भास्कर कुलकर्णी की बात करें तो मिथिला चित्रकला के उन्नयन में उनके महत्वपूर्ण योगदान के बावजूद बिहार के कला जगत में उनसे संबंधित बहुत कम जानकारी देखने को मिलती है। जबकि मराठी भाषा में उनसे संबंधित अनेक लेख उपलब्ध हैं । यहाँ तक कि चिन्ह नाम से फेसबुक पेज भी उपलब्ध है, किन्तु उस पर ज्यादातर सामग्री मराठी में ही है। हालाँकि 2010 में पीयूष दईया के संपादन में ललित कला अकादमी, नयी दिल्ली से प्रकाशित पुस्तक ‘कला भारती- खंड 1’ में उनसे संबंधित कई लेखों का हिंदी अनुवाद शामिल है। बहरहाल दीपक आर.जैन द्वारा वर्ष 2003 में मराठी में लिखे लेख का हिंदी अनुवाद किया है पद्मश्री ब्रह्मदेव पंडित ने। दीपक जैन और ब्रह्मदेव पंडित के आभार के साथ प्रस्तुत है यह आलेख आलेखन डॉट इन पर । – मॉडरेटर
-
दीपक आर. जैन
लोककला के संशोधक भास्कर कुलकर्णी का नाम मैंने पहली बार प्रभाकर बर्वे से सुना। वर्ली, मिथिला आदि लोककला की प्रतिष्ठा व दुनिया में जो मान्यता हैं उसका सबसे ज्यादा श्रेय भास्कर कुलकर्णी को जाता है । 1983 में किसी पहचान के बिना बिहार के दरभंगा में उनका निधन हुआ। लेकिन कला, साहित्य क्षेत्र के अनेक कलाकारों ने उन्हें याद रखा । वर्ली चित्रकार जीवा सोमा महशे ने पेरिस के एक ईमारत की पूरी दीवार पर वर्ली चित्र बनाये हैं। और अब तो ‘चिन्ह’ का पूरा दिवाली अंक कुलकर्णी के पत्र, लेख व वर्षानुवर्ष अपनी डायरी में लिखी बातों पर निकलने वाला था।
कुलकर्णी एक अलौकिक गृहस्थ थे। सरकारी संस्था ‘विव्हर्स सर्विस सेंटर’ में गौतम वाघेला, बरणे आडिवरेकर आदि अनेक चित्रकारों की तरह वो भी काम करते थे। उन्होंने हैंडलूम एंड हेंडीक्राफ्ट एक्सपोर्ट में काम किया। पुपुल जयकर इसकी अध्यक्षा थी। यह संस्था सरकारी थी फिर भी जयकर कलाकारों की भावना को समझती थी। इसीलिए ‘फेस्टिवल ऑफ़ इंडिया’ जैसे कार्यक्रमों के आयोजन में कुलकर्णी की मदद ली।
वसई के पास स्थित गुंजाड गांव में कुलकर्णी तब रहा करते थे। उस ज़माने में उन्होंने अपने प्रॉविडंट फंड की रकम वर्ली जनजाति के लोगों के लिए कुआं बनवाने में खर्च कर दी । वे आगे जहां जहां-जहां गए वहां के ग्रामीणों के साथ घुल मिल गए। उन्हें अनेक भाषाओं के साथ साथ कुछ आदिवासी बोली भी आती थी। वे एक संस्कृत पंडित के पास वेद सीख रहे थे। उन्होंने वेदों की पूर्ण जानकारी लेने का ध्येय लिया था।
एक तरह से उनका व्यक्तित्व मस्तमौला था। जिसकी वजह से कलंदर, अवलिया जैसे अनेक नाम उन्हें मिले। लेकिन अगर ध्यान से देखें तो वे अपने कृतितवान सहयोगी बरवे, गायतोंडे ,स्वामीनाथन की तरह निरंतर खोज करनेवाला व्यक्तित्व थे ।उनका मानना था की पैसे और प्रतिष्ठा के अलावा नए विचार और नयी बात सीखने में सुख मिलता हैं.
आज पुरे विश्व में घुमन्तु जनजातियों पर शोध हो रहे हैं। क्योंकि अपने ही समाज का यह दूसरा चेहरा होता है जो अभी भी अपने आदिम रूप में रहता हैं।उनका अगर सही तरीके से अध्यन किया जाये तो उनका अच्छे से मूल्यांकन हो सकता है । कलाड सेवा स्टरा जैसे मनोवैज्ञानिक ने अच्छे से इसका अवलोकन किया है । परंतु भास्कर कुलकर्णी जैसे व्यक्तित्व को इसे जानने की इच्छा भीतर से ही हो गयी थी। कला में, डिज़ाइन में यदि छवि का उपयोग करना हो तो ज्यादातर कुछ बुनियादी रूप के चित्रों का उपयोग होता है। उदाहरण स्वरुप चंद्र, सूर्य, सर्प, जानवर,फूल, जैसी आकृतियों के साथ आधुनिक चित्रकार अनेक रंगों का उपयोग कर के कलाकृति तैयार करता है। वहीँ शुद्ध छवि व रंगीन स्थान का उपयोग करके एक आदिवासी कलाकार चित्र तैयार करता है। पर दोनों में अंतर संबंध हैं ही। पॉल क्ली, पाब्लो पिकासो, डेविड हॉकनी जैसे अनेक कलाकारों ने आदिम रूप के मुखाकृतियों का भरपूर उपयोग किया हैं।
ऐसी ही एक प्रदर्शनी का नाम था ‘रॉ एंड द कुक्ड’ (कच्चा और पका हुआ जो लेवी स्ट्रॉस की एक पुस्तक का शीर्षक है)। इन दोनों चित्र संस्कृति का संबंध कच्चा और पका हुआ जैसा ही है। कुलकर्णी इस अंतर के महत्त्व को समझनेवाले पहले भारतीय थे। 14 सितंबर 2003, को वे 74 वर्ष के होते। उनके ना होने से इतने सालों में हमने क्या खोया क्या पाया यह उनके डायरी, पत्र आदि पढ़ने से शायद पता चल जाये।
मराठी से अनुवाद: पद्मश्री ब्रह्मदेव पंडित