्राह्यण एवं कायस्थ जाति की महिलाओं में ही इस पेंटिंग का प्रचलन था और उनके चित्रांकण मुख्य रूप से पौराणिक आख्यानों से जुड़े होते थे। हालांकि कुछ प्रगतिशील महिलाएँ कागज पर चित्रकारी कर नवीन प्रयोग कर रही थी। मधुबनी पेंटिंग इतना तक ही सीमित थी। इस पेंटिंग को व्यवसायिक रूप देने के लिए यह आवश्यक था कि इसे मिट्टी की दीवारों से कागज पर उतारा जाए ताकि राष्ट्रीय स्तर पर होने वाली कला-प्रदर्शनियों में स्थान मिल सके। यह काफी कठिन कार्य था। क्योंकि दीवार पर रेखायें उपर से नीचे की ओर आती है। इसलिए उनमें एकात्मकता, लयात्मकता और कलात्मकता बनी रहती है। यह गति कागज पर आकृति बनाते समय नहीं आ पाती। भास्कर इसके लिए योग्य कलाकारों की खोज में मधुबनी के गाँवों में भटकने लगे।
जानकारों का कहना है कि भास्कर कुलकर्णी के मधुबनी आगमन के समय ही दो बच्चों की सिर काटकर हत्या हुई थी। पूरे इलाके में ’’मुड़ीकटवा’’ का शोर था। लोग में भय एवं दहशत का माहौल था। गौर वर्ण वाले कुलकर्णी उनके लिए बाहरी व्यक्ति थे। कुलकर्णी को लोग शक के दृष्टि से देख रहे थे। एक-दो जगहों पर लोगों ने ’मुडी़कटवा’ समझकर उनके साथ बदतमीजी भी की। साइकिल से निकलते तो बच्चे उन पर ईंट-पत्थर फेकते, लेकिन कुलकर्णी अपने कर्म और आचरण से लोगों को यह विश्वास दिलाने में सफल रहे कि वे डिजाइनर हैं और कलाकारों की मदद के उदेश्य से यहाँ आए हैं। भास्कर कुलकर्णी की परेशानियाँ फिर भी खत्म नहीं हुई थी।

यह वह समय था, जब ब्राह्यण एवं कायस्थ जाति की महिलाएँ पर्दा-प्रथा के कारण घर से बाहर नहीं निकलती थी। पेंटिंग उनके लिए धार्मिक कार्य था और उसके लिए धन अर्जन उनकी नजर में में ’’पाप’’ था। कुलकर्णी ने एक साइकिल खरीद ली और उसी से जितवारपुर, राँटी, मंगरौनी इत्यादि गाँवों का भ्रमण करते रहे। महिलाओं विशेषकर पुरूषों को समझाते रहे। इस में क्रम उन्हें तिरस्कार, अपमान का भी सामना करना पड़ा। पुरूष प्रधान समाज उन्हें दुत्कार देता था। लेकिन कुलकर्णी न जाने किस मिट्टी के बने थे। तिरस्कार के बावजूद वे बार-बार उनके दरवाजे पर जाते। वह हतोत्साहित नहीं हुए। अंततः उनके अटूट धैर्य और संकल्प की जीत हुई। कुलकर्णी को किसी से जानकारी मिली थी कि जितवारपुर की बाल-विधवा जगदम्बा देवी और महापात्र परिवार की सीता देवी भिति-चित्रण में काफी दक्ष है और अभावग्रस्त परिस्थितियों में जीवन यापन कर रही है। वे पेंटिंग के लिए तैयार हो सकती है।

