हिम्मत और हौसले की मिसाल है ज्योति सिन्हा

संदर्भः विश्व दिव्यांग दिवस (3 दिसम्बर)

अशोक कुमार सिन्हा

इतिहास के अनेकों पृष्ठ ऐसे व्यक्तियों के उद्धरणों से भरे पड़े हैं, जिन्होंने दिव्यांगता के बावजूद अपनी अदम्य इच्छाशक्ति, जिद और जुनून से उपलब्धियों का आसमान छुआ है। दृष्टिहीन कवि मिल्टन ने ‘‘पैराडाइज लास्ट’’ जैसी अनुपम काव्य-कृति की रचना की। दिव्यांग तैमूर लंग का पराक्रम जगजाहिर है। सूरदास ने अपनी बंद आँखों से श्रीकृष्ण के रूप और वात्सल्य का जो वर्णन किया है, उसे किसी की खुली आँखें भी नहीं देख पायी। ब्रिटेन के वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिन्स ने अपने सभी अंगों की अकर्मण्यता के बावजूद ब्रह्मांड में ‘ब्लैक होल’ की खोजकर विज्ञान की धारा मोड़ दी। वर्तमान समय की बात करें तो पूरी दुनिया में मोटिवेशनल स्पीकर के तौर पर मशहूर निक के दोनों हाथ और दोनों पाँव नहीं हैं। इसी श्रृखंला में बिहार के मुजफ्फरपुर जिले की ज्योति सिन्हा भी है, जो शरीर के आधे हिस्से में जेनेटिक पंगुता के बावजूद मधुबनी पेंटिंग में रंग भरकर कला की दुनिया में अपनी रोशनी बिखेर रही हैं।

ज्योति सिन्हा

ज्योति का जन्म 3 जनवरी, 1987 को बिहार के मुजफ्फरपुर जिले के कटरा प्रखंडन्तर्गत चंगेल गाँव में हुआ। ज्योति के माता-पिता का नाम बीरेन्द्र कुमार लाल और रेखा कर्ण है। ज्योति पाँच भाई-बहनों में सबसे बड़ी है। इनके दो जुड़वां भाई हैं- प्रभाकर और दिवाकर। ज्योति का बचपन लाड-प्यार एवं खेल-कूद में बिता। बचपन से ही वह पढ़ने में तेज थी। परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक न होने के बावजूद ज्योति ने वर्ष 2002 में मैट्रिक की परीक्षा अच्छे अंकों से उत्तीर्ण की। इसके कुछ दिनों के बाद ही ज्योति के कमर से नीचे का भाग संवेदनहीन हो गया। अपने बूते उठना-बैठना तो दूर, नित्य-क्रिया के लिए भी दूसरों पर आश्रित हो गई। माता-पिता ने अपनी लाडली ज्योति के इलाज के लिए क्या-क्या नहीं किया। पहले बनारस और फिर एम्स, दिल्ली के बड़े-बड़े डॉक्टरों को दिखाया। हकीम, वैद्य, अंधश्रद्धा, झाड़-फूँक, तेल मालिश- सबकुछ करके देख लिया। कई वर्षों तक इलाज का यह सिलसिला चलता रहा। कभी-कभी तो ज्योति कई दिनों तक अस्पताल में पड़ी रही। लेकिन हर तरफ से असफलता ही हाथ लगी। बाद में पता चला कि ज्योति ‘‘मसकुलर डिस्ट्रोफी’’ नामक दुर्लभ किस्म की बीमारी की चपेट में हैं और वर्तमान मेडिकल साइंस के पास इसका कोई इलाज नहीं है।

ज्योति के लिए यह समय बड़ा कठिन था। उसके रोजमर्रा के जीवन मे तमाम मुश्किलें थी, ब्रश करने से लेकर टॉयलेट जाने तक। ज्योति खुद में सिमटती चली गई। कॉलेज जाने का सवाल ही नहीं उठता था। न पैसा, न मौका, न सुविधा। घड़ियाँ कठिन थीं, लेकिन संघर्ष जारी था। निष्ठुर नियति को यही रूकना मंजूर नहीं था। दो वर्ष बाद ज्योति के दोनों जुडवां भाई प्रभाकर और दिवाकर भी उसी जेनेटिक बीमारी की चपेट में आ गए। यही दोनों भाई ज्योति का सहारा थे, जो खुद बेसहारा हो गए। एक साधारण परिवार में माता-पिता किस प्रकार नियति से अपने अभाव-ग्रस्त जीवन में लड़ते रहे होंगे, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। घर की आर्थिक स्थिति बेहद कमजोर हो चली थी। लेकिन फिर भी माता-पिता ज्योति और उसके दोनों भाईयों का मनोबल बढ़ाते रहे।

ज्योति लगभग 12 वर्षों तक अपनी पीड़ा और उदासी से जूझती रही। उसका जीवन पलंग तक सिमट गया था और अपनी जिंदगी पहाड़ जैसी दिखती थी। लेकिन आखिर कब तक यूँ जिंदगी चलती। ऐसा देखा गया है कि जब कोई व्यक्ति अकेला एवं असहाय होता है, तब उसकी आंतरिक शक्ति भरपूर कार्य करती है। ऐसा ही ज्योति के साथ भी हुआ। मन ही मन ज्योति ने अपने-आपको मजबूत बनाया। मजबूत इरादों के साथ उसने अपनी नयी जिदंगी शुरू करने का निर्णय लिया। माता-पिता ने भी ज्योति को जीवन में सक्षम बनाने की ठान ली। लेकिन करना क्या है?  इसकी कोई रूप-रेखा तय नहीं हो पा रही थी। गाड़ी संसाधनों में जाकर अटक जा रही थी। गरीबी उस राह में सबसे बड़ी रोड़ा थी।

एक दिन ज्योति के हाथ एक पुस्तक हाथ लगी। वह पुस्तक थी- लेखक एवं चित्रकार कृष्ण कुमार कश्यप की ‘‘मिथिला चित्रकला भाग- एक एवं दो।’’ यह पुस्तक ज्योति के लिए ‘‘टर्निंग पवाइन्ट’’ साबित हुई। ज्योति ने उस पुस्तक के अध्ययन के उपरान्त यह निश्चय कर लिया कि वह मधुबनी पेंटिंग के क्षेत्र में अपना भविष्य बनायेगी। चित्रांकन की अदम्य इच्छा से उद्विग्न ज्योति ने उस पुस्तक का सहारा लेकर आड़ी-तिरछी लकीरें खींचनी शुरू कर दी। लेकिन सृजनशीलता की नयी ललक के बीच उसने महसूस किया कि सिर्फ पुस्तक के सहारे वह मधुबनी पेंटिंग में पारंगत नहीं हो पायेंगी, किसी योग्य शिक्षक के मार्गदर्शन की बेहद जरूरत है। पुस्तक पर कश्यप जी का टेलीफोन नम्बर था। ज्योति ने उनसे सम्पर्क साधा। कई दिनों के अनुपम-विनय के बाद कश्यप जी की स्वीकृति मिल गई। उन्होंने ज्योति को अपना शार्गिद बना लिया। कश्यप प्रत्येक सप्ताह दरभंगा से अपने खर्चें पर 40 किलोमीटर की दूरी तय कर ज्योति के गाँव आते और उसे मधुबनी पेंटिंग सिखाते। यह क्रम कई महीनों तक चला। हालांकि कई बार सिखाने के क्रम में कश्यप का धैर्य भी टूट जाता था। लेकिन ज्योति के उत्साह और इच्छाशक्ति से बात बनती गई। ज्योति के माता-पिता और भाई-बहन उसका उत्साह बढ़ाते रहे। कश्यप के पास जो कुछ भी था, वह सब ज्योति को दे दिया।

ज्योति ने गुरू के निर्देश पर कठिन परिश्रम तथा अभ्यास और निश्चित कार्यक्रम का अनुसरण किया और कुछ ही महीनों में वह मधुबनी पेंटिंग में दक्ष हो गयी। जो कोई भी ज्योति की पेंटिंग को देखता, उसकी तारीफ जरूर करता। दूसरों की प्रशंसा से ज्योति का उत्साह बढ़ा और उसने अपने घर पर ‘‘मिथिला शिल्पकला विद्यापीठ’’ की स्थापना कर गाँव अन्य लड़कियों को मधुबनी पेंटिंग सिखाना शुरू कर दिया। ज्योति के जीवन का बंद दरवाजा जैसे खुल गया।