भास्कर कुलकर्णी अगले ही दिन जगदम्बा देवी की कुटिया (घर) पर पहुँच गये। उस कुटिया की दीवार पर बहुत ही मनमोहक पेंटिंग बनी हुई थी। जगह-जगह पर रामायण और महाभारत के कथानक वाले म्यूरल और पेंटिंग की खूबसूरती में खोये रहे। फिर उन्होंने जगदम्बा देवी से पैसे के एवज में स्थानीय बाजार में उपलब्ध सस्ता कागज पर चित्राकन के लिए अनुरोध किया। फिर सीता देवी से मिले और उनसे भी चित्रांकन के लिए अनुरोध किया। पहले तो जगदम्बा देवी और सीता देवी झिझकी। लेकिन कुलकर्णी के बहुत समझाने पर तैयार हो गई। बाद में कुलकर्णी ने जितवारपुर की भुमा देवी, उखा देवी, यमुना देवी, बौआ देवी, राँटी की महासुन्दरी देवी और गोदावरी दत्त तथा लहेरियागंज की कुसमा देवी से सम्पर्क साधा। ये सभी महिलाएँ आगे आयीं और इस तरह उनके बाहर नहीं निकलने, मिलने की जड़ता खत्म हुई। साथ ही मधुबनी पेंटिंग, जो पूर्व में भिति-चित्र थी, उसका व्यवसायिक रूपान्तरण कागज पर प्रारम्भ हुआ।
कुलकर्णी के अनुरोध पर इन सभी कलाकारों ने 5X5, 5X10 और 30X22 ईंच के हैंडमेड पेपर पर कुछ चित्र बनाये। उन चित्रों को भास्कर कुलकर्णी ने नई दिल्ली के दस जनपथ स्थित सेन्ट्रल काटेज इम्पोरियम में प्रदर्शित किया, जिसका उद्घाटन तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने किया था। इन चित्रों को भरपूर सराहना मिली। फिर क्या था, जगह-जगह पर मधुबनी पेंटिंग का प्रदर्शन होने लगा और उसकी बिक्री शुरू हो गई।
पद्मश्री बौआ देवी
पद्मश्री बौआ देवी बताती हैं कि भास्कर कुलकर्णी जब पहली बार मेरे घर आये थे, उस समय मैं 13 साल की थी। मेरे चचेरे देवर का जनेऊ संस्कार हो रहा था। मंडप सजा हुआ था और उसमें जगह-जगह पेंटिंग बनी हुई थी। वह पेंटिंग मेरी चचेरी सास भुमा देवी ने बनायी थी। कुलकर्णी उन्हें देखकर चमत्कृत रह गये। मेरे पास शंकर, दुर्गा और काली की पेंटिंग थी, जो धागे से कढ़ाई कर मैंने बनायी थी। भास्कर कुलकर्णी ने डेढ़ रूपये में उन तीनों कलाकृतियों को खरीद लिया। बौआ देवी बताती हैं कि भास्कर कुलकर्णी पहली बार एक सप्ताह तक मधुबनी में ठहरकर दिल्ली चले गये थे। कुछ महीनों बाद फिर वे जितवारपुर आए और मेर झोपड़ी को ही उन्होंने अपना अस्थायी निवास बना लिया। इस बार वे दिल्ली से हैण्डमेड पेपर लेकर आए थे और उसी पर उन्होंने स्थानीय कलाकारों से चित्र बनवाने शुरू किये। हैण्डमेड पेपर पर मैंने भी दुर्गा, पार्वती और काली की तीन पेंटिंग बनायी थी और उसके बदले उन्होंने मुझे पन्द्रह रूपया दिया था।
उन्हीं दिनों अमेरिका के डा. रेमन्ड ने स्थानीय समाज सेविका गौरी मिश्र के सहयोग से जितवारपुर में ’’सेवा मिथिला’’ की स्थापना की थी। कुलकर्णी इनके सम्पर्क में भी रहे। गौरी मिश्र ने अमेरिका से पढ़ाई की थी और जितवारपुर में सामाजिक अभिकर्ता के रूप में जीवन बिता रही थी। नारी सशक्तिकरण इनका विषय था। वे बेसहारा महिलाओं को संरक्षित करने में लगी थीं। क्षेत्र की महिला कलाकार सिर्फ मैथिली जानती थीं और बोलती थीं, जो कुलकर्णी को समझ में नहीं आती थी। गौरी मिश्र उनके लिए दुभाषिये का काम करने लगी। बौआ देवी कहती हैं कि उन दिनों भास्कर कुलकर्णी का दिल्ली से मधुबनी आना-जाना लगा रहता था।
पद्मश्री गोदावरी दत्त कहती हैं –
’’सन 1964-65 के अकाल के दौरान एक व्यक्ति मुझसे मिलने घर आया। नाम था-भास्कर कुलकर्णी। लेकिन, सामाजिक मर्यादा और लोकलाज के भय से मैं उनसे नहीं मिली। लेकिन वे बार-बार मेरे घर आते रहे और चित्र के बदले पैसा लेने का आग्रह करते रहे। यह हम लोगों को बड़ा विचित्र लगता था। अंत में उनकी जिद और फिर जेठ के बहुत समझाने पर मैं उनसे मिली। वे मेरी पेंटिंग देखकर बहुत प्रभावित हुए और उसके एवज में पैसा देने लगे। मैंने उनसे पिंड छुड़ाने के उदेश्य से उसी तरह दे दिया। उस समय मुझे क्या पता था कि मेरी पेंटिंग उनके माध्यम से विश्वविख्यात होगी।’’
पद्मश्री गोदावरी दत्त के साथ लेखक अशोक कुमार सिन्हा
भास्कर कुलकर्णी ने मधुबनी पेंटिंग को अधिकाधिक टिकाउ बनाने के लिए कई प्रयोग किये। उस समय तक मधुबनी पेंटिंग कागज पर प्राकृतिक रंगों से बनायी जाती थी। रासायनिक रंगों का प्रयोग शुरू नहीं हुआ था। महिला कलाकार पीपल की छाल से भूरा, गुलाब से लाल, हरसिंगार के डंठल से नारंगी, सेम की पतियों से हरा, करौंदा से नीला, गोंद और बकरी के दूध से लाल रंग तैयार करती थी। रसोई के बरतनों में जमने वाली कालिख का प्रयोग वे काले रंग के लिए करती थी। लेकिन ये प्राकृतिक रंग ज्यादा टिकाऊ नहीं होते थे। भास्कर कुलकर्णी ने यह समझ दी कि गोबर-मिट्टी के घोल में चारकोल पाउडर मिलाकर कागज पर उसका लेप लगा देने से पेंटिंग की उम्र बढ़ जाती है। साथ ही उसमें ’’फोक टच’’ आ जाता है, जिससे उसकी खूबसूरती बढ़ जाती है। मधुबनी पेंटिंग के कलाकार आज भी उनकी बताई हुई तकनीक का प्रयोग अपनी पेंटिंग में करते हैं।
जामिया मिलिया विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली के पूर्व प्रोफेसर, कलाकार और सुप्रसिद्ध कला समीक्षक ए. रामचन्द्रन ने अपने एक संस्मरण में लिखा है-
’’मेरे चित्रों में भारतीय परम्परा, संस्कृति और नैतिक मूल्यों की झलक यदि मिलती है, तो उसका सारा श्रेय भास्कर को ही जाता था। उसी ने मुझे सर्वप्रथम इस बात से परिचित कराया कि यूरोपीय परम्परा और संस्कृति से हमारी संस्कृति और परम्परा अधिक समृद्ध है। वह हमेशा कहा करता था कि भारतीय संस्कृति का कभी ह्यस नहीं हो सकता, क्योंकि उसकी जड़ें अत्यन्त मजबूत है। किसी भी क्षेत्र का पुस्तकीय ज्ञान और व्यावहारिक ज्ञान ये दो बिल्कुल भिन्न बातें हैं और वह इनमें से जो कुछ खोजना चाहता था, वह उसे मिल भी गया था, परन्तु उसका इस्तेमाल उसने अपने लिए नहीं किया। बल्कि, उसके जरिए मुझ जैसे