उन्ही दिनों ज्योति को एक दूसरे गुरू मिले, जिन्होंने शिक्षा की अगली डिग्रियों को प्राप्त करने की प्रेरणा दी। इनका नाम है प्रो0 उमेश कुमार उत्पल। इन्होंने ज्योति का नामांकन दरभंगा के महथा आदर्श महाविद्यालय में करा दिया। पढ़ाई की व्यवस्था घर से ही करा दी। गेस पेपर सहारा था। ज्योति सिर्फ परीक्षा देने कॉलेज जाया करती थी। हालांकि उस समय उसे घर से कॉलेज लाने-ले जाने और कॉलेज की सीढ़ियाँ चढ़ने के लिए एक आदमी की जरूरत होती थी, जो उसे गोद में उठा सके। गुरू ने इंटर से लेकर ग्रेजुएशन तक निःशुल्क शिक्षा दी। ज्योति ने इंटर की परीक्षा 2016 में दी। दुर्भाग्य ने यहाँ भी ज्योति का पीछा नहीं छोड़ा। पिता और चाचा दरभंगा के परीक्षा केन्द्र पर इन्हें इंटर की परीक्षा दिलाने मोटर साइकिल से ले जा रहे थे। मोटर साईकिल रास्ते में ही दुर्घटना ग्रस्त हो गई। ज्योति समेत दोनों को काफी चोटें आयी। ज्योति के शरीर जगह-जगह से छिल गये थे, उससे खून रिस रहा था। सभी ने ज्योति को परीक्षा छोड़ देने की सलाह दी। लेकिन जीवट की धनी ज्योति कहाँ हार मानने वाली थी। वह घायलवस्था में ही परीक्षा में बैठी और जब रिजल्ट निकला तो वह द्वितीय श्रेणी से पास कर गई थी। उसके बाद ज्योति ने स्नातक की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की।

आज की तिथि में ज्योति अपनी पेंटिंग साधना के साथ-साथ सी.एम. कॉलेज, दरभंगा से हिन्दी में एम.ए. कर रही हैं। प्रतिभा का यह उन्मेष भी ज्योति के मामले में विरल है। यह दोनों उपलब्धियाँ- पेंटिंग और शैक्षणिक योग्यता हासिल करना- इनके दो गुरूओं का प्रताप है। इन गुरूओं के मार्गदर्शन ने सचमुच इनके जीवन-प्रकाश का एक स्थायी दीया प्रज्ज्वलित कर दिया है। इसी से ज्योति नाम की सार्थकता भी प्रकट हो गई है।

वर्ष 2015 की बात है। एक दिन ज्योति की नजर अखबार के एक विज्ञापन पर पड़ी। वह विज्ञापन बिहार सरकार के उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान, पटना की ओर से था और उसमे राज्य के परम्परागत कलाकरों को राज्य पुरस्कार प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए पटना आने को आमंत्रण था। ज्योति ने प्रतियोगिता में शामिल होने का मन बना लिया। हालांकि 10 दिनों तक पटना में रहकर प्रतियोगिता में शामिल होने में ज्योति को कई तरह की परेशानियाँ थी। लेकिन ज्येाति अपने इरादे पर अटल रही। वहाँ ज्योति की मुलाकात वहाँ के निदेशक अशोक कुमार सिन्हा से हुई। ज्योति की लगन और उसके काम की विविधता देख अशोक कुमार सिन्हा बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने ज्योति का मनोबल बढ़ाया। प्रतियोगिता में ज्योति का प्रदर्शन भी शानदार रहा और वह दो सौ प्रतिभागियों के बीच प्रथम स्थान पर रही। ज्योति को कला की दुनिया का बिहार का सबसे बड़ा सम्मान ‘‘राज्य पुरस्कार’’ हासिल हुआ और सूबे के तत्कालीन उद्योग मंत्री जय कुमार सिंह ने ताम्रपत्र, शाल और नकद राशि से ज्योति को सम्मानित किया। यह ज्योति के जीवन में बेहद महत्वपूर्ण मोड़ था। वर्ष 2016-17 में बिहार सरकार के कला, संस्कृति एवं युवा विभाग द्वारा ज्योति सिन्हा को सीता देवी पुरस्कार (युवा) हासिल हुआ।

ज्योति के चित्र दिल्ली में भी प्रदर्शित हो चुके है। कुछ वर्ष पहले जब ये दिल्ली इलाज के लिए गईं थीं, उस समय भी दिल्ली के गांधी आर्ट गैलरी में चित्रों की प्रदर्शनी में ज्योति की भागीदारी हुई। इसमें इनको ‘‘बेस्ट आर्टिस्ट ऑफ द ईयर’’ का प्रथम पुरस्कार मिला था। यह पुरस्कार इन्हें तत्कालीन कांग्रेसी सरकार के मंत्री श्री जगदीश टाइटलर के हाथों से मिला था। विकलांग जिन्दगी की व्यथा का शमन इस तरह ज्योति के लिए कला-पुरस्कारों की प्राप्ति से होता रहा। कला ने ज्योति को मुक्ति दी। इस तरह उनको अपनी कलात्मक क्षमता के उकेरने का बल मिला। इसे ही ज्योति ने अपने जीवन की सिद्धि और सार्थकता मान ली है।

मधुबनी पेंटिंग में ज्योति की उम्र मात्र 5-6 बरस की है। इस दौरान अपने दुख, अपने संघर्ष और कला-चिंताओं के लिए वह अकेला अपने आपसे और आपने रंगों और रेखाओं से जूझती रही है। आर्थिक कठिनाईयों और तमाम परेशानियों के बीच उसने कागज पर ढेरों चित्र बनाये हैं। मधुबनी पेंटिंग की दोनों शैलियों (कचनी एवं भरनी) में रेखा और रंगों के साथ किया गया ज्योति का काम न केवल ढ़ाढ़स बंधाता है, बल्कि भविष्य के लिए उम्मीद भी जगाता है। आमतौर पर मधुबनी पेंटिंग में धार्मिक विषयों की प्रधानता रहती है। लेकिन ज्योति ने उसके साथ-साथ जीवनगत स्थितियों यानी आम जीवन की तकलीफों और दुखड़ों को भी चित्रभाषा दी हैं। ज्योति के चित्रों में प्रकृति और पर्यावरण की संरक्षा के स्वर भी बड़ै ही मनोहारी रूप से मुखर है, साथ ही धाार्मिक, सामाजिक-सांस्कृतिक परम्परा का भी वर्णन है।

प्रकृति से उसकी आत्मीय पहचान है। उसके चित्रों में पेड़ हैं, चिड़ियाँ हैं, आसमान हैं और बाग है। उसके चित्रों में अनुभूति की सघनता है और रंगों की सम्पन्नता भी। हतप्रभ कर देनेवाली दुःसाहस दक्षता उसके चित्रों में दिखाई देती है। लेकिन ज्योति को नहीं मालूम कि वह इन चित्रों का क्या करें? वह अपने चित्रों से धन अर्जित करना चाहती है लेकिन वह उन्हें बेचे कैसे? यह प्रश्न उसके सामने मुँह बाये खड़ा है। हाल के दिनों में उपेन्द्र महारथी शिल्प अनुसंधान संस्थान, पटना के निदेशक अशोक कुमार सिन्हा के प्रयासों से ज्योति की पेंटिंग्स की ई-कामर्स और पटना स्थित खादी मॉल से बिक्री प्रारम्भ हो गई है।

ज्योति की प्रतिभा का प्रस्फुटन संगीत के क्षेत्र में भी हुआ है। मुजफ्फरपुर के एक संगीत शिक्षक से ज्योति ने गिने-चुने भजनों की धुन पर हारमोनियम बजाना और गाना सीख लिया है। हारमोनियम पर उसके गाने का ढंग बड़ा ही मधुर और मनोहारी होता है। ज्योति की जिद पर उससे मिलने 25 अक्टूबर को मैं उसके गाँव पहुँचा था। ज्योति की वंदना और विवशता को देख लाख कोशिशों के बावजूद मेरी आँखों के कोने नम हुए बिना नहीं रहे। वहाँ का वातावरण ही कुछ ऐसा था। किसी तरह आँसू तो रोक लिया। मगर मेरा चेहरा भीतर के दर्द को बेनकाब कर रहा था। मेरे अनुरोध पर ज्योति ने ‘‘रघुपति राघव राजा राम’’ सहित दो भजन सुनाया। हारमोनियम पर भजन गाते समय वह इतनी तल्लीन हो गई की कि आधे घंटे तक उसका गायन जारी रहा। वह थकी नहीं, बल्कि सुनाने का जोश और स्वर-माधुर्य, उतरोतर बढ़ता गया। उच्चारण की स्पष्टता, स्वर की स्निगध गम्भीरता, गले की लोच में सोज और साज तो था ही, इसके सिवा भी कुछ और बात थी, जिसे व्यक्त करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है। मेरे जैसा सहृदय भावुक तो सुनकर बेसुध-सा हो गया था।

ज्योति सिन्हा ने अपने अथक परिश्रम, जिद, संघर्ष और आत्मबल के बाल पर सफलता की यह कहानी लिखी है। इस सफलता के सारा श्रेय वह अपने माता-पिता के साथ-साथ गुरू कृष्ण कुमार कश्यप, प्रो0 उमेश कुमार उत्पल और अशोक कुमार सिन्हा को देती है। ज्योति के अनुसार अगर इन लोगों ने मेरा साथ न दिया होता तो ये कभी मुमकिन नहीं होता। बहरहाल, ज्योति ने यह साबित कर दिखाया है कि जिद और जुनून से जिन्दगी में हर मुकाम हासिल किया जा सकता है, उसमें विकलांगता भी आड़े नहीं आती। इसी जिद और जुनून की बदौलत वह अपने अपंग जीवन में रंग भरने में कामयाब हो सकी है।

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