अनेकों को जागृत किया और हमें उसका लाभ दिलवाया। यही उसका बड़प्पन था। उसी ने मुझे मधुबनी पेंटिंग की कलाकार गंगा देवी और सीता देवी के चित्रों का सूक्ष्म फर्क समझाया। उन दोनों के चित्र मुझे दिखाते हुए इस बात का सोदाहरण विवेचन किया कि एक साधारण रेखा भी कितने अलग-अलग तरीकों से खींची जा सकती है। वह बताता था कि ’’गंगा देवी के चित्रों में देखो, किसी भी रेखा की पुनरावृत्ति नहीं की गई है। उसने एक सीधी रेखा कितने अलग-अलग तरीकों से खींची है। वास्तविकता तो यह है कि भास्कर ने मधुबनी चित्रों की जो बारीकियाँ देखी थी, वे किसी नामचीन कला समीक्षक के लिए देख पाना भी मुश्किल थी।’’
मिथिला (मधुबनी) पेंटिंग के उम्रदराज कलाकारों का कहना है कि भास्कर कुलकर्णी लगभग 6-7 वर्षों तक मधुबनी पेंटिंग को नित नई ऊँचाईयाँ देने का प्रयास करते रहे। इस दौरान दिल्ली से मधुबनी उनका आना-जाना लगा रहता था। वे स्थानीय कलाकारों को चित्रों के विषय के साथ-साथ उसे आकर्षक बनाने का ’टिप्स’ भी देते रहते थे। पुपुल जयकर (बड़ी अम्मा) को मधुबनी बुलाकर स्थानीय कलाकारों से मिलवाने का श्रेय भास्कर कुलकर्णी को है। हरिनगर के सूर्यभान कामत और रामदेव मंडल उनके सहयोगी के रूप में थे। लेकिन उसके बाद उनका मधुबनी से सम्पर्क टूट गया। कहते हैं कि रूढ़ी सम्प्रदाय में दीक्षा लेकर वे नर्मदा नदी के तट पर साधना करने लगे थे, संभवतः जीवन के एकाकीपन से उब चुके थे।
भास्कर कुलकर्णी: एक रेखाचित्र

वर्ष 1982 में मिथिलांचल ने भास्कर कुलकर्णी का दूसरा स्वरूप देखा। 1965 में सूट-बूट वाले भास्कर 1982 में सन्यासी बन गये थे। कमर में सफेद धोती, गोल गले की गंजी, बिखरे बाल और दाढ़ी बिल्कुल सन्यासी जैसा रूप। पद्मश्री बौआ देवी बताती हैं कि उनके हाथ में फूटी कौड़ी तक नहीं थी। पूछने पर सिर्फ इतना ही कहते थे-सब कुछ लूट गया। लेकिन उनके अन्दर संवेदनशील और सहृदय कला साधक जिन्दा था। वे बहुत बीमार लग रहे थे। लगतार खांसते रहते थे। बाद में पता चला कि वे क्षय रोग से ग्रसित हैं-बुरी तरह। लगता था पहले से इसे ढ़ो रहे थे। जिसका न खाना-पीना तय, न सोना-जागना, न स्थान विशेष। उसे प्रकृति क्षय ही तो देगी। चूकि मेरा परिवार बड़ा हो गया था। इसलिए इस बार वे  मेरे घर से चंद कदमों की दूरी पर दुखनी देवी के घर पर रहने लगे।

लेकिन उनका ज्यादातर वक्त मेरे आम्रकुंज में ही बीतता था। कभी तालाब में और कभी आम्रकुंज में बैठकर ध्यान लगाते। फिर मिथिला शैली में गणपति का चित्र बनाते। रुग्णावस्था में भी मधुबनी पेंटिंग को नूतन आयाम देने के प्रयत्न में लगे रहे। उन्हें अपनी आसन्न मृत्यु का भी आभास होने लगा था। एक दिन उन्होंने सीता देवी के पुत्र सूर्यदेव झा और रामदेव झा से कहा भी था- जब मेरी मृत्यु होगी तो मेरा दाह-संस्कार इसी बगीचे में करना। यह कहते हुए उन्होंने बगीचे में एक स्थल को चिन्हित करते हुए वहाँ ईंट गाड़ दिया था।
कुलकर्णी की स्थिति दिनोंदिन बिगड़ती चली गयी थी। जब खाट पर पड़े रहने के लिए विवश हो गये तो गौरी मिश्र एवं जितवारपुर के कलाकार उन्हें उठाकर लहेरियागंज (दरभंगा) स्थित सरकारी अस्पताल में ले गये। गौरी मिश्र के पति डा. भवनाथ मिश्र उसी अस्पताल में डाक्टर थे। करीब एक-डेढ़ माह तक उस अस्पताल के जेनरल वार्ड में उनका ईलाज चला। जितवारपुर के कलाकार कुशल-क्षेम जानने के लिए हर रोज पहुँचते। लेकिन होनी को कुछ और ही मंजूर था। कुलकर्णी नहीं बचे। 24 अप्रैल, 1983 को मात्र 45 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया। निधन के समय सम्पति के नाम पर उनके पास मात्र एक किट बैग और एक छड़ी थी, जिसे स्मृति के रूप मे उनके भाई और भतीजा अपने साथ लेते गये। पद्मश्री बौआ देवी आगे बताती हैं कि मनु पारेख की भास्कर कुलकर्णी के साथ बहुत अधिक धनिष्ठता थी। कुलकर्णी की मृत्यु की खबर सुनकर मनु पारेख उनके भाई और भतीजे को साथ लेकर जितवारपुर आये थे। उस दिन की याद कर बौआ देवी के आँखों की रेती आज भी तरल हो जाती है। वे कहती हैं-
’’जितवारपुर पहुँचते ही भाष्कर कुलकर्णी को याद कर मनु पारेख भाव विहवल हो गये थे। उनकी जो रूलाई शुरू हुई थी, वह रूकने का नाम ही नहीं ले रही थी। काफी देर तक बच्चों की तरह सुबक-सुबक कर रोते रहे थे। बड़ी मुश्किल से उन्हें चुप कराया गया था।’’
मनु पारेख
जितवारपुर के कलाकारों को भास्कर कुलकर्णी के मौत की सूचना श्रीमती गौरी मिश्र से मिली थी। वे इसकी जानकारी देने जितवारपुर आयी थीं। कुलकर्णी की अंतिम इच्छा को ध्यान में रखकर जितवारपुर के कलाकार उनका दाह-संस्कार उसी बाग में करना चाहते थे, जबकि गौरी मिश्र दरभंगा में करना चाहती थी। इस बात को लेकर खूब वाद-विवाद हुआ। प्रत्यक्षदर्शियों का कहना है कि हाथा-पाई और मारपीट की नौबत तक आ गई थी। बूढ़े-बुर्जुगों के हस्तक्षेप से किसी तरह मामला शांत हुआ था। उनका दाह-संस्कार दरभंगा में ही हुआ।
महज 45 साल में गुजर जाने वाले भास्कर कुलकर्णी ने सिर्फ दस साल के अभियान में मिथिला (मधुबनी) पेंटिंग को समूची दुनिया में फैला दिया था। मिथिला (मधुबनी) पेंटिंग आज देश-दुनिया में अपनी रोशनी बिखेर रही है तो उसका सर्वाधिक श्रेय भास्कर कुलकर्णी को ही है। उनका नाम आज भी मिथिला (मधुबनी) पेंटिंग के कलाकारों के बीच एक नयी शक्ति और उर्जा का संचार करता है। भास्कर कुलकर्णी के योगदान को स्मरण कर आने-वाले युगों की पीढ़ियाँ भी गौरव का अनुभव करेंगी।

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